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आत्मचिंतन के क्षण
किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो।
हे सखे, तुम क्यों रो रहे हो? सब शक्ति तो तुम्हीं में हैं। हे भगवन्, अपना ऐश्वर्यमय स्वरूप को विकसित करो। ये तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं। जड की कोई शक्ति नहीं प्रबल शक्ति आत्मा की हैं। हे विद्वन! डरो मत्; तुम्हारा नाश नहीं हैं, संसार-सागर से पार उतरने का उपाय हैं। जिस पथ के अवलम्बन से यती लोग संसार-सागर के पार उतरे हैं, वही श्रेष्ठ पथ मै तुम्हे दिखाता हूँ!
लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, ...
आत्मचिंतन के क्षण
तुम्हीं हमारे इहकाल हो और तुम्हीं परकाल हो, तुम्हीं परित्राण हो और तुम्हीं स्वर्गधाम हो, शास्त्रविधि और कल्पतरू गुरु भी तुम्हीं हो; तुम्हीं हमारे अनन्त सुख के आधार हो। हमारे उपाय, हमारे उद्देश्य तुम्ही हो, तुम्हीं स्त्राष्टा, पालनकर्ता और उपास्य हो, दण्डदाता पिता, स्नेहमयी माता और भवार्णव के कर्णधार भी तुम्हीं हो।"
जो यथार्थ त्यागी हैं वे सर्वदा ईश्वर पर मन रख सकते हैं; वे मधुमक्खी की तरह केवल फूल पर बैठते है; मधु ही पीते हैं। जो लोग संसार में कामिनी-कांचन के भीतर है उनका मन ईश्वर में लगता तो है, पर कभी कभी कामिनी-कांचन पर भी चला जाता है; जैसे साधारण मक्खियाँ बर्फि पर भी बैठती हैं और सडे़ घाव पर भी बैठती हैं, विष्ठा पर भी बैठती हैं।
ईश्वर की बात कोई कहता है,...
आत्मचिंतन के क्षण
सेवक कभी अपने मन में ऐसा भाव नहीं लाता कि वह सेवक है। वह अपने स्वामी अथवा सेव्य का आभार मानता है कि उन्होंने अपार कृपा करके उसे सेवा का अवसर प्रदान कि या अर्थात् वह सेवा नहीं कर रहा, अपितु उसके स्वमी उससे सेवा ग्रहण कर रहे हैं। वह उसे जब जिस सेवा के योग्य समझते हैं अथवा जब जैसी इच्छा होती है, वह सेवा ग्रहण करते हैं।
पाठको! जिस प्रकार आपको प्रशंसा प्रिय है, वैसे ही दूसरों को भी। आप दूसरों से सहयोग और सहानुभूति चाहते हैं, वैसे ही आपके मित्र- बन्धु पड़ौसी भी आपसे ऐसी ही अपेक्षा रखते हैं। दूसरों की इच्छा के लिए यदि अपनी अभिरुचि का दमन कर देते हैं ,तो प्रत्याशी पर आपकी इस सद्भावना का असर जरूर पड़ेगा। आत्मीयता, उदारता, साहस् नैतिकता, श्रमशीलता जैसे सदाचारों में से कोई न कोई सम्पत्ति ...
आत्मचिंतन के क्षण
जहाँ मन और आत्मा का एकीकरण होता है, जहाँ जीव का इच्छा रुचि एवं कार्य प्रणाली विश्वात्मा की इच्छा रुचि प्रणाली के अनुसार होती है, वहाँ अपार आनन्द का स्त्रोत उमडता रहता है, पर जहाँ दोनों में विरोध होता है, जहाँ नाना प्रकार के अन्तर्द्वन्द चलते रहते हैं, वहाँ आत्मिक शान्ति के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं ।
मन और अन्त:करण के मेल अथवा एकता से ही आनन्द प्राप्त हो सकता है । इस मेल अथवा एकता को एवं उसकी कार्य-पद्धति को योग-साधना प्रत्येक उच्च प्रवृत्तियों वाले साधक के जीवन का नित्य कर्म होना चाहिए । भारतीय संस्कृति के अनुसार सच्ची सुख-शान्ति का आधार योग-साधना ही है । योग द्वारा सांसारिक संघर्षों से व्यथित मनुष्य अन्तर्मुखी होकर आत्मा के निकट बैठता है, तो उसे अमित शान्ति का अन...
आत्मचिंतन के क्षण
कठिनाइयाँ एक ऐसी खराद की तरह है, जो मनुष्य के व्यक्तित्व को तराश कर चमका दिया करती है। कठिनाइयों से लड़ने और उन पर विजय प्राप्त करने से मनुष्य में जिस आत्म बल का विकास होता है, वह एक अमूल्य सम्पत्ति होती है ,जिसको पाकर मनुष्य को अपार सन्तोष होता है। कठिनाइयों से संघर्ष पाकर जीवन मे ऐसी तेजी उत्पन्न हो जाती है, जो पथ के समस्त झाड़- झंखाड़ों को काट कर दूर कर देती है।
अनन्य भाव से परमात्मा की उपासना शरणागति का मुख्य आधार है। ईश्वर के समीप बैठने से वैसे ही दिव्यता उपासक को भी प्राप्त होती है साथ ही उसके पाप- सन्ताप गलकर नष्ट होने लगते हैं। नित्य- निरन्तर यह अभ्यास चलाने से ही जीवन में वह शुद्धता आ पाती है, जो पूर्ण शरणागति के लिये आवश्यक होती है।
संगठन, सामूहिकता, एकता,...
आत्मचिंतन के क्षण
बुद्धि जीवन यापन के लिए साधन एकत्रित कर सकती है,गुत्थियों को सुलझा सकती है, किन्तु जीवन की उच्चतम भूमिका में नहीं पहुँचा सकती। चेतना की उच्चस्तरीय परतों तक पहुँच सकता, तो हृदय की महानता द्वारा ही सम्भव है। बुद्धि प्रधान किन्तु हृदय शून्य व्यक्ति भौतिक जीवन में कितना भी सफल क्यों न हो, किन्तु भव- सागर की चेतन परतों तक पहुँच सकने में वह असमर्थ होता है।
मनुष्य जहाँ महापुरुषों को देखता है, वहाँ उसे अपने बड़े होने का ज्ञान आ जाता है और जितना ही सच्चा इस महानता का दर्शन होता है, उतना ही निश्चित उसका महान् बन जाना होता है। महान् मन वाले लोग विचारों पर विवाद करते है, मध्यम मन वाले वस्तुओं पर तथा शुद्ध मन वाले व्यक्तियों पर बहस करते हैं।
समय ही जीवन की परिभाषा ...
आत्मचिंतन के क्षण
संसार में बहुत से प्राणी हैं। बड़े विचित्र विचित्र प्राणी हैं, मछलियां, चमगादड़, गिरगिट इत्यादि। इनमें से जो गिरगिट है, परमात्मा ने उसको ऐसी शक्ति और कला दी है, कि जब उसे कहीं पर अपनी जान का खतरा दिखता है, तो वह अपने आसपास की रंगीली वस्तुओं के समान ही, अपने रंग भी बना लेता है। अर्थात खतरे की स्थिति में वह रंग बदलता है। जो परमात्मा ने उसको एक अच्छी कला दी है। इसका वह अपनी रक्षा के लिए उपयोग करता है।
परंतु एक छली कपटी बेईमान धूर्त मनुष्य तो अपनी रक्षा के लिए रंग नहीं बदलता। वह तो जब भी अवसर लगे, लूट झपट चालाकी धोखाधड़ी बेईमानी ठगी कुछ भी करना हो, दूसरे को कमजोर, मजबूर या अज्ञानी देखकर तुरंत रंग बदलता है। वह अपने स्वार्थ एवं मूर्खता के कारण रंग बदलता है, अपनी रक्षा के लिए ...
आत्मचिंतन के क्षण
अपने माता-पिता गुरुजनों आदि के साथ मीठी भाषा बोलें, सभ्यता पूर्ण व्यवहार करें।
प्रायः लोग अपने आपको बहुत पठित एवं सभ्य व्यक्ति मानते हैं। परंतु जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती जाती है, उनमें सामर्थ्य बुद्धि बल विद्या शक्ति सत्ता अधिकार बढ़ता जाता है, वैसे वैसे यह देखने को मिलता है, कि उनमें इन सब चीजो का अभिमान भी बढ़ता जाता है। और बढ़ते बढ़ते यह अभिमान इतना बढ़ जाता है कि लोग सभ्यता से बोलना ही भूल जाते हैं। वे यह भी भूल जाते हैं कि हमारी इस संपूर्ण उन्नति का मुख्य आधार, हमारे माता पिता और गुरुजन हैं।
यह कोई सभ्यता नहीं है। जिन माता पिता आदि बड़े बुजुर्गों ने इतना तप करके आपको योग्य बनाया, सभी क्षेत्रों में आप की उन्नति करवाई, जिन के आर्थिक सामाजिक मार्गदर्शन विद्या आदि आद...
आत्मचिंतन के क्षण
चाहे व्यक्तिगत समृद्धि की बात हो, चाहे समूहगत सम्पन्नता का विषय हो, उपाय एक ही है, लोगों का वर्तमान दृष्टिकोण बदला जाय। मन को प्रफु ल्लित करने के लिए इस सृष्टि में इतना विस्तृत आधार मौजूद है कि हर घड़ी हर्षाेल्लास भरी अनुभूति का आस्वादन करते हुए प्रमुदित- पुलकित रहा जा सके। मन को सुविकसित- संस्कारित बनाने के लिए परिवार में अच्छे विचारण न मिलें, तो भूखी आत्मा वाले ऊँची बात सोच न सकते।
हमारा व्यक्तित्त्व और राष्ट्रीय भविष्य इस बात पर निर्भर है कि भावी पीढ़ियाँ सुसंस्कृत हों। स्कूली शिक्षा से आजीविका उपार्जन करने तथा विविध क्षेत्रों की साधारण जानकारी मिलने की बात पूरी हो सकती है, पर वे सद्गुण जो मानव की प्रधान सम्पत्ति है और जिनके ऊपर व्यक्ति तथा राष्ट्र की श्रेष्ठता निर्भर करती ह...
आत्मचिंतन के क्षण
साधु-ब्राह्मणों का यह एक परम पवित्र कर्त्तव्य है कि इस समय जिस धर्म के आश्रय में वे अपनी आजीविका चलाते हैं और पूजा-सम्मान प्राप्त करते हैं उस धर्म रक्षा के लिए उन्हें कुछ काम भी करना चाहिए-कष्ट भी उठाना चाहिए। आज जबकि धर्म संकट में है, देश की सुरक्षा एवं प्रगति का प्रश्र है तब तो उन्हें उन आदर्शों को परिपुष्ट करने के लिए अपना समय लगाना ही चाहिए। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी दक्षिणा बटोरने और पैर पुजाने का ही धंधा करते रहे, कर्त्तव्य की तिलांजलि दिये बैठे रहे तो आगामी पीढ़ियँ उन्हें क्षमा न करेंगी।
आज दहेज का असुर भाषण-लेखों और प्रस्तावों की मार खाकर भी दहेज का असुर मरता नहीं। रक्तबीज की तरह वह चोट खाकर और भी अधिक विकराल बनता चला जा रहा है। इसका अंत ऐसे होगा क...