आत्मचिंतन के क्षण
ऐसा विचार मत करो कि उसका भाग्य उसे जहाँ-तहाँ भटका रहा है और इस रहस्यमय भाग्य के सामने उसका क्या बस चल सकता है। उसको मन से निकाल देने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी तरह के भाग्य से मनुष्य बड़ा है और बाहर की किसी भी शक्ति की अपेक्षा प्रचण्ड शक्ति उसके भीतर मौजूद है, इस बात को जब तक वह नहीं समझ लेगा, तब तक उसका कदापि कल्याण नहीं हो सकता।
ऐसा कोई नियम नहीं है कि आप सफलता की आशा रखे बिना, अभिलाषा किये बिना, उसके लिए दृढ़ प्रयत्न किये बिना ही सफलता प्राप्त कर सकें । प्रत्येक ऊँची सफलता के लिए पहले मजबूत, दृढ़, आत्म-श्रद्धा का होना अनिवार्य है। इसके बिना सफलता कभी मिल नहीं सकती। भगवान् के इस नियमबद्ध और श्रेष्ठ व्यवस्थायुक्त जगत् में भाग्यवाद के लिए कोई स्थान नहीं है।
जिसने अनीति के मार्ग पर चलकर धन कमाया, उनकी वह कमाई चोरी, बीमारी, विलासिता, मुकदमा, नशा, रिश्वत, व्यभिचार आदि बुरे मार्गों में खर्च होती देखी गई है। जैसे आई थी, वैसे ही चली जाती है। पश्चाताप, पाप और निन्दा का ऐसा उपहार अंततः वह छोड़ जाती है, जिसे देखकर वह कुमार्गगामी अपनी नासमझी पर दुःख ही अनुभव करता रहता है।
परस्पर प्रोत्साहन न देना हमारे व्यक्तिगत सामाजिक जीवन की एक बहुत बड़ी कमजोरी है। किसी को प्रोत्साहन भरे दो शब्द कहने के बजाय लोग उसे खरी-खोटी असफलता की बातें कर निरुत्साहित करते हैं, हिम्मत तोड़ते हैं, जिससे दूसरों को निराशा, असंभावनाओं का निर्देश मिलता है और हमारे सामाजिक विकास में गतिरोध पैदा हो जाता है।
दूसरों को सुधारने से पहले हमें अपने सुधार की बात सोचनी चाहिए। दूसरों की दुर्बलता के प्रति एकदम आगबबूला हो उठने से पहले हमें यह भी देखना उचित है कि अपने भीतर कितने दोष-दुर्गुण भरे पड़े हैं। बुराइयों को दूर करना एक प्रशंसनीय प्रवृत्ति है। अच्छे काम का प्रयोग अपने से ही आरंभ करना चाहिए। हम सुधरें-हमारा दृष्टिकोण सुधरे तो दूसरों का सुधार होना कुछ भी कठिन नहीं।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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