
पारस कहाँ है?
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जिस वस्तु के स्पर्श से लोहे जैसी निम्न कोटि की धातु स्वर्ण जैसी बहुमूल्य बन जावे, ऐसे किसी पदार्थ को प्राप्त करने के लिए दुनिया बहुत समय से प्रयत्नशील है। मनुष्य की इच्छाओं में तीन इच्छाएं सर्वोपरि हैं- 1. जीवन इच्छा 2. धन इच्छा 3. सफलता की इच्छा। इन तीनों का मनमानी मर्यादा में पूर्ति होते हुए देखने का स्वप्न मनुष्य बहुत प्राचीन काल से देखता चला आ रहा है। जीवन को स्थायी देखने के लिए अमृत की कल्पना की गई। समस्त मनोवाँछाओं की पूर्ति के लिए कल्पवृक्ष की मानसिक रचना हुई। धन के, स्वर्ण के, बाहुल्य के लिए पारस नामक किसी वस्तु तक मस्तिष्क ने दौड़ लगाई। क्षण भर में बिना अधिक समय और परिश्रम किये इच्छित वस्तुएं प्राप्त करने की आकाँक्षा मनुष्य को इतनी बेचैन किये रही है कि जब वह इन वस्तुओं को प्राप्त न कर सका तो किन्हीं काल्पनिक पदार्थों के अस्तित्व का सपना देखना आरंभ किया और अपनी चिर लालसाओं को किसी प्रकार बहलाया।
कहते हैं कि पारस पत्थर किन्हीं पहाड़ों पर होता है पर उसे कोई पहचान नहीं पाता। पहाड़ी चरवाहे बकरी के खुरों में लोहे की कीलें ठोक देते हैं जब कभी वे बकरियाँ पारस पत्थर के ऊपर से निकलती हैं तो वे कीलें सोने की हो जाती हैं। चरवाहे उन्हें निकाल लेते हैं और फिर नई लोहे की कीलें उसी जगह लगा देते हैं। नानी की कहानियों में कहा जाता है कि मादा सुअर जब अपने बच्चे को दूध पिलावे तब अगर कुछ बूंदें इधर ईंट पत्थरों पर गिर पड़े तो वे सोने के हो जाते हैं। कहा जाता है कि बुन्देलखण्ड के राजा चन्देल के यहाँ पारस पत्थर था। इस प्रकार की ओर भी अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। साधु महात्मा लोग ताँबे को किसी विधि से सोना बना देते हैं, ऐसे विश्वास भी लोगों में फैले हुए हैं। रसायनी विद्या का लटका दिखाकर तथाकथित साधु लोग बेचारे भोले-भाले लोगों की चुटिया मूड़ते हैं। उन्हें अपने चेला पंथी चुंगुल में फंसा रहते हैं। परन्तु भली प्रकार ढूँढ़ खोज करने पर अब इस नतीजे तक पहुँचा गया है कि ऐसी न तो कोई वस्तु है जिसे छूने से लोहा सोना बन सके और न ऐसी कोई विद्या है जो ताँबे को सोना बना सके। यदि किसी एक भी आदमी को ऐसी कोई वस्तु या विद्या मिली तो उसी दिन सोना, सोना न रहेगा, वह पीतल और काँसे की तरह एक साधारण धातु रह जायेगी। सोना इसीलिए सोना है कि वह कठिनाई से और थोड़ी मात्रा में मिलता है। जब वह आसानी से और बड़ी मात्रा में तैयार होने लगा तो उसकी कोई कीमत न रहेगी तब शायद एक रुपए का दो सेर सोना बिकने लगे।
हमें उस काल्पनिक, अस्तित्व रहित पारस के लिए ललचाने और मुँह में पानी भरने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि इस संसार में एक ऐसा पारस बहुत पहले से मौजूद है जिसके स्पर्श मात्र से कम मूल्य की रद्दी सभी चीजें क्षण भर में बहुमूल्य देश कीमती, बन जाती है। यह पारस परमात्मा ने अपने हर एक पुत्र को दिया है ताकि यदि उसे हीन वस्तुओं से या हीन वातावरण से ही काम चलाना पड़े तो इस पारस को उनसे छुआकर तुरन्त ही उन्हें बहुमूल्य बना लिया करें। यह वस्तु अदृश्य, अप्राप्त, काल्पनिक या अवास्तविक नहीं है। अनेक व्यक्तियों के पास वह आज भी मौजूद है। उसे काम में लाते हैं और लाभ उठाते हैं। इस दुनिया में दौलतमंदों की कमी नहीं है। ऐसे लोग अब भी भारी संख्या में मौजूद हैं जिनके पास एक विशेष प्रकार का पारस पत्थर मौजूद है और उसके द्वारा वैसे ही वैभवशाली, सुखी, सन्तुष्ट तथा प्रसन्न हैं जैसा कि लोहे को सोना बनाने वाले पारस के पास में होने पर कोई होता।
यह पारस क्या है? यह है प्रेम। एक काला-कलूटा आदमी जिसे आप पूर्णतः कुरूप, गंवार या असभ्य कह सकते हैं, अपनी स्त्री के लिए कामदेव सा रूपवान और इन्द्र के समान सामर्थ्यवान है। जैसे शची अपने इन्द्र को पाकर प्रसन्न है, उसकी सेवा करती है और अपने को सौभाग्य शालिनी मानती है वैसी ही एक भीलनी अपने अर्धनग्न और धनहीन भील को पाकर प्रसन्न है। विचार कीजिए कि इसका कारण क्या है? जो आदमी सब को कुरूप और गन्दा लगता है वह एक स्त्री को इतना प्रिय क्यों लगता है? इसका कारण है प्रेम। प्रेम एक प्रकार का प्रकाश है, अंधियारी रात में आप अपनी बैटरी की बत्ती से किसी वस्तु पर रोशनी फेंके तो वह वस्तु स्पष्ट तक चमकने लगेगी, जबकि पास में पड़ी हुई दूसरी अच्छी चीजें भी अंधयारी के कारण काली कलूटी और श्रीहीन ही मालूम पड़ेगी। तब वह वस्तु जो चाहे सस्ती या भद्दी क्यों न हो बैटरी का प्रकाश पड़ने के कारण स्पष्ट तथा चमक रही होगी, अपने रंग रूप का भला प्रदर्शन कर रही होगी, आँखों में जंच रही होगी। प्रेम में ऐसा ही प्रकाश है। जिस किसी से भी प्रेम किया जाता है वही सुन्दर, गुणकारी, लाभदायक, भला, बहुमूल्य, मन भावन मालूम पड़ने लगता है। माता का दिल जानता है कि उसका बालक कितना सुन्दर है। अमीर अपने हीरे जवाहरात और महल तिवारी की जैसी कीमत अनुभव करते हैं गरीबों को अपने टूटी-फूटी झोपड़ी, फटे-पुराने कपड़े और मैले-कुचैले सामान से भी वैसी ही ममता होती है।
दार्शनिक दृष्टि से विवेचना करने पर मालूम होता है कि वस्तुएं स्वतः न तो बहुमूल्य हैं और न अल्प मूल्य। मनुष्य का जो प्रिय विषय होता है उस की पूर्ति जिन साधनों से होती है उन्हें ही वह संपत्ति समझता है। जिस सीमा तक अपनी मनोवाँछा की पूर्ति होती है उतना ही वह साधन सम्पत्ति प्रिय लगती है, यह प्रियता ही बहुमूल्य होने की कसौटी है। धन-सम्पत्ति, स्त्री पुत्र आदि वस्तुएं साधारणतः विशेष मूल्यवान मालूम पड़ती है किन्तु जब इनके ओर से वैराग्य उत्पन्न होता है, त्याग भाव आता है तो धूलि के समान निरुपयोगी और व्यर्थ मालूम पड़ने लगती है। गृह त्यागी महात्मा जब संन्यास में प्रवेश करते हैं तो उन्हें अपना सारा वैभव तुच्छ घास के तिनके जैसा मालूम पड़ने लगता है, उसे त्यागने में वे रत्ती भर भी दुख, शोक अनुभव नहीं करते। बड़े परिश्रम से मनुष्य रुपया कमाता है, परन्तु प्रतिष्ठा, विपत्ति आदि का अवसर आने पर उस रुपये को कंकड़ी की तरह बहा देता है। परिश्रम करते समय उसे रुपया मूल्यवान लगता था तो वह बचा बचाकर जमा करता था, जब विपत्ति का अवसर आया तो बिना किसी हिचकिचाहट के वह सारा रुपया उसने खर्च कर डाला, इससे प्रतीत होता है कि रुपया बहुमूल्य नहीं वरन् अपनी रुचि को आवश्यकता को पूरा करने वाले साधन बहुमूल्य है। यदि किसी उपाय से साधारण वस्तुओं को अपनी रुचि पूर्ण करने वाला, प्रसन्नता देने वाला बनाया जा सके तो उस उपाय को पारस कहने में हिचक न होनी चाहिए। जिस वस्तु के द्वारा साधारण कोटि की जैसी तैसी वस्तुएं भी रुचिकर, आनन्द दायक, बहुमूल्य बन जाती है वह पारस नहीं तो और क्या है?
किसी वस्तु को कुछ से कुछ बनाने के लिए एक शक्तिशाली धारा की आवश्यकता है। लोहे को स्वर्ण, लघु को महान बनाने के लिए एक बलवान सत्ता चाहिए। मनुष्य जीवन में भी एक ऐसी सजीव सत्ता मौजूद है जो नीरस, उदासीन और तुच्छ वातावरण को दिव्य एवं स्वर्गीय बना देती है। यह सत्ता है- प्रेम। निर्जीव मशीनें बिजली की धारा का स्पर्श करते ही धड़धड़ाती हुई चलने लगती हैं, अंधेरे पड़े हुए बल्ब बटन दबाते ही प्रकाशित हो जाते हैं, बन्द रखा हुआ पंखा विद्युत की धारा आते ही फर-फर करके घूमने लगता है और अपनी हवा द्वारा लोगों को शीतल कर देता है। प्रेम एक सजीव बिजली है। वह जिसके ऊपर पड़ती है उसे गति शील बना देती है। निराश, उदास, रूखे गिरे हुए और झुझलाये हुए लोगों को एक दम परिवर्तित कर देती हैं। वे आशा, उत्साह, उमंग, प्रसन्नता और प्रफुल्लता से भर जाते हैं। देखा गया है कि उपेक्षा और तिरस्कार ने जिन लोगों को दुर्जन बना दिया था वे ही प्रेम की डली चखकर बड़े उदार सद्गुणी और सज्जन बने गये। दीपक स्नेह की चिकनाई को पीकर जलता है मनुष्य का जीवन भी कुछ ऐसा ही है जिसे स्नेह से सींचा गया है उस का दिल हरा भरा और फला-फूला रहेगा, जो स्नेह से वंचित है वह रूखा, झुंझलाया हुआ, निराशा और अनुदार बन जायेगा, इसलिए दूसरों को यदि अपना इच्छानुवर्ती मधुरभाषी, प्रिय व्यवहारी बनाना है तो इस निर्माण कार्य के लिए प्रेम चाहिए। अंधकार को प्रकाश में, निर्जीवता को सजीवता में, मरघट को उद्यान में बदल देने की शक्ति का नाम प्रेम है। इतना चमत्कार पूर्ण सजीव परिवर्तन कर सकने वाली शक्ति को यह पारस कहा जाता है तो कुछ अत्युक्ति की बात नहीं है।
वह पारस जो लोहे को सोना बना सकता है न तो इस दुनिया के लिए उपयोगी है और न आवश्यक। क्योंकि अर्थशास्त्र के नियमानुसार ‘पैसा’ और कुछ नहीं, श्रम और योग्यता का स्थूल रूप है। यदि श्रम और योग्यता के बिना ही असीम स्वर्ण राशि मिलने लगे तो संसार का आर्थिक संतुलन बिल्कुल नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा। जिनके पास यह वस्तु होगी ईर्ष्या के कारण उनके प्राण भी संकट में पड़े बिना न रहेंगे। कोहिनूर हीरा का इतिहास जिन्होंने पढ़ा है वे जानते हैं कि वह वेश कीमती हीरा जिस-जिस के पास गया है, उसे ईर्ष्या की आग ने बुरी तरह झुलसाया है। फिर पारस जैसी अद्भुत वस्तु को प्राप्त करने वाले का कुछ क्षण के लिए भी इस संसार में सही सलामत रहना कठिन है। कहते हैं कि एक गरीब आदमी ने किसी देवता को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त किया कि वह जिस वस्तु को छू ले वही सोने की हो जाय। जब उसे यह वरदान मिला मन में फूला न समाया। जब घर पहुँचा तो उसने अपनी लड़की की गुड़िया छू ली, वह सोने की हो गई। लड़की ने जब धातु की गुड़िया देखी तो रोती हुई पिता के पास गई और कहने लगी पिताजी मुझे तो कपड़े की गुड़िया चाहिए। पिता ने साँत्वना देने के लिए लड़की को गोद में उठा लिया वह भी ठोस सोने की हो गई, लड़की को मरी देखकर उसकी माता दौड़ी आई, वह भी जरा सा छू गई, छूने को देर थी कि वह भी सोने की हो गई। वह आदमी घबराया जो कुछ हाथ में आता सब सोने का हो जाता, रोटी, पानी भी सोने का। भूखे मरने की नौबत आ गई। तब उसने उसी देवता से प्रार्थना करके वह वरदान वापिस करवाया।
परमात्मा ने अपने पुत्रों को किसी ऐसी वस्तु से वंचित नहीं किया है जो वास्तव में उसके लिए उपयोगी और आवश्यक है। यह काल्पनिक पारस मनुष्य के लिए हानिकारक और दुखदायी है, इसलिए उसका अस्तित्व उपलब्ध नहीं है। हाँ, आध्यात्मिक पारस प्रेम जिसकी चर्चा इन पंक्तियों में की जा रही है, उपयोगी भी है और आवश्यक भी। जिसने इस पारस को प्राप्त किया है वह अपने चारों ओर स्वर्गीय वातावरण की सृष्टि कर लेता है, सोने का उपयोग यही है कि उससे मानसिक तृप्ति के साधन उपलब्ध होते हैं, इसीलिए सोने का महत्व दिया जाता है, किन्तु जितनी मानसिक तृप्ति सोने द्वारा खरीदी हुई वस्तुओं से होती है, उससे अनेक गुनी इस आध्यात्मिक अमृत-पारस से हो जाती है।
आप अपने कुटुम्बियों से, मित्रों से, परिचितों से, अपरिचितों से प्रेम किया कीजिए, सबके लिए उचित आदर, स्नेह, उदारता और आत्मीयता का भाव रखा कीजिए। किसी से लड़ना पड़े तो भी आत्मीयता का उदार भाव लेकर लड़िये। अपने निकटवर्ती वातावरण में प्रेम की सुगंध फैला हुए स्नेह, नम्रता और सज्जनता के वचन बोलिए ऐसे ही विचार रखिए, ऐसे ही आचरण कीजिए। आप का मन, वचन और कर्म प्रेम से सराबोर होना चाहिए। सद्व्यवहार आप की प्रधान नीति हो, मधुर भाषण आप का स्वभाव हो, सद्भाव आप का व्रत हो, आपका जीवन प्रेम, भ्रातृभाव, सदाचार, ईमानदारी, सरलता और आत्मीयता की दिशा में अग्रसर हो रहा हो। इस ओर जितनी-जितनी आप प्रगति करते जावेंगे उतने ही पारस पत्थर के निकट पहुँचते जावेंगे।
लोहे को सोना बनाने के तुच्छ प्रलोभन पर से अपना ध्यान हटाइए, लोहे जैसे कलुषित हृदयों को स्वर्ण सा चमकदार बनाने की विद्या सीखिये। यह विद्या सच्ची रसायनी विद्या है, यह पारस सच्चा पारस है। जिसके पास यह है उसके पास सब कुछ है।