आत्मचिंतन के क्षण
उत्तम साधक वही है जो दरिद्रता के साथ रहने को कहा जाय तो दरिद्रता के साथ रहे, किसी भी अभाव की वेदना उसे न हो और उसकी दैवी स्थिति के पूर्ण आन्तरिक आनन्द की क्रीड़ा में उससे कुछ भी बाधा न पड़े और वही फिर, वैभव के साथ रहने को कहा जाय तो वैभव के साथ रहे और अपने धन की आसक्ति या वासना में एक क्षण के लिये भी पतित न हो, या उन चीजों से भी आसक्त न हो जिनका वह उपयोग करता है, या उस भोग की दासता में न हो या धन की अधिकारिता द्वारा निर्मित अभ्यासों से दुर्बल की तरह आसक्त न हो।
पवित्र और ईमानदार मनुष्य, अपने आप जिसको न्याय मान लिया, उसके लिये, हमेशा अपने भोग देने को तैयार रहता है। क्या तुम तैयार हो? अपना आराम, अपना आनन्द, अपना व्यापार, अपना जीवन तक, न्याय प्राप्त करने को दे देने के लिये तुम तैयार हो? जो ऐसे हो तो तुम सत्याग्रही हो और तुम जीतोगे ही।
सत्संग मनुष्यों का हो सकता है और पुस्तकों का भी। श्रेष्ठ मनुष्यों के साथ उठना-बैठना, बातचीत करना आदि और उत्तम पुस्तकों का अध्ययन सत्संग कहलाता है। मनुष्यों के सत्संग से भी संभव है। अन्तर इतना है कि संतजनो के सत्संग का प्रभाव सजीवता के कारण शीघ्र पड़ता है।
इस संसार मे उन्नति करने उत्थान के जितने भी साधन है " सत्संग उन सब में अधिक फलदायक और सुविधाजनक है। सत्संग का जितना गुण-गान किया जाय थोडा है। पारुस लोहे को सोना बना देता है। रामचन्द्र जी के सत्संग से रीछ वानर भी पवित्र हो गये थे। कृष्ण जी के संग रहने से गाँव के गँवार समझे जाने वाले गोप-गोपियाँ भक्त शिरोमणि बन गये।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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