और वह तबादला वरदान बन गया!
सन् १९९६ के आखिर में मेरा तबादला चाइबासा में हो गया। यहाँ आने के लिए मैं मानसिक रूप से बिल्कुल तैयार नहीं था। आरंभ से ही गुरुदेव से और उनके मिशन से इस प्रकार जुड़ा रहा कि विभागीय जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद जो समय बचता था, उसमें मिशन का काम किए बिना मुझे चैन नहीं मिलता था, किन्तु उड़ीसा की सीमा से सटे इस क्षेत्र में मिशन के कार्य कर पाने की संभावना नहीं के बराबर थी। मैं पूज्य गुरुदेव से प्रार्थना करने लगा कि वे मेरा तबादला रुकवा दें, लेकिन उन्होंने मेरी प्रार्थना नहीं सुनी और विभागीय दबाव के कारण अन्ततः मुझे चाइबासा का कार्यभार सँभालना ही पड़ा।
वहाँ का प्रभार सँभालते हुए कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन सुबह- सुबह दो लड़कियाँ मेरे आवास पर पहुँच गयीं। मैं सोचने लगा कि ये कौन हैं और इन्हें दफ्तर जाने के बजाय यहाँ आवास पर आने की क्या जरूरत पड़ गई। पास आकर जब उन दोनों ने अपना परिचय दिया तो मेरा हृदय एक सुखद आश्चर्य से भर उठा। वे दोनों गायत्री परिवार की ही थीं। उनमें से एक थी वन्दना और दूसरी चंचल गुप्ता। मेरे विभाग के ही किसी व्यक्ति के द्वारा उन्हें यह मालूम हो चुका था कि मिशन से मेरी गहरी संबद्धता है। वे इस उम्मीद से मेरे पास आई थीं कि उनके द्वारा जैसे- तैसे चलाए जा रहे मिशन के कार्यक्रमों को विस्तार दिया जा सके।
उन्होंने बताया कि मिशन का नाम जानने वाले यहाँ गिने- चुने लोग ही हैं। वे दोनों अपने स्तर से पूरी तरह प्रयासरत हैं, फिर भी मिशन को मजबूती नहीं मिल पा रही है। इन प्रयासों में अधिकाधिक समय देने के कारण गाहे- बगाहे इन्हें घर- परिवार वालों की डाँट भी सुननी पड़ जाती थी। इन विकट परिस्थितियों में उनके द्वारा किए जाने वाले प्रयासों की मैं मन ही मन सराहना किए बिना न रह सका।
मुझे लगा कि इन दोनों बहिनों के साथ मिलकर इस क्षेत्र में मिशन को मजबूत करने के लिए ही पूज्य गुरुदेव ने मुझे यहाँ भेजा है। तभी उन्होंने तबादला रुकवाने की मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की थी। अब मुझे सबसे पहले नौ कुंडीय यज्ञ के लिए एक स्थान का चयन करना था। इसके लिए शंभुस्थान, शंकर मंदिर मैदान उपलब्ध हो गया। यज्ञ में लोगों को शामिल करने के लिए सघन प्रचार की आवश्यकता थी। इसके लिए जगह- जगह छोटे- छोटे दीप यज्ञों का आयोजन कर लोगों को संदेश दिए जाने लगे। घर- घर सम्पर्क कर विशेष गोष्ठियों का आयोजन किया गया, ताकि स्थानीय लोगों को युग निर्माण योजना के बारे में विस्तार से बताया जा सके।
इधर लोगों के बीच प्रचार के कार्य चल रहे थे, उधर कुण्ड निर्माण से लेकर साधन- सामग्री जुटाने का प्रयास भी किया जा रहा था। यज्ञ की तैयारियों में शुरू से अन्त तक कहीं कोई अड़चन नहीं आई। चारों ओर से सहयोग की बारिश होने लगी। भोजन प्रसाद की व्यवस्था श्री रूँगटा ने की। दीप यज्ञ और हवन के लिए घर- घर से आमंत्रण आने लगे। विभिन्न व्यावसायिक ग्रुपों ने भी सहयोग का हाथ बढ़ाना शुरू कर दिया। मारवाड़ियों के एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान- कोल ग्रुप द्वारा दीप यज्ञ का आयोजन किया गया। अन्ततः यज्ञ इतने भव्य रूप में सम्पन्न हुआ जिसकी कल्पना भी नहीं की गई थी।
इस यज्ञ के दौरान ही शक्तिपीठ की स्थापना की बात रखी गई। रायपुर के एक मारवाड़ी सज्जन ने शक्तिपीठ के लिए स्थान की पेशकश की। तीन कट्टे के अहाते में बना हुआ तीन कमरे का मकान, चौड़ा बरामदा, अहाते के अन्दर ही चाँपाकल। स्थान के उपलब्ध हो जाने से शक्तिपीठ के निर्माण का कार्य द्रुतगति से चल पड़ा।
१८ जनवरी १९९७ को भूमि पूजन हुआ। एस.पी. रामजी साहब ने शक्तिपीठ के निर्माण के लिए विधिपूर्वक भूमि पूजन किया। यह भूमि दरअसल एक बहुत बड़े भू- खंड का हिस्सा थी। उस पर काफी दिनों से कोर्ट में केस चल रहा था, जिसमें पूर्वोक्त मारवाड़ी सज्जन को कुछ इस तरह लपेटा गया था कि भूमि पर उनका अधिकार साबित होने की कम ही गुंजाइश थी। प्रतिपक्ष की जोड़तोड़ के कारण स्थिति कुछ ऐसी बन गई थी कि उनको जेल भी जाना पड़ सकता था। ऊपर से स्थानीय भू- माफियाओं द्वारा उन्हें जान से मारने की धमकी भी दी जा रही थी, जो उस भूमि पर कब्जा करना चाहते थे।
शक्तिपीठ के लिए इस भूमि को दान में देने की मौखिक पेशकश करते ही परिस्थिति कुछ इस प्रकार पलटती चली गई कि सारे विरोधियों के सब प्रयास धरे के धरे रह गए। केस की दिशा ही बदल गई और निष्पत्ति मारवाड़ी सेठ के पक्ष में रही। मारवाड़ी सेठ की वर्षों से चली आ रही इस समस्या के बारे में एस.पी. साहब ने मुझे तब बताया जब इस विवाद का निपटारा न्यायालय द्वारा पूरा हो गया। जब स्थानीय लोगों को इस बात की जानकारी मिली तो सभी एक स्वर से कहने लगे कि ऐसे जटिल मुकदमें का फैसला मारवाड़ी सेठ के पक्ष में होना उनके द्वारा शक्तिपीठ के लिए भूमिदान का ही परिणाम है। खुद एस.पी. साहब भी इस निर्णय को लेकर आश्चर्यचकित थे।
पूरे क्षेत्र में चर्चित इस मुकद्दमें में मारवाड़ी सेठ की जीत से चारों ओर गायत्री माता और गुरुदेव की शक्ति की चर्चाएँ होने लगीं। इन चर्चाओं को तब और बल मिला जब अनायास ही वन्दना के लिए रिश्ता मिल गया और उसकी शादी हो गई। एक पैर से लाचार होने के कारण उसके लिए रिश्ता मिलना मुश्किल हो रहा था। यही कारण था कि 25- 26 वर्ष की हो जाने के बाद भी उसकी शादी तय नहीं हो सकी थी। शादी को लेकर उसके माता- पिता के लिए भी यह एक सुखद आश्चर्य की घड़ी थी।
इतना सब कुछ घटित होने के बाद यह बात मेरी समझ में आ गई कि चाईबासा के तबादले की व्यवस्था पूज्य गुरुदेव ने मुझे पुरस्कृत करने के लिए ही बनाई थी। तबादले के समय मैं यह सोचकर मरा जा रहा था कि वहाँ मिशन के काम मुझे अधूरे छोड़ने पड़ेंगे ,, लेकिन यहाँ आकर जब शक्तिपीठ की स्थापना जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य मुझ अकिंचन के द्वारा पूरा हुआ तो मेरा रोम- रोम गुरुसत्ता की असीम अनुकम्पा के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने लगा।
के.पी. पाण्डेय आई ए एस पटना (बिहार)
अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
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