
मंत्र-शक्ति का रहस्य
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(श्री मन्त्रयोगी)
मंत्र शक्ति से कभी कभी ऐसे काम होते देखे और सुने जाते हैं जिनसे असाधारण आश्चर्य होता है। अत्यन्त विषैले सर्प जिनकी फुंसकार से ही मनुष्य मर सकता है, मंत्र शक्ति से कीलित होकर रस्सी की तरह पड़े रहते हैं और कुछ हानि नहीं पहुँचाते। जिस सर्प ने मनुष्य को काटा है उसे ही मंत्र शक्ति से बुलाकर काटे हुए स्थान से विष चुसवा कर रोगी को अच्छा कर देना कई सर्प विद्या विशारदों का बाँए हाथ का खेल होता है। जहरीले बिच्छू जिनका डंक लगते ही मनुष्य बेचैन हो जाता है, मंत्र शक्ति से निर्विष हो जाते हैं, डंक की पीड़ा मिनटों में अच्छी हो जाती है। पागल सियार या कुत्ते के काटे हुए जहरीली मक्खियों या कीड़ों के काटे हुए लोग भी इसी प्रकार ठीक होते देखे गये हैं। मधुमक्खियों को मंत्र शक्ति से निर्विष करके लोग उनका शहद बड़ी सुगमतापूर्वक निकाल लेते हैं।
कमलवाय, पीलिया, तिल्ली, पारी के ज्वर कंठमाला, मृगी, उन्माद आदि रोग मंत्र द्वारा ठीक होते देखे जाते हैं। बच्चों के पसली चलना, अधिक रोना, दूध पटकना, चौंक पड़ना, सूखते जाना आदि बहुत से रोग भी इसी विधि से ठीक होते देखे गये हैं। भूत बाधा, प्रेत पिशाच आदि के उपद्रव आदि का भी मंत्रों द्वारा शमन होता है। मंत्रों द्वारा हानि भी पहुँचाई जाती है किसी को बीमार कर देना, मतिभ्रम पैदा कर देना, द्वेष करा देना, वश में कर लेना आदि हानिकारक उपचार भी किये जाते हैं और जरूरत पड़ने पर बुद्धि को सुधारने में मानसिक शक्तियों को श्रेष्ठ एवं उन्नतिशील बनाने में भी इसका प्रयोग किया जाता है, हम ऐसे व्यक्तियों को जानते हैं जिन्होंने मंत्र शक्ति से अनेक पगले, अधपगले, भुलक्कड़, जड़, मूढ़, शठ और दुष्टों के जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन उपस्थित कर दिया है। इसके अतिरिक्त और भी असंख्य प्रकार के भले बुरे कार्य मंत्र शक्ति से होते हैं और होंगे।
इन सब बातों को देखते हुए यह प्रश्न उपस्थित होता है कि ऐसे आश्चर्यजनक कार्यों का मूलस्रोत क्या है? यह शक्ति कहाँ से आती है और किस प्रकार काम करती है? मंत्रों की शब्द रचना पर मामूली तौर से दृष्टिपात करने पर यह पता नहीं चलता कि इनके उच्चारण में ऐसी क्या विशेषता है जिनके द्वारा वह अद्भुत शक्ति उत्पन्न हो जाती है। मन्त्रों की वाक्यावली में से कोई ऐसा महत्वपूर्ण अर्थ भी नहीं निकलता जिसके आधार पर उसमें किसी विशेषता के निहित होने का अनुमान लगाया जा सके।
मोटी बुद्धि से सरसरी तौर पर देखने से मंत्रों का मर्म समझ में नहीं आता परन्तु गंभीरतापूर्वक विवेचन करने से वस्तु स्थिति का पता चल जाता है। ‘शब्द’ एक सजीव पदार्थ है जो भी शब्द हमारे स्वर यंत्र में से निकलता है वह ईथर तत्व में एक कम्पन उत्पन्न करता है, यह कम्पन उस उच्चारण करने वाले मनुष्य की इच्छा शक्ति और धारणा के अनुसार बलवान और निर्बल होते हैं, पृथक पृथक रूप से अक्षरों का स्वरूप अदृश्य जगत में बनता है एक विशेष प्रकार की शब्दावली को एकत्रित कर देने से उनका विशिष्ट स्वरूप बन जाता है। अक्षर विज्ञान के आचार्य इस बात को जानते ओर मानते हैं कि अमुक प्रकार के अक्षरों का एक समूह अमुक प्रकार के कंपन उत्पन्न करता है और वह इस प्रकार का हानिकर व लाभदायक प्रभाव उत्पन्न करता है। जैसे शहद और घी दोनों ही मामूली खाद्य पदार्थ हैं परन्तु यदि वे बराबर मात्रा में मिलाकर खाये जायें तो बड़ा घातक प्रभाव उत्पन्न करते हैं। उसी प्रकार अमुक अक्षर का उच्चारण अमुक अक्षर के बाद करने से क्या फल होता है उस विज्ञान का सूक्ष्म परीक्षण करने के बाद मन्त्रों की अक्षर रचना इस प्रकार की गई हैं जिससे अमुक प्रकार का ही प्रभाव उत्पन्न हो।
ऊँ, ह्रीं, हूँ, श्रीं, क्लीं, फट् आदि एकाक्षरी मंत्र अपना विशेष महत्व रखते हैं कंठ के स्वर यन्त्र के जिस स्थान से यह अक्षर निकलते हैं उसमें कुछ अलौकिक विशेषता है। इस विशेषता को ध्यान में रखते हुए वर्णमाला में या बोल चाल की भाषा में कहीं भी इन्हें स्थान नहीं दिया गया है, यदि दिया जाता तो उच्चारण करने वालों के सामने ऐसे भले बुरे परिणाम उपस्थित होते जिनकी उन्हें आवश्यकता न थी। मंत्रों की रचना ऊट-पटाँग अक्षरों का जोड़ मालूम पड़ती है परन्तु वास्तव में बात दूसरी ही है। एक अक्षर का स्वतंत्र महत्व और अमुक अमुक अक्षर के सम्मिलन का सामूहिक महत्व उन दोनों तथ्यों पर योग विद्या के तत्वज्ञों ने सूक्ष्म दृष्टि से विवेचना करके मंत्रों की रचना की हैं। सच्चे मंत्रों को उचित रूप से अभिमन्त्रित करने पर अक्षर विज्ञान के सिद्धान्तों के अनुसार उनका निश्चित फल प्राप्त होता है इसकी चाहे जो परीक्षा कर सकता है।
शब्द रचना के अतिरिक्त प्रयोक्ता की धारणा और विश्वास शक्ति का बल होता है। यह बल जितना ही न्यूनाधिक होगा उतना ही मंत्र भी फलदायक होगा। उसी मंत्र के द्वारा एक साधक अद्भुत करतब कर दिखाता है, परन्तु दूसरे को उसके द्वारा कुछ विशेष सफलता नहीं मिलती, इसका कारण प्रयोक्ताओं का विश्वास और मनोबल है। जिसके मन में अपने मंत्र के ऊपर अविचल श्रद्धा है उसका प्रयोग असफल नहीं हो सकता किन्तु जिसका मन शंका शंकित रहता है, संकल्प विकल्प किया करता है उसको सफलता प्राप्त होना दुर्लभ है। मंत्र को सिद्ध करने के लिए एक विशेष प्रकार का अद्भुत कर्मकाण्ड करना पड़ता है, कोई मंत्र मरघट में सिद्ध किये जाते हैं, किन्हीं के लिए अर्ध रात्रि के समय निर्जन स्थानों में जाना पड़ता है, किन्हीं मंत्रों को अमुक व्रत उपवास और विधि विधानों के साथ सिद्ध करते हैं, यह मंत्र सिद्धि के कर्मकाण्ड इसलिए हैं कि मंत्र योगी को स्वयं अपने ऊपर, अपने मंत्र के ऊपर सुदृढ़ विश्वास हो जावे। जिसने उन साहस पूर्ण और कष्टदायक मंत्र सिद्धि की साधना को पूरा किया है निश्चय ही उसे अपनी साधना पर विश्वास होना चाहिए। यही विश्वास वह बल है जिससे मंत्र सजीव होता है और अपना चमत्कार दिखाता है। अक्षर रचना के पश्चात यह धारणा एवं विश्वस्तता ही सफलता की आधार भूमि है।
मंत्र में तीसरा तथ्य इच्छा शक्ति है। कार्यसिद्धि के लिए प्रयोक्ता की तीव्र इच्छा का होना आवश्यक है। प्रयोग के साथ साथ अपनी सम्पूर्ण मानसिक शक्तियों को एक स्थान पर एकत्रित करके सफलता की उत्कट आकाँक्षा में अपना मनोयोग लगाना होता है। विभिन्न दिशाओं में काम करने वाली शक्तियाँ जब एक ही दिशा में पिल पड़ती हैं तो उसी प्रकार अचरज भरा कार्य हो जाता है जैसे आतिशी शीशे के थोड़े से क्षेत्र पर बिखरी हुई सूर्य किरणें एक स्थान पर एकत्रित कर देने से आग जलने लगती है।
मंत्र की सफलता यह तीन आभ्यन्तरिक तथ्य है। चौथा तथ्य बाहरी है। वह भी इन तीन की तरह ही आवश्यक और महत्वपूर्ण है। यह चौथा तथ्य यह है कि जिस आदमी के ऊपर प्रयोग किया जाए उसको मंत्र की शक्ति पर विश्वास हो, कम से कम इस बात की सूचना तो अवश्य ही हो कि मेरे ऊपर कुछ माँत्रिक प्रयोग किया जा रहा है। मैस्मरेजम विद्या का जिन्हें ज्ञान है वे पाठक जानते हैं कि जब तक सामने वाला व्यक्ति कुछ झेंप न जाय तब तक उसे निद्रित नहीं किया जा सकता। कोई कठोर मनोभूमि का आदमी दृढ़तापूर्वक कह दे कि मेरे ऊपर कोई मैस्मरेजम नहीं कर सकता तो उसको प्रभाव में लाना कठिन है। मंत्र योग और मैस्मरेजम एक ही पेड़ की दो शाखाएं हैं, इसमें भी वही सिद्धान्त काम करता है। यदि सामने वाले व्यक्ति को विश्वास होगा कि मेरे ऊपर कोई कारगर प्रयोग हो रहा है तो निश्चय ही उसके ऊपर प्रभाव पड़ेगा। यदि उसे पता न हो या विश्वास न हो तो मंत्र का पूरा फल नहीं मिल सकता। कारण यह है कि मंत्र योग भी एक योग है, योग का अर्थ जोड़। जोड़ के लिए कम से कम दो संख्या जरूर चाहिए। दोनों के मिलने से ही तो योग होगा। यदि एक पक्ष मिलने से इनकार करे तो जोड़ का, योग का, मंत्रयोग का समुचित लाभ होना कठिन है, जिसके ऊपर प्रयोग किया गया है उसका विश्वास भी साथ में होना चाहिए, यदि वह नहीं तो प्रयोग उतना ही सफल होगा जितना कि एक हाथ से ताली बजाने में सफलता मिलती है।
जो प्रयोक्ता सदाचारी, संयमी, सद्भावनायुक्त हैं, जिन्हें अपनी साधना पर विश्वास है, जो दूसरों को अपने प्रभाव में लेने की कला से परिचित हैं उनके मंत्र कभी झूठे नहीं होते। ऐसे मंत्र योगी आमतौर से अपने उद्देश्य को पूरा कर ही लेते हैं उनके प्रयोग प्रायः व्यर्थ नहीं ही जाते हैं। अगले अंक में गायत्री मंत्र को सिद्ध करने की विधि बताई जाएगी।