झरने का आत्म परिचय
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(1)
झुकी करुणा का सबल, सजल-संचय हूँ, पत्थर का पिघला हुआ कठोर हृदय हूँ।
तुम पूछ रहे हो पथिक, आज बतलाऊँ, मैं निर्झर, अपना एक स्वयं परिचय हूँ॥
शत-सहस्र तूफान लिए आया मैं, फिर भी लहरों में गान लिए आया मैं।
भिशप्त विश्व के, ऊसर करुणा कर, उर्वरता का वरदान लिए आया मैं॥
(2)
यह तोड़-फोड़ दृढ़ पाषाणों की कारा, भरती झर-झर मेरी निर्मल जल-धारा।
करने जो गति-अवरोध सामने आया-पाया कब उसने त्राण, प्राण तक हारा॥
सीखा मुझसे कलियों ने नित मुस्काना, नभ ने धरती पर करुणा-जल बरसाना।
सीखा नन्दन-कानन की कल कोकिल ने, मेरी लहरों की ध्वनि से मंजुल-गाना॥
(3)
न कभी रुकना जीवन में सीखा, मैंने न कभी झुकना जीवन में सीखा।
अन्तर में सरस-स्रोत-लहरी जो, इसने न कभी चुकना जीवन में सीखा।
बात सभी निश्चल सहता जाता हूँ, अपनी प्राण-गाथा कहता जाता हूँ।
सिन्धु-मिलन की चाह अमिट अन्तर में, उठ-उठकर गिर-गिरकर बहता जाता हूँ॥
(4)
हो मधु-प्रभात या सघन-रात बेला, पथ हो निर्जन या लगा हुआ हो मेला।
यह देख सकूँ, इतना अवकाश कहाँ है? चलता ही जाता हूँ, अविराम अकेला॥
मेरा आकुल आह्वान सुने मत कोई, मेरे उरके अरमान सुने मत कोई।
परवाह नहीं, मुझको बढ़ते जाना है, मेरे जीवन के गाने सुने मत कोई॥
(5)
वन-उपवन पार किये हैं मैंने, निर्मित सुख संसार किये हैं मैंने।
कृतज्ञ जग, अंगीकार करेगा, उसके अगणित उपकार किये हैं मैंने॥
बढ़ना होता जिनको न सहन है, उनके दुःख पर भी मुझको संवेदन है।
अक्सान किन्तु क्यों होगा, जब शक्ति में, प्राणों में स्पन्दन है॥
बढ़ना होता जिनको न सहन है, उनके दुःख पर भी मुझको संवेदन है।
अक्सान किन्तु क्यों होगा, जब शक्ति में, प्राणों में स्पन्दन है॥
*समाप्त*

