कलियुग के सूर को मिले भगवान
तब मेरी उम्र करीब ७ वर्ष की रही होगी। मेरी आँखों में बहुत दर्द शुरू हुआ, इसी दौरान मेरी आँखों की रोशनी बिल्कुल जाती रही और कुछ ही दिनों में मेरे लिए यह दुनिया पूरी तरह अँधेरी हो गई। बचपन से ही शिक्षा के प्रति मेरा रुझान था। माँ सरस्वती की कृपा से मेरे विद्याध्ययन में रोशनी का अभाव कभी बाधक नहीं बना। शिक्षा प्राप्ति के बाद मैं शासकीय माधव संगीत महाविद्यालय ग्वालियर में लेक्चरर नियुक्त हो गया। वहाँ मैं संगीत की क्लास लेता था। क्लास शाम ५ बजे से ८ बजे तक लगती थी।
अगस्त सन् ७८ की बात है। गर्मी का समय था, पर बारिश के कारण मौसम ठण्डा हो चला था। शाम की ठण्डी- ठण्डी हवा और गुनगुनी धूप से तीसरी मंजिल का वह कमरा काफी आरामदायक लग रहा था। थोड़ी देर में बच्चे आ गए। कक्षा आरंभ हुई। अभी ५ मिनट ही हुए होंगे कि सभी लड़कियाँ एकदम से चुप हो गईं। पूरे क्लास में अचानक सन्नाटा छा जाने पर मैंने पूछा क्या हुआ? चुप क्यों हो गईं? पर किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। मेरे दुबारा पूछने पर उनमें से एक लड़की ने कहा- सर ‘‘उत्तर दिशा की ओर से दो फूल उड़ते हुए चले आ रहे हैं।’’ मैंने सोचा इसमें देखने की क्या बात है? कोई बड़ा सा पेड़ होगा, उसी पेड़ के फूल टूट कर गिर रहे होंगे। मैंने उनसे कहा भी कि हवा चल ही रही है, जिससे फूल गिर कर उड़ रहे होंगे।
मेरी इन बातों का लड़कियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनमें से एक लड़की ने कहा कि नहीं सर वे फूल भागते हुए बम के गोले की तरह से इधर ही चले आ रहे हैं। मैंने सोचा कि मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा है इसलिए ये लड़कियाँ मुझे बेवकूफ बना रही हैं। उनमें से एक गंभीर लड़की ‘कल्पना’ ने कहा- हाँ सर सचमुच फूल आ रहे हैं। इतने में फूल अन्दर आकर मेरी गोद में गिर पड़े। मैंने उन फूलों को उठाकर अपनी जेब में रख लिया। कक्षा समाप्त होने के पश्चात् भोजन किया और बिस्तर पर चला गया। तब तक मैं उन फूलों की बात बिल्कुल भूल चुका था। मैं सोने की कोशिश कर रहा था। अचानक मेरी ऐसी इच्छा हुई कि मैं हरिद्वार जाऊँ और गंगा स्नान कर आऊँ। ये बातें उस समय की है जब मैं गुरु देव एवं मिशन के बारे में कुछ नहीं जानता था। गायत्री मन्त्र का नाम तक नहीं सुना था।
मैंने तीन- चार दिन की छुट्टी ली और हरिद्वार के लिए रवाना हुआ। रात के तीन बज रहे थे। हरिद्वार स्टेशन पहुँच गया। मेरे एक हाथ में अटैची और एक हाथ में डंडा था। मैं डंडे के सहारे स्टेशन के बाहर आया तो एक ऑटो वाला मिला और बोला- भाई साहब शान्तिकुञ्ज चलिए, वहाँ रहने और खाने पीने की व्यवस्था हो जाएगी। मैंने सोचा यह मुझे बेवकूफ बना रहा है। मैंने कहा- मुझे शान्तिकुञ्ज नहीं जाना है। मुझे गंगा स्नान करके ग्वालियर वापस जाना है। मैं जैसे- जैसे मना करता, ऑटो वाला उतना ही पीछे पड़ता गया। अन्ततः मैंने ढाई रुपये किराया तय कर लिया और शान्तिकुञ्ज पहुँच गये। वहाँ पहुँचकर स्नान- भोजन वगैरह करके विश्राम करने लगा। पहले दिन सफर की थकावट थी इसलिए शाम को जल्दी ही सो गया।
रात को ११ बजे मेरी नींद खुल गई, तो उठकर नहा- धोकर रात १२ बजे ही मैं माला लेकर बैठ गया। उस समय मैं शिव भक्त था। शिव जी के मंत्र के अतिरिक्त मुझे दूसरा कोई मंत्र नहीं आता था। लेकिन मैं जब मंत्र जप करने बैठा तो यह क्या! शिव मंत्र की जगह पर मेरे मुँह से ‘ॐ भूः, ॐ भूः, ॐ भूः’ निकलने लगा। सवेरे ६ बजे तक माला जपता रहा पर ग्यारह माला ही कर सका! मैंने सोचा- हे भगवान, यह क्या? छः घण्टे में मैं ११ माला ही कैसे कर पाया; जबकि सैकड़ों माला हो जाना चाहिए। दोपहर को भोजन विश्राम के बाद लोगों ने मुझसे कहा कि चलो गुरुजी के प्रवचन में। उस समय गुरु जी के महत्त्व के बारे में जानता भी नहीं था। सभी लोग जा रहे थे अतः मैं भी चला गया। प्रवचन के दौरान गुरु जी ने टेबल पर अपने हाथ को पटक कर जोर से कहा, ११ माला से क्या होता है, नाश्ता भी नहीं होता। यह बात उन्होंने तीन बार कहीं। मुझे आश्चर्य हो रहा था। कहीं ये शब्द मेरे लिए तो नहीं! लेकिन इन्हें कैसे पता चला! प्रवचन समाप्त होने के बाद भी मैं सोचता रहा। याद आया कोई एक भाई कह रहे थे- गुरु जी महाकाल के अवतार हैं। यहाँ कोई अपनी मर्जी से नहीं आता। जिसे वे बुलाते हैं, वही आता है। मेरे रोम- रोम ने इसकी सच्चाई को स्वीकारा। याद आई वो फूलों वाली घटना, फिर अचानक हरिद्वार आना, स्टेशन पर ऑटो वाले की जिद। मैं अन्तर तक रोमांचित हो उठा।
तीन दिन किस तरह बीत गए, कुछ पता ही नहीं चला। अनमने भाव से मैं वापस भी आ गया। फिर पहले की तरह संगीत की कक्षा लेने लगा। लेकिन सब कुछ पहले जैसा नहीं हुआ। ऐसा लगता जैसे कुछ महत्वपूर्ण चीज छूट गई हो। इसके बाद कई बार शान्तिकुञ्ज आया। गुरु देव और माताजी का स्नेह पाकर मुझे लगता था जैसे जन्म- जन्म के माता पिता मिल गए हों। पर एक प्रश्र हमेशा साथ लगा रहा- गुरु देव ने मुझे प्रयत्नपूर्वक बुलाया तो आखिर क्यों? इसका जवाब सन् १९८४ में मिला।
मैं नौ दिवसीय संजीवनी साधना सत्र करने शान्तिकुञ्ज आया था। इसी दौरान एक दिन मुझे साँप ने काट लिया, मेरा पैर खूब फूल गया, चलना- फिरना मुश्किल हो गया। ऐसा लग रहा था जैसे चारों ओर अँधेरा छाता जा रहा हो। धीरे- धीरे चेतना लुप्त होती चली गई। साथियों से पता- चला कि मेरे बेहोश होने के बाद डॉक्टर ने होश में लाने के लिए इंजेक्शन दिया था। जब पर्याप्त समय बीत जाने के बाद भी होश नहीं आया तो घबराकर लोगों ने गुरु देव को जाकर बताया। साथ में डॉक्टर भी थे। गुरु देव ने डॉक्टरों से कहा- अभी उठ जाएगा। उसे एक इंजेक्शन और लगाओ। और वास्तव में दूसरे इंजेक्शन से मुझे होश आ गया। अब मैं समझा मुझे अपने पास बुलाने का उनका यही उद्देश्य था कि मुझे असमय मृत्यु के हाथ से बचाया जाये और आगे का मेरा जीवन युग निर्माण के कार्य में लग सके। उनकी असीम कृपा को नमस्कार करता हूँ।
देवीदयाल वैश्य ग्वालियर (मध्यप्रदेश)
अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
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