बदली हुई दृष्टि ने जीवन बदल दिया
मथुरा में १९५८ में यज्ञ का कार्यक्रम था। मेरी माँ अलीगढ़ जिले के नदरोई गाँव के आसपास की बहुत सारी महिलाओं को साथ ले जाकर प्रचार-प्रसार में जुटी थीं। मैं भोपाल में शिक्षा विभाग में मिडिल स्कूल के हेडमास्टर के पद पर कार्यरत था। यद्यपि मेरे कानों में यह बात जरूर थी कि मथुरा में एक विशाल यज्ञ का आयोजन हो रहा है, पर मैं वहाँ जाने का मन नहीं बना सका। मैंने यही सोचा था कि मथुरा में बहुत से पण्डे हैं और वे खाने कमाने के लिए कुछ न कुछ करते ही रहते हैं। यह भी कुछ ऐसा ही उपक्रम होगा, इसलिए ध्यान नहीं दिया।
जब मैं गर्मियों की छुट्टी में गाँव आया, तो मेरी माता जी ने फटकार भरे शब्दों में मुझसे कहा-यज्ञ में इतने सारे लोग दूर-दूर से आए, तुम क्यों नहीं आ सके। जब उन्होंने यज्ञ का विवरण देना शुरू किया तो सुनकर मैं पश्चात्ताप में डूबता चला गया। उसी समय मंैने यह निर्णय कर लिया कि आचार्य जी से मिलने जरूर जाऊँगा। पहले मैं अपने गाँव से भोपाल, आगरा होकर ही जाता था। इस बार बजाय आगरा के मथुरा होकर जाने का निश्चय किया। जब मैंने प्रथम बार गायत्री तपोभूमि मथुरा में आचार्यश्री के दर्शन किये, तो मैं उनके साधारण से बाह्य व्यक्तित्व के कारण प्रभावित नहीं हुआ और उनसे मिलकर भोपाल चला गया।
लेकिन उस मुलाकात के बाद से ही मन में उथल-पुथल मची रहती थी। इसी दौरान भोपाल में कुछ ऐसे व्यक्ति टकराए, जिन्होंने मुझसे पूज्य गुरुदेव के साहित्य की चर्चाएँ कीं। उसमें से एक व्यक्ति ने दो-तीन किताबें भी भेंट कीं। बस किताबों का पढ़ना था कि ठीक वैसी स्थिति बन गई, जैसी ड्रिल के समय एबाउट टर्न का आदेश होते ही किसी जवान की होती है। मेरे जीवन की पूरी दिशा ही बदल गई। फिर क्या था? तड़पन बढ़ती गई और मथुरा के चक्कर लगते गए।
मैं गुरुदेव के पास बैठा-बैठा उन वार्त्ताओं को सुनता जो वे और लोगों के साथ करते थे। इच्छा तो होती थी कि मैं भी कुछ कहूँ पर मैं कुछ कह नहीं पाता था। उनके पास जो आता, उससे पहला प्रश्न यही करते-बता तेरी कोई समस्या तो नहीं है? और वह जैसे ही अपनी समस्या सुनाता बड़ी सरलता से कह देते-हाँ बेटा, सब ठीक हो जाएगा। तब मेरा शंकालु मन सिर उठाने लगता। ये सभी फालतू की बातें हैं। ऐसा कह देने भर से कहीं समस्याएँ हल हो जाती हैं? समय बीतने के साथ ही लोगों से ये सुनने को मिलता रहा कि उनके जीवन का भारी संकट गुरुदेव की कृपा से टल गया। एक व्यक्ति ने तो यहाँ तक बताया कि जब बड़े-बड़े डॉक्टरों के कई सालों से किए जा रहे उपचार फेल हो गए तब गुरुदेव के कहने मात्र से मेरा असाध्य रोग एक ही दिन में समाप्त हो गया। मुझे पूज्य गुरुदेव ने ही यह नया जीवन दिया है। यह सब सुनकर मेरे विश्वास ने पलटा खाया, और मंै शंकाओं की धूल झाड़कर खड़ा हो गया।
बदली हुई दृष्टि के साथ १९६२ ई. में गायत्री तपोभूमि मथुरा पहुँचा। गर्मियों के दिन थे। सुबह के आठ बजने को थे। पूज्यवर का व्याख्यान शुरू होने वाला था। श्रोताओं की संख्या बहुत नहीं थी। व्याख्यान का विषय था-अपव्यय। गुरुदेव ने कहा-अपव्यय अनेक समस्याओं की जड़ है। जब आदमी फिजूलखर्ची करता है, तो खर्च को पूरा करने के लिए रिश्वत लेता है, बेइमानी करता है, चोरी-ठगी करता है और इन सब के पीछे अनेक कुसंस्कार उसके जीवन में प्रवेश कर जाते हैं। उन्होंने कहा कि अपव्यय एक ओछापन है। इससे मनुष्य का व्यक्तित्व धूमिल हो जाता है। जिन्हें अपने व्यक्तित्व की जरा भी चिंता हो वे ढोंग, दिखावा और अपव्यय से बचें।
प्रवचन क्रम में उनका एक वाक्य था-लोग कमाना तो जानते हैं, पर खर्च करना नहीं जानते। परिणाम यह होता है कि वे जीवन में सुख-शांति के बजाय दुःख और दरिद्रता मोल ले लेते हैं। व्याख्यान समाप्त हो जाने के बाद भी पूज्य गुरुदेव का यह वाक्य मेरे दिमाग पर हथौड़े की तरह चोट करता रहा।
दोपहर को गुरुदेव से व्यक्तिगत भेंट करने चला। रास्ते में फिजूलखर्ची की अपनी हद से ज्यादा बिगड़ी हुई आदत पर ग्लानि से गड़ा जा रहा था। मालदार बाप का बेटा होने के कारण मैं बचपन से ही खर्चीले स्वभाव का था, ऊपर से फैशन-परस्ती का नशा। सुबह एक ड्रेस पहनता था, तो शाम को दूसरी। चार-छह टाइयों से कम में काम नहीं चलता था। शाही जीवन शैली थी। लेकिन अब मुझे लग रहा था कि पिताजी के पैसे पानी की तरह बहाकर मैंने बहुत बड़ा अपराध किया है। झुका हुआ सिर लेकर मैं गुरुदेव के पास पहुँचा। उन्हें प्रणाम किया और बिना कुछ बोले मन ही मन यह संकल्प कर लिया-‘‘अब तक खाई सो खाई। अब की राम दुहाई’’ अब जीवन में कभी अपव्यय नहीं करूँगा।
नीचे उतरते ही एक किताब पढ़ने को मिल गई ‘अपव्यय का ओछापन’। गुरुदेव के प्रवचन ने तो पहले से ही दिमाग में हलचल मचा रखी थी, पुस्तक पढ़ने के बाद मैंने अपव्यय पर अंकुश लगाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ने का निश्चय किया। इस संदर्भ में पत्नी से बात की। मेरी पत्नी भी मेरे विचार से सहमत हुईं और हम मुट्ठी भर साधन में बड़ी प्रसन्नता और संतोष के साथ जीवनयापन करने लगे।
अगर आत्मश्लाघा न कहें तो मैं यह बताता हूँ कि न कोई सिनेमा न कोई होटलबाजी और न कहीं दिखावा। सब छोड़ दिया। धीरे-धीरे हमने अपने जीवन की आवश्यकताएँ इतनी सीमित कर ली थीं, उसे सामान्य दृष्टि से अविश्वसनीय ठहराया जा सकता है। लेकिन इससे हमें जो लाभ हुआ, उसका लेखा-जोखा करना कठिन है। बच्चों के शादी-ब्याह, व्यापार, धन्धा, भोपाल में आलीशान घर ये सब बिना किसी से कोई कर्ज लिए ही बन गया। यह सब अपव्यय न करने का ही परिणाम है। यदि गुरुदेव की वह धारदार प्रेरणा न रही होती, तो सांसारिक दृष्टि से इस सफलता की कल्पना भी नहीं कर सकता था।
डॉ. आर.पी. कर्मयोगी देवसंस्कृति विश्वशिद्यालय, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)
अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
Recent Post
आत्मचिंतन के क्षण
आत्म निरीक्षण और विचार पद्धति का कार्य उसी प्रकार चलाना चाहिए जिस प्रकार साहूकार अपनी आय और व्यय का ठीक-ठीक खाता रखते हैं। हमारी दुर्बलताओं और कुचेष्टाओं का खर्च-खाता भी हो और विवेक सत्याचरण तथा आत...
आत्मचिंतन के क्षण
आत्म-निर्माण के कार्य में सत्संग निःसन्देह सहायक होता है किन्तु आज की परिस्थितियों में इस क्षेत्र में जो विडंबना फैली है, उससे लाभ के स्थान पर हानि अधिक है। सड़े-गले, औंधे-सीधे, रूढ़िवादी, भाग्यवाद...
आत्मचिंतन के क्षण
मनुष्य अपनी वरिष्ठता का कारण अपने वैभव- पुरुषार्थ, बुद्धिबल- धनबल को मानता है, जबकि यह मान्यता नितान्त मिथ्या है। व्यक्तित्व का निर्धारण तो अपना ही स्व- अन्त:करण करता है। निर्णय, निर्धारण यहाँ...
आत्मचिंतन के क्षण
ईश्वर उपासना मानव जीवन की अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता है। आत्मिक स्तर को सुविकसित, सुरक्षित एवं व्यवस्थित रखने के लिए हमारी मनोभूमि में ईश्वर के लिए समुचित स्थान रहना चाहिए और यह तभी संभव है जब उसक...
आत्मचिंतन के क्षण
जो अपनी पैतृक सम्पत्ति को जान लेता है, अपने वंश के गुण, ऐश्वर्य, शक्ति,सामर्थ्य आदि से पूर्ण परिचित हो जाता है, वह उसी उच्च परम्परा के अनुसार कार्य करता है, वैसा ही शुभ व्यवहार करता ...
रचनात्मक आन्दोलनों के प्रति जन-जन में उत्साह जगाए
यह यज्ञभाव को जनजीवन में उतारने का चुनौतीपूर्ण समय है
विगत आश्विन नवरात्र के बाद से अब तक का समय विचार क्रान्ति ...
मनुष्य अनन्त शक्तियों का भाण्डागार है
मनुष्य अनन्त शक्तियों का भाण्डागार है। ये शक्तियाँ ही जीवन के उत्कर्ष का आधार हैं। शारीरिक, मानसिक, आत्मिक क्षमताओं का विकास, सफलता, सिद्धि, सुख और आनन्द की प्राप्ति सब इन्हीं आत्मशक्तियों के जागरण...
आत्मचिंतन के क्षण
जीवन का लक्ष्य खाओ पीओ मौज करो के अतिरिक्त कुछ और ही रहा होगा यदि हमने अपना अवतरण ईश्वर के सहायक सहयोगी के रूप में उसकी सृष्टि को सुन्दर समुन्नत बनाने के लिए हुआ अनुभव किया होता पर किया क्या जाय बु...
आत्मचिंतन के क्षण
एकाँगी उपासना का क्षेत्र विकसित कर अपना अहंकार बढ़ाने वाले व्यक्ति , ईश्वर के सच्चे भक्त नहीं कहे जा सकते। परमात्मा सर्व न्यायकारी है। वह, ऐसे भक्त को जो अपना सुख, अपना ही स्वार्थ सिद्ध करना च...
आत्मचिंतन के क्षण
किसी एक समुदाय के विचार किसी दूसरे समुदाय के विरुद्ध हो सकते हैं। किसी एक वर्ग का आहार -विहार दूसरे वर्ग के विपरीत पड़ सकता है। एक की भावनायें, मान्यतायें आदि दूसरे से टकरा सकती हैं। इसी विविधता, व...