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मित्रों, सारी की सारी ज़िंदगी की मूलभूत समस्याएँ हमारे भीतर से उत्पन्न होती हैं और भीतर ही होकर के समाधान होती हैं। हमारे मुँह से आवाज़ निकलती है और वह ब्रह्मांड में घूम कर के चक्कर काट के हमारे पास आ जाती है। खत्म कब होगी आवाज़? हमारे पास टक्कर खाकर आती होगी। हमारे भीतर से संवेदनाएँ निकलती हैं और वस्तुओं से टक्कर मार कर के उनकी प्रतिक्रियाएँ, उनके रिफ्लेक्शन लौट के हमारे पास आ जाते हैं।
कैसी है साहब दुनिया? बड़ी बुरी है? हाँ साहब, बड़ी बुरी है, क्योंकि हमारा चिंतन बड़ा बुरा था। चक्कर काट कर के आ गया और यह खबर लेकर के आया कि दुनिया बड़ी बुरी है। और हमने यह विचार किया कि दुनिया की रग-रग में और नस-नस में भगवान भरा हुआ पड़ा है। हमारे विचार से प्रत्येक चीज के पास में जवाब तलब करते रहे और पूछते रहे — "कहिए साहब, आप में भगवान है कि नहीं?" "हाँ साहब, भगवान है हमारे भीतर।" हर चीज़ ने जवाब दिया और लौट कर वो यह खबर लेकर के आए — यह सब हमें पता चला कि हर चीज़ में भगवान है।
बेटे, यह भगवान का सलीका है। बेटे, हमको कुछ नहीं पता। हमारे विचार घूम कर के आ जाते हैं। यह Science of Soul है। यह इतनी बड़ी Soul है, इतनी बड़ी Science है — मैं नहीं समझता कि इससे भी बड़ी कोई साइंस होगी।
पदार्थ की साइंस बड़ी है — मैं कब कहता हूँ कि इसकी कोई क़ीमत नहीं है? मैंने किससे कहा कि केमिस्ट्री का कोई मतलब नहीं होता? यह सब चीज़ें अपनी जगह पर ठीक हैं, मुबारक हैं और ताक़तवर हैं।
लेकिन एक ऐसी साइंस है — एक ऐसी साइंस है जो हमारे स्वयं के संबंध में है। स्वयं के संबंध की साइंस अगर समझ में आ जाए तो मज़ा आ जाए ज़िंदगी में। और जो चीज़ें हैं दबी हुई हमारे भीतर, समझ में न आ सकीं — हमारे भीतर — वह उछल कर के और उभर कर के बाहर आ जाएँ।
अगर हमारे भीतर की चीज़ें हैं, उछल के और उभर के बाहर आ सकें — तो मज़ा आ जाए।
अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य के नाम संदेश देते हुए गुरु देव ने कहा-प्रत्येक परिजन को पेट और प्रजनन की पशु प्रक्रिया से ऊँचे उठकर उन्हें दिव्य जीवन की भूमिका सम्पादित करने के लिये कुछ सक्रिय कदम बढ़ाने चाहिएं। मात्र सोचते विचारते रहा जाय और कुछ किया न जाय तो काम न चलेगा। हममें से प्रत्येक को अधिक ऊँचा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और कर्तव्य में ऐसा हेर-फेर करना चाहिए जिसके आधार में परमार्थ प्रयोजनों को अधिकाधिक स्थान मिल सके। उपलब्ध विभूतियों और सम्पदाओं को अपने शरीर और अपने परिवार के लिए सीमित नहीं कर लेना चाहिए वरन् उनका एक महत्व पूर्ण अंश लोक मंगल के लिये नियोजित करना चाहिए।
हर एक को यह समझ लेना चाहिए कि दृष्टिकोण के परिष्कार गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता और परमार्थ प्रयोजनों में तत्परता अपनाये बिना कभी किसी की आत्मिक प्रगति सम्भव नहीं। ईश्वर उपासना और साधनात्मक गति विधियाँ अपनाने का प्रभाव परिणाम भी इन्हीं सत्प्रवृत्तियों का विकास होना चाहिए अन्यथा वह जप भजन भी एक चिह्न पूजा बनकर रह जायगा और उससे कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा।
उपासना एवं जीवन साधना का श्रेष्ठ किन्तु सरल रूप क्या हो सकता है इसकी चर्चा पिछले पृष्ठों पर हो चुकी है। उस दिशा में एक-एक कदम हर किसी को उठाना चाहिये और ‘इन दोनों गति विधियों को अपने जीवन क्रम में अविच्छिन्न रूप से सम्मिलित कर लेना चाहिए।
गुरु देव ने कहा-प्रत्येक जागृत आत्मा को क्रमबद्ध रूप से इस संगठन सूत्र में आबद्ध हो जाना चाहिए। युग-निर्माण परिवार की नियमित सदस्यता स्वीकार कर लेनी चाहिए और भावनात्मक नव निर्माण के लिए एक घण्टा समय और दस पैसा (उस समय के हिसाब से, आज के समय में एक रुपया) जैसे प्रतीकात्मक अनुदान को नियमित रूप से बिना किसी ढील-पोल के आरम्भ कर देना चाहिए। इस क्रम में व्यतिरेक न आने पाये इसलिए ‘ज्ञान घट’ की स्थापना आवश्यक है। उस बन्धन के सहारे नियमितता टूटने नहीं पायेगी और परिवार की सदस्यता के साथ आत्मिक प्रगति का क्रम यथावत् चलता रहेगा।
.... क्रमशः जारी
माता भगवती देवी शर्मा
अखण्ड ज्योति, मई 1972 पृष्ठ 43
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जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय:—
भगवान की अनुकंपा ही कह सकते हैं, जो अनायास ही हमारे ऊपर पंद्रह वर्ष की उम्र में बरसी और वैसा ही सुयोग बनता चला गया, जो हमारे लिए विधि द्वारा पूर्व से ही नियोजित था। हमारे बचपन में सोचे गए संकल्प को प्रयास के रूप में परिणत होने का सुयोग मिल गया।
पंद्रह वर्ष की आयु थी। प्रातः की उपासना चल रही थी। वसंत पर्व का दिन था। उस दिन ब्रह्ममुहूर्त्त में कोठरी में ही सामने प्रकाश-पुंज के दर्शन हुए। आँखें मलकर देखा कि कहीं कोई भ्रम तो नहीं है। प्रकाश प्रत्यक्ष था। सोचा, कोई भूत-प्रेत या देव-दानव का विग्रह तो नहीं है। ध्यान से देखने पर भी वैसा कुछ लगा नहीं। विस्मय भी हो रहा था और डर भी लग रहा था। स्तब्ध था।
प्रकाश के मध्य में से एक योगी का सूक्ष्मशरीर उभरा। सूक्ष्म इसलिए कि छवि तो दीख पड़ी, पर वह प्रकाश-पुंज के मध्य अधर में लटकी हुई थी। यह कौन है? आश्चर्य!
उस छवि ने बोलना आरंभ किया व कहा— ‘‘हम तुम्हारे साथ तीन जन्मों से जुड़े हैं। मार्गदर्शन करते आ रहे हैं। अब तुम्हारा बचपन छूटते ही आवश्यक मार्गदर्शन करने आए हैं। संभवतः तुम्हें पूर्वजन्मों की स्मृति नहीं है, इसी से भय और आश्चर्य हो रहा है। पिछले जन्मों का विवरण देखो और अपना संदेह निवारण करो।’’ उनकी अनुकंपा हुई और योगनिद्रा जैसी झपकी आने लगी। बैठा रहा, पर स्थिति ऐसी हो गई, मानो मैं निद्राग्रस्त हूँ। तंद्रा सी आने लगी।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

आत्म-मैत्री का भाव स्थापित करने के लिये मनुष्य को पुनः शिक्षा की आवश्यकता होती है। पहले तो अपनी महानता का भाव छोड़ना पड़ता है। समाज में बड़े कहे जाने की इच्छा सरलता से नष्ट नहीं होती। बहुत से व्यक्ति बड़े ही विनीत और नम्र बनते हैं। वे अपने आपको सब की पदधूल कहते हैं। ऐसे व्यक्ति बड़े अभिमानी होते हैं और उनका नम्र बनने का दिखावा ढोंग मात्र होता है। दूसरे को इस प्रकार अपने वश में किया जाता है और उसके ऊपर अपना प्रभुत्व स्थापित किया जाता है। सच्चे मन से महत्वाकाँक्षा का त्याग वही करता है जो सब प्रकार की असाधारणता अपने जीवन से निकाल डालता है।
जो व्यक्ति अपने आपको सामान्य व्यक्ति मानने लगता है वह नैतिकता में नीचे दिखाई देने वाले व्यक्तियों के प्रति सहानुभूति का भाव रखता है। वह उनकी भूलों को क्षम्य समझता है। वह जब बाहरी जगत् में प्रकाशित अनेक भावों को क्षम्य मानने लगता है तो वह अपने दलित भावों को भी उदार दृष्टि से देखने लगता है। दूसरों के दोषों से घृणा का भाव हट जाने से अपने दोषों से भी घृणा का भाव हट जाता है। फिर उसके मन के भीतर के दलित भाव चेतना के समक्ष आने लगते हैं, और जैसे-जैसे उसका बाहरी जगत से साम्य स्थापित होता जाता है, उसके आन्तरिक मन से भी साम्य स्थापित हो जाता है। वह अपने भीतरी मन से मित्रता स्थापित करने में समर्थ होता है।
आंतरिक समता अथवा एकत्व और बाह्य समता एक दूसरे के सापेक्ष हैं, मनुष्य अपने आपको सुधार कर अपना समाज से सम्बन्ध सुधार सकता है और समाज से सम्बन्ध सुधारने से अपने आप से सम्बन्ध सुधार सकता है। वास्तव में वाह्य और आन्तरिक जगत एक ही पदार्थ के दो रूप हैं। मन और संसार एक दूसरे के सापेक्ष हैं। जैसा मनुष्य का मन होता है उसका संसार भी वैसा ही होता है।
हमारी नादानी ही हमें अपना तथा संसार का शत्रु बनाती है और विचार की कुशलता दोनों प्रकार की कहानियों का अन्त कर देती है।
अखण्ड ज्योति फरवरी 1956 पृष्ठ 12
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

ब्रह्मविद्या किसे कहते हैं? ब्रह्मविद्या, बेटे, कहते हैं साइंस ऑफ सोल — यानी जीवात्मा की साइंस। हमारी आंखें बाहर की ओर देखती हैं। भगवान ने हमारे साथ क्या मखौल किया है, क्या दिल्लगी की है! सुराख तो दे दिए, लेकिन सभी इंद्रियाँ बाहर की ओर लगी हुई हैं। आंखें तो हमारी हैं, बहुत अच्छी हैं, लेकिन ये सिर्फ बाहर देखती हैं। भीतर क्या चल रहा है, इसका कुछ पता नहीं चलता। पेट में क्या है, कीड़े तो नहीं बैठे हैं — हमको क्या मालूम? डॉक्टर को बुलाना पड़ता है। क्यों? आपकी आंखें तो हैं! बाहर मक्खी देख सकते हैं, चींटी देख सकते हैं, पर पेट में नहीं देख सकते। यह एक मखौल है, एक दिल्लगीबाज़ी है जो भगवान ने की है। हमारी हर इंद्रिय बाहर की ओर झुकी हुई है। हमारी जीभ भी बाहर के स्वाद खोजती है, लेकिन यह नहीं बता पाती कि जायके आखिर आते कहां से हैं। बताइए, जायके कहां से आते हैं? कहीं से नहीं आते, जायके जीभ से ही निकलते हैं। किसी पदार्थ में कोई स्वाद नहीं होता। नीम की पत्ती हमें कड़वी लगती है और ऊँट को मीठी। तो असल में नीम की पत्ती कैसी है? इसका उत्तर कोई नहीं दे सकता। नीम का पत्ता जब हमारी जीभ के स्लाइवा से मिल जाता है, तो दिमाग कहता है यह कड़वा है। और ऊँट के मुंह का स्लाइवा जब उसे छूता है, तो उसका दिमाग कहता है यह तो मीठा है। तो असल में कुछ भी नहीं है — केवल मिट्टी है, अनुभव है, संवेदना है, हमारी चेतना है। हमारी सहानुभूतियाँ और संवेदनाएँ ही तय करती हैं कि हमें क्या अच्छा और क्या बुरा लगना चाहिए। असली स्वाद पदार्थों में नहीं, हमारी चेतना में है। हमारी समृद्धियाँ भी बाहर नहीं, भीतर हैं। हम जिसे अपनी मान लेते हैं, वह सचमुच हमारी हो जाती है। जिसे दान मान लेते हैं, वह पराई हो जाती है। चीज तो वहीं की वहीं रहती है, पर भाव बदल जाता है। हम सोचते हैं कि अब यह हमारी नहीं रही, इसका मोह नहीं है, घमंड नहीं है, अधिकार नहीं है। जमीन वहीं की वहीं खड़ी है, पर जब हमने उसे बेच दिया तो वह हमारी नहीं रही। संपत्ति कहां से होती है? हमारा तन — इसी तन के माध्यम से जिसे हम अपना मान लेते हैं, वह हमारी हो जाती है।

अखिल विश्व गायत्री परिवार के युवा प्रतिनिधि एवं देव संस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी के मार्गदर्शन में यू.के. में दिव्य ज्योति कलश यात्रा का शुभारंभ लेस्टर से हुआ। इस अवसर पर भावपूर्ण वातावरण में परिजनों की गरिमामयी उपस्थिति रही।
साधना, आत्मशुद्धि और युग परिवर्तन के संदेश को जन-जन तक पहुँचाने के उद्देश्य से इस यात्रा की योजना बनाई गई है, जो यू.के. के विभिन्न नगरों में आत्मिक चेतना को प्रज्वलित करेगी। परम पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रदत्त युग निर्माण अभियान के सूत्रों को लेकर यह यात्रा प्रवासी भारतीयों में भारतीय संस्कृति, साधना और नैतिक मूल्यों के प्रति नई ऊर्जा जाग्रत कर रही है।
आरंभिक आयोजन में उपस्थित परिजनों को संबोधित करते हुए आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी ने ज्योति कलश को केवल एक प्रतीक न मानकर, उसे आत्मिक प्रकाश, आशा और युग चेतना का प्रतिनिधि बताया। उन्होंने सभी परिजनों से जन्मशताब्दी वर्ष 2026 के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए इस यात्रा को साधनात्मक तप और सेवा का माध्यम बनाने का आह्वान किया।






























अखिल विश्व गायत्री परिवार के प्रतिनिधि एवं देव संस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी ने यूरोप प्रवास के अंतर्गत लंदन में प्रमुख उद्योगपति श्री फिरोज मिस्त्री जी (Shapoorji Pallonji Group) तथा प्रतिष्ठित विधिवेत्ता एवं उद्यमी श्री विजय गोयल जी (Partner, Singhania & Co., Founder – Indo-EU Business Forum, Chairman – ASSOCHAM UK) से शिष्टाचार भेंट की।
इस अवसर पर पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के विचारों पर आधारित आध्यात्मिक नेतृत्व, नैतिक व्यापारिक संस्कृति, तथा वैश्विक कल्याण के लिए भारतीय दर्शन की भूमिका पर सार्थक संवाद हुआ।
डॉ. चिन्मय पंड्या जी ने देव संस्कृति विश्वविद्यालय एवं गायत्री परिवार द्वारा किए जा रहे शिक्षा, संस्कार एवं वैश्विक उत्थान के प्रयासों की जानकारी साझा की और जन्मशताब्दी वर्ष 2026 के लक्ष्य को लेकर भावी योजनाओं का उल्लेख किया।
दोनों ही महानुभावों ने मिशन के विचारों की सराहना करते हुए सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक सहयोग की संभावनाओं पर रुचि प्रकट की। यह भेंट भारतीय मूल्यों के वैश्विक प्रचार की दिशा में एक प्रेरक और सशक्त संवाद रही।



जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय:—
हमारे जीवन का पचहत्तरवाँ वर्ष पूरा हो चुका। इस लंबी अवधि में मात्र एक काम करने का मन हुआ और उसी को करने में जुट गए। वह प्रयोजन था— ‘साधना से सिद्धि’ का अन्वेषण— पर्यवेक्षण। इसके लिए यही उपयुक्त लगा कि जिस प्रकार अनेक वैज्ञानिकों ने पूरी-पूरी जिंदगियाँ लगाकर अन्वेषण कार्य किया और उसके द्वारा समूची मानव जाति की महती सेवा संभव हो सकी, ठीक उसी प्रकार यह देखा जाना चाहिए कि पुरातनकाल से चली आ रही ‘साधना से सिद्धि’ की प्रक्रिया का सिद्धांत सही है या गलत? इसका परीक्षण दूसरों के ऊपर न करके अपने ऊपर किया जाए।
यह विचारणा दस वर्ष की उम्र से उठी एवं पंद्रह वर्ष की आयु तक निरंतर विचार-क्षेत्र में चलती रही। इसी बीच अन्यान्य घटनाक्रमों का परिचय देना हो, तो इतना ही बताया जा सकता है कि हमारे पिताजी अपने सहपाठी महामना मालवीय जी के पास से हमारा उपनयन संस्कार कराके लाए। उसी को ‘गायत्री दीक्षा’ कहा गया। ग्राम के स्कूल में प्राइमरी पाठशाला तक की पढ़ाई की। पिताजी ने ही लघुसिद्धांतकौमुदी-सिद्धांतकौमुदी के आधार पर संस्कृत व्याकरण पढ़ा दिया। वे श्रीमद्भागवत की कथाएँ कहने राजा-महाराजाओं के यहाँ जाया करते थे। मुझे भी साथ ले जाते। इस प्रकार भागवत का आद्योपांत वृत्तांत याद हो गया।
इसी बीच विवाह भी हो गया। पत्नी अनुशासनप्रिय, परिश्रमी, सेवाभावी और हमारे निर्धारणों में सहयोगिनी थी। बस समझना चाहिए कि पंद्रह वर्ष समाप्त हुए।
संध्यावंदन हमारा नियमित क्रम था। मालवीय जी ने गायत्री मंत्र की विधिवत् दीक्षा दी थी और कहा था कि, ‘‘यह ब्राह्मण की कामधेनु है। इसे बिना नागा किए जपते रहना। पाँच माला अनिवार्य; अधिक जितनी हो जाएँ, उतनी उत्तम।’’ उसी आदेश को मैंने गाँठ बाँध लिया और उसी क्रम को अनवरत चलाता रहा।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

इस जीवनयात्रा के गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता:—
प्रत्यक्ष घटनाओं की दृष्टि से कुछ प्रकाशित किये जा रहे प्रसंगों को छोड़कर हमारे जीवनक्रम में बहुत विचित्रताएँ एवं विविधताएँ नहीं हैं। कौतुक-कौतूहल व्यक्त करने वाली उछल-कूद एवं जादू-चमत्कारों की भी उसमें गुंजाइश नहीं है। एक सुव्यवस्थित और सुनियोजित ढर्रे पर निष्ठापूर्वक समय कटता रहा है। इसलिए विचित्रताएँ ढूँढ़ने वालों को उसमें निराशा भी लग सकती है। पर जो घटनाओं के पीछे काम करने वाले तथ्यों और रहस्यों में रुचि लेंगे, उन्हें इतने से भी अध्यात्म— सनातन, के परंपरागत प्रवाह का परिचय मिल जाएगा और वे समझ सकेंगे कि सफलता-असफलता का कारण क्या है? क्रियाकांड को सब कुछ मान बैठना और व्यक्तित्व के परिष्कार की— पात्रता की प्राप्ति पर ध्यान न देना— यही एक कारण है, जिसके चलते उपासना-क्षेत्र में निराशा छाई और अध्यात्म को उपहासास्पद बनने— बदनाम होने का लांछन लगा। हमारे क्रिया-कृत्य सामान्य हैं, पर उसके पीछे उस पृष्ठभूमि का समावेश है, जो ब्रह्मतेजस् को उभारती और उसे कुछ महत्त्वपूर्ण कर सकने की समर्थता तक ले जाती है।
जीवनचर्या के घटनापरक विस्तार से कौतूहल बढ़ने के अतिरिक्त कुछ लाभ है नहीं। काम की बात है— इन क्रियाओं के साथ जुड़ी हुई अंतर्दृष्टि और उस आन्तरिक तत्परता का समावेश, जो छोटे-से बीज की खाद-पानी की आवश्यकता पूरी करते हुए विशाल वृक्ष बनाने में समर्थ होती रही। वस्तुतः साधक का व्यक्तित्व ही साधनाक्रम में प्राण फूँकता है; अन्यथा, मात्र क्रिया-कृत्य खिलवाड़ बनकर रह जाते हैं।
तुलसी का राम, सूर का हरे कृष्ण, चैतन्य का संकीर्तन, मीरा का गायन, रामकृष्ण का पूजन मात्र क्रिया-कृत्यों के कारण सफल नहीं हुआ था। ऐसा औड़म-बौड़म तो दूसरे असंख्य करते रहते हैं, पर उनके पल्ले विडंबना के अतिरिक्त और कुछ नहीं पड़ता। वाल्मीकि ने जीवन बदला तो उलटा नाम जपते ही मूर्द्धन्य हो गए। अजामिल, अंगुलिमाल, गणिका, आम्रपाली मात्र कुछ अक्षर दुहराना ही नहीं सीखे थे, उनने अपनी जीवनचर्या को भी अध्यात्म आदर्शों के अनुरूप ढाला।
आज कुछ ऐसी विडंबना चल पड़ी है कि लोग कुछ अक्षर दुहराने और क्रिया-कृत्य करने— स्तवन-उपहार प्रस्तुत करने भर से अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। चिंतन, चरित्र और व्यवहार को उस आदर्शवादिता के ढाँचे में ढालने का प्रयत्न नहीं करते, जो आत्मिक प्रगति के लिए अनिवार्य रूप में आवश्यक है। अपनी साधना-पद्धति में इस भूल का समावेश न होने देने का आरंभ से ही ध्यान रखा गया। अस्तु, वह यथार्थवादी भी है और सर्वसाधारण के लिए उपयोगी भी। इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर ही जीवन चर्या को पढ़ा जाए।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

इस जीवनयात्रा के गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता:—
हमारी जीवनगाथा सब जिज्ञासुओं के लिए एक प्रकाश-स्तंभ का काम कर सकती है। वह एक बुद्धिजीवी और यथार्थवादी द्वारा अपनाई गई कार्यपद्धति है। छद्म जैसा कुछ उसमें है नहीं। असफलता का लांछन भी उन पर नहीं लगता। ऐसी दशा में जो गंभीरता से समझने का प्रयत्न करेगा कि सही लक्ष्य तक पहुँचने का सही मार्ग हो सकता था— शार्टकट के फेर में भ्रम-जंजाल न अपनाए गए होते, तो निराशा, खीज और थकान हाथ न लगती; तब या तो मँहगा समझकर हाथ ही न डाला जाता; यदि पाना ही था तो उसका मूल्य चुकाने का साहस पहले से ही सँजोया गया होता— ऐसा अवसर उन्हें मिला नहीं। इसी को दुर्भाग्य कह सकते हैं। यदि हमारा जीवन पढ़ा गया होता; उसके साथ आदि से अंत तक गुथे हुए अध्यात्मतत्त्व दर्शन और क्रिया-विधान को समझने का अवसर मिला होता, तो निश्चय ही प्रच्छन्न भ्रमग्रस्त लोगों की संख्या इतनी न रही होती, जितनी अब है।
एक और वर्ग है— विवेकदृष्टि वाले यथार्थवादियों का। वे ऋषिपरंपरा पर विश्वास करते हैं और सच्चे मन से विश्वास करते हैं कि वे आत्मबल के धनी थे। उन विभूतियों से उनने अपना, दूसरों का और समस्त विश्व का भला किया था। भौतिक विज्ञान की तुलना में जो अध्यात्म विज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं, उनकी एक जिज्ञासा यह भी रहती है कि वास्तविक स्वरूप और विधान क्या है? कहने को तो हर कुंजड़ी अपने बेरों को मीठा बताती है, पर कथनी पर विश्वास न करने वालों द्वारा उपलब्धियों का जब लेखा-जोखा लिया जाता है, तब प्रतीत होता है कि कौन, कितने पानी में है ?
सही क्रिया, सही लोगों द्वारा, सही प्रयोजनों के लिए अपनाए जाने पर उसका सत्परिणाम भी होना चाहिए। इस आधार पर जिन्हें ऋषिपरंपरा के अध्यात्म का स्वरूप समझना हो, उन्हें निजी अनुसंधान करने की आवश्यकता नहीं है। वे हमारी जीवनचर्या को आदि से अंत तक पढ़ और परख सकते हैं। विगत साठ वर्षों में प्रत्येक वर्ष इसी प्रयोजन के लिए व्यतीत हुआ है। उसके परिणाम भी खुली पुस्तक की तरह सामने हैं। इन पर गंभीर दृष्टिपात करने पर यह अनुमान निकल सकता है कि सही परिणाम प्राप्त करने वालों ने सही मार्ग भी अवश्य अपनाया होगा। ऐसा अद्भुत मार्ग दूसरों के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है। आत्म-विद्या और अध्यात्म विज्ञान की गरिमा से जो प्रभावित है; उसका पुनर्जीवन देखना चाहते हैं; प्रतिपादनों को परिणतियों की कसौटी पर कसना चाहते हैं, उन्हें निश्चय ही हमारी जीवनचर्या के पृष्ठों का पर्यवेक्षण, संतोषप्रद और समाधानकारक लगता है।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य