GURUDEV
गुरुवर की वाणी
गायत्री परिवार का हर व्यक्ति बड़ा है। छोटेपन का उसने मुखौटा भर पहन रखा है। उतारने भर की देर है कि उसका असली चेहरा दृष्टिगोचर होगा। हमें हमारे मार्गदर्शक ने एक पल में क्षुद्रता का लबादा झटककर महानता का परिधान पहना दिया था। इस काया कल्प में मात्र इतना ही हुआ था कि लोभ, मोह की कीचड़ से उबरना पड़ा। जिस-तिस के परामर्शों—आग्रहों की उपेक्षा करनी पड़ी और आत्मा-परमात्मा के संयुक्त निर्णय को शिरोधार्य करने का साहस जुटाना पड़ा। इसके बाद एकाकी नहीं रहना पड़ा।
(हमारी वसीयत और विरासत-174)
इस समय जो भगवान के भक्त हैं, जिन्हें इस संसार के प्रति दर्द है, उनके नाम हमारा यही सन्देश है कि वे अपने व्यक्तिगत लाभ के कार्यों में कटौती करें एवं भगवान् का काम करने के लिए आगे आएं। अगर...
गुरुवर की वाणी
आज उस समय की उन मान्यताओं का समर्थन नहीं किया जा सकता जिनमें संतान वालों को सौभाग्यवान और संतानरहित को अभागी कहा जाता था। आज तो ठीक उलटी परिभाषा करनी पड़ेगी। जो जितने अधिक बच्चे उत्पन्न् करता है, वह संसार में उतनी ही अधिक कठिनाई उत्पन्न करता है और समाज का उसी अनुपात से भार बढ़ाता है, जबकि करोड़ों लोगों को आधे पेट सोना पड़ता है, तब नई आबादी बढ़ाना उन विभूतियों के ग्रास छीनने वाली नई भीड़ खड़ी कर देना है। आज के स्थित में संतानोत्पादन को दूसरे शब्दों में समाज द्रोह का पाप कहा जाय तो तनिक भी अत्युक्ति नहीं होगी।
□ राजनैतिक परतंत्रता दूर हो गई, पर आज जीवन के हर क्षेत्र में बौद्धिक पराधीनता छाई हुई है। गरीबी, बीमारी, अशिक्षा, अनैतिकता, अधार्मिकता, अनीति, उच्छृंखलता, नशेबाजी आद...
विचार करें
हमारे व्यक्तित्व के श्रेष्ठतर विकास की जरूरत समझने के लिए नीचे लिखे बिन्दुओं पर विचार करना होगा
1. हम पत्रिकाओं के ग्राहक बना लेते हैं, किन्तु उन्हें क्रमशः पाठक, साधक और सैनिक के रूप में विकसित करने की जिम्मेदारी चाहकर भी उठा नहीं पा रहे हैं।
2. हम बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं को दीक्षा दिलवा देते हैं, किन्तु उन्हें क्रमशः उपासना, साधना और आराधना में कुशल बनाने, समयदान और अंशदान में निष्ठापूर्वक आगे बढ़ाने के प्रयास ठीक से नहीं कर पा रहे हैं।
3. हम युग साहित्य के मेले लगाते हैं, उसका विक्रय बढ़ाते हैं, लेकिन युगविचार से युगरोगों के उपचार की प्रेरणा जन- जन तक नहीं पहुँचा पा रहे हैं।
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देव संस्कृति की गौरव गरिमा
सभ्यता और संस्कृति इस युग के दो बहु-चर्चित विषय हैं। आस्थाओं और मान्यताओं को संस्कृति और तदनुरूप व्यवहार, आचरण को सभ्यता की संज्ञा दी जाती है। मानवीय सभ्यता और संस्कृति कहें या चाहे जो भी नाम दें मानवीय दर्शन सर्वत्र एक ही हो सकता है, मानवीय संस्कृति केवल एक हो सकती है दो नहीं क्योंकि विज्ञान कुछ भी हो सकता है। इनका निर्धारण जीवन के बाह्य स्वरूप भर से नहीं किया जा सकता। संस्कृति को यथार्थ स्वरूप प्रदान करने के लिए अन्ततः धर्म और दर्शन की ही शरण में जाना पड़ेगा।
संस्कृति का अर्थ है-मनुष्य का भीतरी विकास। उसका परिचय व्यक्ति के निजी चरित्र और दूसरों के साथ किये जाने वाले सद्व्यवहार से मिलता है। दूसरों को ठीक तरह समझ सकने और अपनी स्थिति तथा समझ धैर्यपूवक दूसरों क...
ज्ञान और विज्ञान एक दूसरे का अवलम्बन अपनाएँ
ज्ञान और विज्ञान यह दोनों सहोदर भाई हैं। ज्ञान अर्थात् चेतना को मानवी गरिमा के अनुरूप चिन्तन तथा चरित्र के लिए आस्थावान बनने तथा बनाने की प्रक्रिया। यदि ज्ञान का अभाव हो तो मनुष्य को भी अन्य प्राणियों की भाँति स्वार्थ परायण रहना होगा। उसकी गतिविधियाँ पेट की क्षुधा निवारण तथा मस्तिष्कीय खुजली के रूप में कामवासना का ताना-बाना बते रहने में ही नष्ट हो जायेंगी।
मनुष्य भी एक तरह का पशु है। जन्मजात रूप से उसमें भी पशु, प्रवृत्तियाँ भरी होती हैं। उन्हें परिमार्जित करके सुसंस्कारी एवं आदर्शवादी बनाने का काम जिस चिन्तन पद्धति का है उसे ज्ञान कहा गया है। गीताकार का कथन है कि—‘‘ज्ञान से अधिक श्रेष्ठ और पवित्र अन्य कोई वस्तु नहीं है। ‘न हि ज्ञानेन पवित्...
Yug Parivartan Ka Aadhar युग परिवर्तन का आधार भावनात्मक नव निर्माण (अंतिम भाग)
जाति या लिंग के कारण किसी को ऊँचा या किसी को नीचा न ठहरा सकेंगे, छूत- अछूत का प्रश्न न रहेगा। गोरी चमड़ी वाले लोगों से श्रेष्ठ होने का दावा न करेंगे और ब्राह्मण हरिजन से ऊँचा न कहलायेगा। गुण, कर्म, स्वभाव, सेवा एवं बलिदान ही किसी को सम्मानित होने के आधार बनेंगे, जाति या वंश नहीं। इसी प्रकार नारी से श्रेष्ठ नर है उसे अधिक अधिकार प्राप्त है, ऐसी मान्यता हट जायेगी। दोनों के कर्तव्य और अधिकार एक होंगे। प्रतिबन्ध या मर्यादाएँ दोनों पर समान स्तर की लागू होंगी। प्राकृतिक सम्पदाओं पर सब का अधिकार होगा। पूँजी समाज की होगी। व्यक्ति अपनी आवश्यकतानुसार उसमें से प्राप्त करेंगे और सामर्थ्यानुसार काम करेंगे। न कोई धनपति होगा न निर्धन, मृतक उत्तराधिकार में केवल परिवार के असमर...
‘‘हम बदलेंगे युग बदलेगा’’ सूत्र का शुभारम्भ (भाग १)
आदत पड़ जाने पर तो अप्रिय और अवांछनीय स्थिति भी सहज और सरल ही प्रतीत नहीं होती, प्रिय भी लगने लगती है। बलिष्ठ और बीमार का मध्यवर्ती अन्तर देखने पर यह प्रतीत होते देर नहीं लगती कि उपयुक्त एवं अनुपयुक्त के बीच कितना बड़ा फर्क होता है। अतीत के देव मानवों के स्तर और सतयुगी स्वर्गोपम वातावरण से आज के व्यक्ति और समाज की तुलना करने पर यह समझते देर नहीं लगती कि उत्थान के शिखर पर रहने वाले इस धरती के सिरमौर पतन के कितने गहरे गर्त में क्यों व कैसे आ गिरे।
आज शारीरिक रुग्णता, मानसिक उद्विग्नता, आर्थिक तंगी, पारिवारिक विपन्नता, सामाजिक अवांछनीयता क्रमशः बढ़ती ही चली जा रही है, अभ्यस्तों को तो नशेगाजी की लानत और उठाईगीरी भी स्वाभाविक लगती है, कोढ़ी भी आने समुदाय में दिन गुजारते रहते है पर सही...
‘‘हम बदलेंगे युग बदलेगा’’ सूत्र का शुभारम्भ (भाग २)
यदि वर्तमान परिस्थिति अनुपयुक्त लगती हो और उसे सुधारने बदलने का सचमुच ही मन हो तो सड़ी नाली की तली तक साफ करनी चाहिए। सड़ी कीचड़ भरी रहने पर दुर्गन्ध और विषकीटकों से निपटने के छुट पुट उपायों से कोई स्थायी समाधान मिल नही सकेगा। समाजगत विभीषिकाओं और व्यक्तिगत व्यथाओं के नाम रूप कितने ही क्यों न हो सबका आत्यन्तिक समाधान एक ही है कि दृष्टिकोण की दिशाधारा बदली जाय और अभ्यस्त ढर्रे की रीति नीति में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया जाय। उलटे को उलटकर सीधा किया जा सकता है। एक शब्द में इसी को युग क्रान्ति कहा जा सकता है जिसे नियोजित किये बिना और कोई गति नहीं। जहाँ तक उतर चुके उसके उपरान्त अब महा विनाश का, सामूहिक आत्म हत्या का ही अन्तिम पड़ाव है।
मानवी क्षमता इन दिनों अनुपयुक्त को अपनाने बढ़ाने ...
‘‘हम बदलेंगे युग बदलेगा’’ सूत्र का शुभारम्भ (भाग ३)
युग परिवर्तन या व्यक्ति परिवर्तन के लिए व्यक्तिगत दृष्टिकोण और समाजगत प्रवाह प्रचलन को बदलने की बात कही जाती है। उसे समन्वित रूप से एक शब्द में कहा जाय तो प्रवृत्तियों का परिवर्तन भी कह सकते हैं। लोग आज जिस तरह सोचते, चाहते, मानते और करते है उसके उद्गम केन्द्र में ऐसे हेरफेर की आवश्यकता है जिससे सड़े गले ढर्रें का परित्याग और शालीनता का अवलम्बन संभव हो सके। इसके लिए क्या करना होगा? उसे भी संक्षेप में कहा जा सकता है। इसके लिए तीन सिद्धान्त सूत्रों को समझने अपनाने भर से काम चल जायेगा।
एक यह कि निर्वाह में संयम सादगी का इतना समावेश किया जाय जिसे औसत नागरिक स्तर का और शरीर यात्रा के लिए अनिवार्य कहा जा सके।
दूसरा यह कि सादगी अपनाने के उपरान्त जो क्षमता सम्पदा बचती ह...
‘‘हम बदलेंगे युग बदलेगा’’ सूत्र का शुभारम्भ (भाग ४)
भटकाव से भ्रमित और कुत्साओं से ग्रसित व्यक्ति ऐससी ललक लिप्साओं में संलग्न रहता है जिन्हें दूरदर्शिता की कसौटी पर कसने से व्यर्थ निरर्थक एवं अनर्थ की ही संज्ञा दी जा सकती है। पेट प्रजनन इतना कठिन नहीं है जिनकी उचित आवश्यकताएँ थोड़ा सा समय श्रम लगाकर जुटाकर जुटाई न जा सके। सामथ्यों और साधनों की बर्बादी तो मूर्खता एवं धूर्तता जैसे प्रयोजनों में ही नष्ट भ्रष्ट होती रहती है। इसे जो जितनी बचा सकेगा उसे अपने पास सत्प्रयोजनों में लगा सकने योग्य भण्डार उतनी ही मात्रा में भरा पूरा दृष्टिगोचर होने लगेगा। बर्बादी से बचने और प्रगति पथ पर चढ़ दौड़ने की सुविधा प्राप्त करने का एक ही उपाय है-संयम। सादा जीवन उच्च विचार का आदर्श अपनाने पर ही व्यक्तित्व के अभ्युदय का शुभारम्भ होता है।
इन्द्रिय संय...