योगक्षेमं वहाम्यहम्
सन् १९८१ की बात है। हम पतरातु में रह रहे थे। उन दिनों विचार क्रांति अभियान हेतु पदयात्रा व साइकिल यात्रा का दौर चल रहा था। पिताजी ने तय किया हिमालय की ओर साइकिल यात्रा पर जाएँगे। तीन सदस्यों की टोली तैयार हुई। योजना बनी कि पहले हरिद्वार जाकर गुरुजी से आशीर्वाद प्राप्त किया जाए। फिर हिमालय की ओर बढ़ा जाए। यहाँ साइकिल यात्रा के लिए सरकारी अनुमति आवश्यक होती है। तीनों ने एक साथ आवेदन किया, मगर अनुमति मिलने के बाद टोली के अन्य दो सदस्यों ने किन्हीं निजी कारणों से यात्रा स्थगित कर दी। पिताजी की उम्र एवं स्वास्थ्य का विचार कर हमने उनसे आग्रह किया कि वे भी अपनी यात्रा की योजना त्याग दें, पर वे नहीं माने। हमने उन्हें यात्रा स्थगित करने; ट्रेन / कार द्वारा हरिद्वार तक चले जाने आदि अनेक प्रकार के विकल्प सुझाए; पर पिताजी जिद्दी स्वभाव के थे। वे संकल्प कर चुके थे इसलिए रुके नहीं, अकेले ही रवाना हो गए।
यात्रा के आरम्भिक दिनों में वे हर दिन एक पत्र लिखा करते थे जिससे यात्रा का विवरण मिलता रहता था। कहाँ तक पहुँचे इसकी जानकारी रहती थी। कानपुर पहुँचने तक का समाचार मिलता रहा। इसके बाद पत्र आने बंद हो गए। आगे का रास्ता खतरों से भरा हुआ है इसका हमें पता था। पत्र न आने से दुश्चिंता बढ़ने लगी। एक- एक कर ८ दिन बीत गए। रविवार के दिन हम बैठकर बातें कर रहे थे। पत्नी से इसी विषय पर चर्चा हो रही थी। मैंने कहा- जाकर देखना चाहिए। कानपुर से आगे सड़क मार्ग में जाकर आस- पास के लोगों से पूछा जाए, इस तरह के कोई व्यक्ति साइकिल यात्रा करते हुए आए थे क्या विचार क्रांति अभियान के तहत? अगर उधर से गुजरे होंगे तो वहाँ के लोगों को अवश्य ही पता होगा।
इस विषय पर पत्नी से बातचीत चल रही थी कि अचानक मेरी आँखें बंद हो गईं। कोई ४५ सेकेण्ड का समय रहा होगा, जिसमें मैं ध्यान की उस गहराई में पहुँच गया; जहाँ घर, आस- पास की वस्तुएँ, सारे लोग एकबारगी अनुभव की सीमा से परे चले गए। देखा- सामने गुरुदेव खड़े हैं। वे कह रहे हैं- बेटा, श्रीकांत (पिताजी का नाम) हरिद्वार पहुँच गया है वह सुरक्षित है। चिन्ता मत करो। वह यहाँ ८ दिन एकान्त में रहेगा, फिर हिमालय की ओर रवाना होगा। आँखें खुलीं तो फिर से पहले का परिवेश सामने था, मगर पहले की वह दुश्चिंता जाती रही।
अगले दिन पिताजी का पत्र मिला। पत्र में वही बातें लिखी थीं- ‘गुरुजी ने कहा है कि ८ दिन हरिद्वार में रहकर फिर आगे की यात्रा पर निकलना’। मेरे ध्यान में आकर दुश्चिंतामुक्त करना गुरुदेव ने क्यों आवश्यक समझा होगा- सोचने लगा तो समझ में आया, भावावेश में आकर यदि मैं पिताजी को ढूँढ़ने के लिए निकल पड़ा होता तो स्वयं के लिए ही खतरे मोल लेता।
ए.पी. सिंह, विकास पुरी (दिल्ली)
अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
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