नवरात्र में श्रद्धेय डॉ. प्रणव पण्ड्या जी के संग नित्य सत्संग (कुछ उद्गार)
भक्ति का स्वरूप :
साधकों को माता शबरी की तरह गुरूभक्ति में एकनिष्ठ होकर साधना करनी चाहिए। शबरी की श्रद्धा, निष्ठा के पुण्य से ही उन्हें प्रभु श्रीराम के दर्शन हुए, उन्हें स्वयं भगवान से नवधा भक्ति का उपदेश मिला। भक्ति के इन नौ सोपानों में से एक भी गुण यदि साधक अपना लें तो जीवन धन्य हो जाए।
सद्गुरू के प्रति निष्ठा : गुरू की आज्ञा का पालन सब कार्यों में सफलता की जननी है। संसार रूपी भवसागर से पार करने के लिए सद्गुरू ही एकमात्र आधार हैं।
गायत्री साधना : गायत्री साधना से साधक में पात्रता विकसित होती है। गायत्री उपासना जाति, कुल, धर्म, धन, बल आदि के भाव से परे एकनिष्ठ भाव से की जानी चाहिए। गायत्री साधना से साधक में एक विशेष प्रकार का आभामंडल बनता है, जो उसके जीवन को निर्मल और पवित्र बनाता है।
सात्विक साधना से साधक में भगवद्प्राप्ति की भूख जागती है। अंत:करण पवित्र होता है। साधक का मोह नष्ट होता है। साधना से प्राप्त शक्ति एवं भगवत्कृपा से साधक बड़े से बड़ा कार्य सहजता के साथ सम्पन्न कर लेता है।
स्तुति-प्रार्थना : साधना काल में भगवत सत्ता की स्तुति भी करनी चाहिए। यह प्रभु से नाता जोड़ने का सशक्त माध्यम है। स्तुति और प्रार्थना से मन में
पवित्र भाव का जागरण होता है।
सत्संग : साधनाकाल में संतों के सत्संग का विशेष महत्त्व है। सत्संग से भक्ति का जागरण होता है। सच्चे संतों का सत्संग पारस के समान है। वे स्वयं कष्ट सहकर दूसरों की समस्याओं को दूर करने का प्रयत्न करते हैं। गायत्री महामंत्र के जप से सद्बुद्धि आती है और सत्संग से सत्कर्म करने की प्रेरणा जाग्रत् होती है।