मौनं सर्वार्थ साधनम

मौन साधना की अध्यात्म-दर्शन में बड़ी महत्ता बतायी गयी है। कहा गया है “मौनं सर्वार्थ साधनम्।” मौन रहने से सभी कार्य पूर्ण होते हैं। महात्मा गाँधी कहते थे- मौन में अन्तर्शक्ति को जगाने की प्रभावशाली सामर्थ्य होती है। उनके अनुसार वह व्यक्ति, जो अपने जीवन में निरन्तर अनवरत सत्य की शोध कर रहा हो, मौन साधना का ही पथ पकड़ता है। लांगफेलो के अनुसार मौन और एकान्त, आत्मा के सर्वोत्तम मित्र हैं। दार्शनिक बेकन का मत है कि मौन निद्रा के समान है जो विवेक को ताजगी प्रदान करती है।
वस्तुतः मौन एक तितीक्षा है, तप साधना है जो समय-समय पर महामानवों द्वारा अपने साधना पुरुषार्थ के क्रम में अपनायी जाती है। मौनावस्था एक योगी के लिये सर्वाधिक मूल्यवान निधि एवं धरोहर है। इस अवस्था में प्रवेश कर वह परमसत्ता के और समीप जा पहुँचता है। बहिरंग से नाता तोड़ कर अंतःक्षेत्र की गुफा प्रवेश साधना उसके लिये फलदायी सिद्ध होती है। मौनावस्था में की गयी प्रार्थना-तप साधना कभी निष्फल नहीं होती ऐसा विद्वत्जनों का मत है। किसी विद्वान ने कहा है- भय से उत्पन्न मौन जड़ता का प्रतीक है किन्तु संयमजन्य मौन साधुता है, तपस्वी का भूषण है।
इन्द्रिय संयम हेतु सबसे अच्छा प्रतीक मौन को माना गया है। जो मौन साध लेता है, वह सारी इन्द्रियों को वश में कर जितेन्द्रिय कहलाता है। महर्षि व्यास के मुख से निकले वचनों को लिपिबद्ध कर पुराण रचने का पुरुषार्थ गणेश जी द्वारा मौन साधना के बलबूते ही सम्भव हो पाया। यदि इतनी लम्बी अवधि तक यह साधना पुरुषार्थ न निभाया गया होता तो साहित्य सृजन भी सम्भव न हो पाता।
चिन्तक-मनीषी फ्रेंकलिन ने कहा है- “चींटी से अच्छा कोई उपदेश नहीं देता क्योंकि वह मौन रहती है।” मौन का अर्थ है ऊर्जा के बिखराव को समेटना एवं इसे संग्रहित कर उच्चस्तरीय पुरुषार्थ में नियोजित करना। मौन साधना के साधक अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों के समक्ष संसार के सभी प्रकार के वैभवों को तुच्छ मानते हैं। मौन साधक अतीत के अनुभवों से अर्जित ज्ञान सम्पदा को मौन स्थिति के क्षणों में पुनः नियोजित कर एक नवीन विचारधारा को एक कलाकार की तरह मूर्त रूप देता है, ऐसी विचारधारा जो युगानुकूल होती है, सर्वकल्याण कारी होती है। युग प्रवर्तक दृष्टा ऋषिगण इसी कारण मौन का महात्म्य बताते रहे हैं।
वाक् शक्ति की ऊर्जा का सर्वाधिक सुनियोजन मौन साधना में होता है। संग्रहित शक्ति द्वारा ऐसे साधक स्वयं को पूर्णता की दिशा में ले जाते हैं, जीवनमुक्त कहलाते हैं एवं अपनी इस शक्ति द्वारा बहिरंग जगत को भी प्रभावित करते हैं।
‘मैं’ को मिटाने की सर्वश्रेष्ठ स्थिति मौनावस्था है। जब ‘मैं’ (अहं) का ही लोप हो गया तो कौन सोचेगा व कौन बोलेगा ? इस साधना को समर्पण योग की साधना कहा जा सकता है। जो जितना गहरा होता है वह उतना ही मौन होता है। स्थिर जल गहरा होता है, यह उक्ति मौन के सम्बन्ध में सही सिद्ध होती है। जो वाचाल होते हैं, वे उतने ही उथले-बहिर्मुखी होते व तिरस्कार के भाजन बनते हैं। मौन बुद्धिमानी का ही दूसरा नाम है जो मनुष्य का सर्वोत्तम आभूषण है।
घोंसला सोती हुई चिड़िया को आश्रय देता है, गुफा में हिम समाधि प्राणियों में नयी ऊर्जा का संचार करती है, मौन मनुष्य की वाणी को शक्ति से ओत-प्रोत कर देता है।
मौन अवस्था एक ऐसी स्थिति है जिसमें भगवद् सत्ता व्यष्टि सत्ता के ओर समीप आ जाती है। मनुष्य देव-स्वरूप होता व भगवत् सत्ता से एकाकार होता है। मौन एक विराम की स्थिति है जो मनुष्य को भावी तप पुरुषार्थ हेतु पर्याप्त बल देती, ऊर्जा से ओत-प्रोत कर देती है। हर ऋषि स्तर के साधक को मौन का अवलम्बन लेना चाहिए ताकि समष्टि हित साधन सम्भव हो सके।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति नवम्बर 1984 पृष्ठ 2
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