आत्म-ज्ञान को प्राप्त करो। (भाग 3)
चारों वेद एक स्वर से कहते हैं कि वास्तव में तू ही अविनाशी आत्मा अथवा अमर ब्रह्म है। शान्ति तथा चतुराई से अपने ऊपर के एक-एक आवरण को तथा मन को इन्द्रिय विषयों से हटा ले। एकान्त वास कर। इन्द्रिय विषयों को विष समझ। दूरदर्शिता एवं अनासक्ति द्वारा अपने मन को वश में कर। विवेक, वैराग्य, शत-सम्पत तथा मुमुक्षत्व को सर्वश्रेष्ठ श्रेणी तक बढ़ा। सर्वदा ध्यानस्थ रह। एक क्षण भी व्यर्थ न जाने दे।
आकाश सौम्य और सर्वव्यापक है, इसीलिए ब्रह्म की उपमा आकाश से दी जाती है। प्रारम्भ में तू सौम्य ब्रह्म पर विचार कर सकता है। पहले आकाश पर विचार कर और फिर धीरे-धीर ब्रह्म पर। इस प्रकार गूढ़ चिन्तन में लीन हो जा।
‘ओऽम्’ ब्रह्म का चिह्न है। अर्थात् परमात्मा का चिह्न है। ओऽम् पर विचार कर। जब तू ओऽम् का चिन्तन करेगा, तब तुझे अवश्य ही ब्रह्म का ध्यान होगा क्योंकि ब्रह्म का चिह्न ओऽम् है।
यह जान ले कि मन में उठने वाले क्षणिक विचार तथा संकल्प धोखा देने वाले हैं। तू मन तथा विचारों का दर्शक है परन्तु तू अपने उन विचारों में मग्न मत हो। अपने को ब्रह्मज्ञान के बीच में स्थित कर। अपने को सर्वश्रेष्ठ और उच्च स्थिति में रख। अपने आप को संदेह रहित, दुःख-रहित, निर्भय एवं क्लेश-रहित, और भ्रम-रहित बना तथा निर्मल सुख में स्थित होना सीख। काल और मृत्यु तेरे निकट नहीं आ सकते। तेरे लिए कोई बन्धन या रुकावट नहीं है। तू यह अनुभव करेगा कि तू इस ब्रह्माण्ड की समस्त ज्योतियों से सर्वश्रेष्ठ ज्योति है। अपूर्व सुख की यह स्थिति अवर्णनीय है। इसे अनुभव कर और प्रसन्न रह।
क्रमशः जारी
स्वामी शिवानन्द जी
अखण्ड ज्योति सितम्बर 1942 पृष्ठ 3
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