तुमहिं पाय कछु रहे न क्लेशा
बात सन् १९८० की है जब मेरा विवाह नहीं हुआ था। उस समय मैं माता- पिता के साथ मुंगेर, बिहार में रहती थी। मुंगेर जिले में अपने मिशन का एक विद्यालय चलता था। उस विद्यालय का नाम बाल भारती विद्या मंदिर था। मेरा छोटा भाई उसी विद्यालय में पढ़ता था। मैं प्रतिदिन उसे छोड़ने जाया करती थी। धीरे- धीरे मेरा सम्पर्क वहाँ के आचार्यगण से हो गया। सभी आचार्य बड़े ही शिष्ट एवं व्यवहारकुशल थे। वे सभी मुझसे प्रत्येक रविवार के यज्ञ में शामिल होने के लिए कहते।
मुझे स्कूल का वातावरण बहुत अच्छा लगता था। बिल्कुल शान्त स्वच्छ सुन्दर वातावरण। मुझे वहाँ जाने में शांति मिलती थी। जब आचार्य जी ने मुझसे यज्ञ में आने के लिए कहा तो मुझे लगा जैसे बिन माँगी मुराद पूरी हो गई। हम तीन भाई व दो बहन थे। लेकिन कोई यज्ञ में जाने को तैयार नहीं हुआ। मेरी माता जी धार्मिक स्वभाव की थीं। मैं उनके साथ रविवार के यज्ञ में जाने लगी।
एक दिन जब मैं रविवार को यज्ञ में गई तो वहाँ पर कुछ विशेष कार्यक्रम चल रहा था, उत्सव जैसा माहौल था। जब मैं आचार्य जी से कौतूहलवश पूछा तो उन्होंने बताया कि आज गुरुपूर्णिमा- व्यास पूर्णिमा का पर्व है। गुरु एवं शिष्य में संबंध जोड़ने का पर्व है। आज के दिन गुरु शिष्य को दीक्षा देता है। आचार्य जी की बातों ने मेरे अन्तःकरण में संजीवनी का काम किया।
कार्यक्रम शुरू हुआ। इसके बाद जब दीक्षा का क्रम आया तो मंच पर बैठे आचार्य जी ने कहा- ‘‘जिन्हें दीक्षा लेनी है वे इधर आकर बैठ जाएँ’’। ये शब्द मेरे कानों में पड़ते ही मेरे पैर अनायास ही दीक्षा के लिए बढ़ गए। मैंने अपनी माताजी से भी नहीं पूछा। जब माताजी ने मुझे दीक्षा की पंक्ति में बैठे देखा तो मुझे मना करने लगीं। कहने लगीं अभी शादी नहीं हुई है। पता नहीं कैसे घर में शादी हो। तुम्हें आगे नानवेज भी शायद खाना पड़े। अभी मंत्र दीक्षा न लो। बाद में तुम्हारे लिए परेशानी खड़ी हो सकती है। मैं उनकी बातों को अनसुना कर वहीं बैठी रही। दीक्षा शुरू हुई। मैंने दीक्षा का क्रम पूरा किया। उसके पश्चात् गायत्री साधना जैसे मेरी जीवन चर्या बन गई। मैंने शिक्षा के साथ साधना का क्रम बराबर जारी रखा। इस तरह करीब ६ महीने बीत गए।
अचानक मेरी शादी मुंगेर शहर में ठीक हो गई। मेरी माँ बहुत परेशान थीं। जाने कैसा परिवार होगा। मेरे पूजा पाठ को लेकर वे बहुत चिंतित थीं। जिस दिन ससुराल वाले मुझे देखने आए, उस दिन तो माँ का बुरा हाल था। कहीं खान- पान की वजह से ससुराल वाले मना न कर दें। मुझे तो किसी प्रकार की चिन्ता नहीं हो रही थी। मुझे अपने इष्ट पर पूरा भरोसा था कि मेरे लिए जो अच्छा होगा, वही होगा। जब जेठ जी मुझे देखने आए, तो उन्होंने मुझसे सिर्फ एक ही बात पूछी- बेटा गायत्री मन्त्र जानती हो? ये शब्द सुनते ही मुझे लगा मुझे सब कुछ मिल गया। मैंने गायत्री मन्त्र सुना दिया और इस तरह से मेरी शादी, गायत्री परिवार से जुड़े हुए बहुत पुराने देव परिवार में हो गई।
मुझे परिवार में बुलाना था, इसीलिए गुरुदेव ने मुझे पहले से ही संस्कारित करने की व्यवस्था बनाई, ताकि नया परिवेश मेरे लिए कष्टदाई न बने। गुरुदेव की कृपा से मुझे अच्छा एवं संस्कारित परिवार मिला, जिसके लिए मैं गुरुदेव की आजीवन ऋणी हूँ। गुरुदेव की कृपा से जो- जो हमने सोचा, सब कुछ मिला। आज भी मैं गुरुकार्य में सक्रिय हूँ, और इसे अपना सौभाग्य मानती हूँ।
चित्रा वर्मा आसनसोल (प.बंगाल)
अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
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