गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 1)
गायत्री मन्त्र के सम्बन्ध में एक शंका अक्सर उठाई जाती है कि उसके कई रूप हैं। कई लोग भिन्न-भिन्न ढंग से उसका उच्चारण करते या लिखते हैं। वस्तुतः शुद्ध रूप क्या है? इस सम्बन्ध में सारे ग्रन्थों का अध्ययन करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि गायत्री में आठ-आठ अक्षर के तीन चरण एवं चौबीस अक्षर हैं। भूः, भुवः, स्वः के तीन बीज मन्त्र- ओजस् तेजस् और वर्चस् को उभारने के लिए अतिरिक्त रूप से जुड़े हुए हैं। प्रत्येक वेद मन्त्र के आरम्भ में एक ॐ लगाया जाता है। जैसे किसी व्यक्ति के नाम से पूर्व सम्मान सूचक ‘श्री’ मिस्टर, पण्डित, महामना आदि सम्बोधन जोड़े जाते हैं, उसी प्रकार ॐकार- तीन व्याहृति और तीन पाद समेत पूरा और सही गायत्री मन्त्र इस प्रकार लिखा जा सकता है- “ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।” कई व्यक्ति इसी घटाने-बढ़ाने में अपनी-अपनी तिकड़म भिड़ाते देखे जाते हैं।
कोई तीन ॐ- कोई पाँच ॐ लगाने की बात कहते हैं। कोई-कोई हर चरण के साथ एक ॐ जोड़ते हैं। कोई ब्राह्मणों की- क्षत्रियों की- वैश्यों की अलग-अलग गायत्री बताते हैं। यह अपनी-अपनी मनगढ़न्त है। वस्तुतः गायत्री का शुद्ध स्वरूप उतना ही है जितना कि ऊपर बताया गया। आर्ष ग्रन्थों में कहीं-कहीं तीन या सात व्याहृतियों के प्रयोग की, बीज मन्त्रों को भी साथ जोड़ने की चर्चा है। यह अपने-अपने विशेष प्रयोग उपचार हैं। शुद्ध गायत्री मात्र उतनी ही है जिसका उल्लेख किया गया।
वेदों में अनेकों मन्त्र हैं, फिर गायत्री को ही प्रमुखता क्यों दी गयी? इस पर विचार करने पर मत यही बनता है कि इस मन्त्र की अपनी विशेष गरिमा है। इसका उल्लेख वेदों में स्थान-स्थान पर हुआ है तथा अन्यान्य धर्मग्रन्थों में भी माहात्म्य सहित प्रमुखता दी गयी है। देव संस्कृति के दो प्रतीकों- शिखा और सूत्र (यज्ञोपवीत) को भी गायत्री का ही बहिरंग पर आरोपित स्वरूप माना जा सकता है। एक को सिर पर धर्म ध्वजा के रूप में तथा दूसरे को कन्धे पर उत्तरदायित्व अनुशासन के रूप में धारण किया जाता है। यह गौरव किसी भी अन्य मन्त्र को प्राप्त नहीं है।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जून पृष्ठ 46
Recent Post
आत्मचिंतन के क्षण
आत्म निरीक्षण और विचार पद्धति का कार्य उसी प्रकार चलाना चाहिए जिस प्रकार साहूकार अपनी आय और व्यय का ठीक-ठीक खाता रखते हैं। हमारी दुर्बलताओं और कुचेष्टाओं का खर्च-खाता भी हो और विवेक सत्याचरण तथा आत...
आत्मचिंतन के क्षण
आत्म-निर्माण के कार्य में सत्संग निःसन्देह सहायक होता है किन्तु आज की परिस्थितियों में इस क्षेत्र में जो विडंबना फैली है, उससे लाभ के स्थान पर हानि अधिक है। सड़े-गले, औंधे-सीधे, रूढ़िवादी, भाग्यवाद...
आत्मचिंतन के क्षण
मनुष्य अपनी वरिष्ठता का कारण अपने वैभव- पुरुषार्थ, बुद्धिबल- धनबल को मानता है, जबकि यह मान्यता नितान्त मिथ्या है। व्यक्तित्व का निर्धारण तो अपना ही स्व- अन्त:करण करता है। निर्णय, निर्धारण यहाँ...
आत्मचिंतन के क्षण
ईश्वर उपासना मानव जीवन की अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता है। आत्मिक स्तर को सुविकसित, सुरक्षित एवं व्यवस्थित रखने के लिए हमारी मनोभूमि में ईश्वर के लिए समुचित स्थान रहना चाहिए और यह तभी संभव है जब उसक...
आत्मचिंतन के क्षण
जो अपनी पैतृक सम्पत्ति को जान लेता है, अपने वंश के गुण, ऐश्वर्य, शक्ति,सामर्थ्य आदि से पूर्ण परिचित हो जाता है, वह उसी उच्च परम्परा के अनुसार कार्य करता है, वैसा ही शुभ व्यवहार करता ...
रचनात्मक आन्दोलनों के प्रति जन-जन में उत्साह जगाए
यह यज्ञभाव को जनजीवन में उतारने का चुनौतीपूर्ण समय है
विगत आश्विन नवरात्र के बाद से अब तक का समय विचार क्रान्ति ...
मनुष्य अनन्त शक्तियों का भाण्डागार है
मनुष्य अनन्त शक्तियों का भाण्डागार है। ये शक्तियाँ ही जीवन के उत्कर्ष का आधार हैं। शारीरिक, मानसिक, आत्मिक क्षमताओं का विकास, सफलता, सिद्धि, सुख और आनन्द की प्राप्ति सब इन्हीं आत्मशक्तियों के जागरण...
आत्मचिंतन के क्षण
जीवन का लक्ष्य खाओ पीओ मौज करो के अतिरिक्त कुछ और ही रहा होगा यदि हमने अपना अवतरण ईश्वर के सहायक सहयोगी के रूप में उसकी सृष्टि को सुन्दर समुन्नत बनाने के लिए हुआ अनुभव किया होता पर किया क्या जाय बु...
आत्मचिंतन के क्षण
एकाँगी उपासना का क्षेत्र विकसित कर अपना अहंकार बढ़ाने वाले व्यक्ति , ईश्वर के सच्चे भक्त नहीं कहे जा सकते। परमात्मा सर्व न्यायकारी है। वह, ऐसे भक्त को जो अपना सुख, अपना ही स्वार्थ सिद्ध करना च...
आत्मचिंतन के क्षण
किसी एक समुदाय के विचार किसी दूसरे समुदाय के विरुद्ध हो सकते हैं। किसी एक वर्ग का आहार -विहार दूसरे वर्ग के विपरीत पड़ सकता है। एक की भावनायें, मान्यतायें आदि दूसरे से टकरा सकती हैं। इसी विविधता, व...