कौन-कौन गुण गाऊँ गुरु तेरे
मेरे पिता जी सन् १९६४ में ही गुरुदेव के संपर्क में आए। पिताजी के मन में उनके प्रति अनन्य श्रद्धा थी। मुझे याद है जब भी हमारे परिवार में कोई समस्या आती, गुरुदेव से प्रार्थना करते ही पता नहीं, कैसे सारी समस्या सुलझती चली जाती थी। इसलिए हम सभी के मन में उनके प्रति गहरी श्रद्धा का भाव था।
१९७३ में गुरुदेव ने प्राण प्रत्यावर्तन शिविर शुरू किया था। मैं भी शिविर में जाने के लिए तैयार हो गया। मन में शांतिकुंज जाने के लिए उत्साह तो था ही, गुरु देव से मिलने की ललक भी थी; क्योंकि पिताजी से गुरुदेव के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। उन्हें प्रत्यक्ष देखने का अवसर पहली बार मिल रहा था।
आखिर वह दिन आ ही गया जब हम शान्तिकुञ्ज पहुँच गए। शान्तिकुञ्ज पहुँचते ही वहाँ के वातावरण को देख हृदय पुलकित हो उठा, जैसा नाम वैसा ही काम शान्तिकुञ्ज को देखते ही मन में साधना की तरंगें उठने लगीं।
मैं जैसे ही गेट के पास पहुँचा। गुरु देव गेट पर ही खड़े मिले। मैंने झुककर प्रणाम किया। वे बोले- मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था। उनके इन शब्दों को सुनकर हृदय में ऐसी भाव तरंगे उठीं कि शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। मेरे हृदय में उनके प्रति सम्मान दूना हो गया। भगवान स्वरूप गुरुदेव की मुझ अकिंचन पर ऐसी कृपा!
मैं मन ही मन बहुत प्रसन्न था। दूसरे दिन मिलने के ख्याल से गुरु देव के पास गया। उन्होंने प्यार से अपने पास बैठाया। कुशल समाचार पूछे। इसके बाद बोले-कोई समस्या हो तो बताओ। मैंने कहा- गुरु देव! मैं बोल नहीं सकता। गुरु देव ने मुस्कुराते हुए कहा- क्यों, बोल तो रहा है। मैंने कहा मैं हकलाता हू। उन्होंने कहा मैं भी हकलाता हूँ, मेरा कोई काम रु का है आज तक? तुम्हारा भी काम नहीं रुकेगा। मैंने कहा- नहीं गुरु देव, मैं प्रवचनकर्ता बनना चाहता हू। गुरु देव थोड़ा रु के, फिर बोले- तू बनेगा, जरूर बनेगा। मैं गायत्री माँ से प्रार्थना करूँगा।
करीब एक हफ्ते बाद मेरी आवाज में सुधार होने लगा। मुझे स्वयं पर आश्चर्य होता। धीरे-धीरे एक महीने के अन्दर मेरी हकलाहट पूरी तरह दूर हो गई। गुरुदेव ने मुझसे कहा कि बनेगा तो बना भी दिया। मुझे अच्छी सर्विस भी मिल गई और एक अच्छा वक्ता भी बना दिया, जो बहुत दिनों की मेरी दिली इच्छा रही थी। मैं आज भी गुरुकृपा से अभिभूत हूँ।
जिनने स्वयं की हकलाहट दूर करने के लिए चमत्कारी शक्ति का सहारा नहीं लिया; अपनी सन्तान के लिए माता से प्रार्थना नहीं की, उनने मेरी कमियों को दूर कर मुझे आत्महीनता की ग्रन्थि से उबार लिया; जीवन पथ पर मजबूती से खड़ा होने लायक बना दिया। आज मैं धन्य हू उनकी कृपा पाकर।
कृष्ण कुमार विनोद दुर्ग (छत्तीसगढ़)
अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
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