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Magazine - Year 1947 - Version 2

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योग के नाम पर मायाचार

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योग, अध्यात्म और धर्म की ओर अपनी प्रवृत्तियाँ आरम्भ काल से ही रही हैं इन प्रवृत्तियों की प्रेरणा से सत्य की शोध करने के उद्देश्य से भारतवर्ष में एक कोने से दूसरे कोने तक यात्राएं करने के अवसर हमें मिले हैं। लगभग दस वर्ष इस पर्यटन में लगा रहना पड़ा है।

इस समय में अच्छे बुरे सभी प्रकार के अनुभव हमें हुए। सच्चे, ज्ञानी तपस्वी सिद्ध पुरुषों से यह पुण्य भारत भूमि खाली नहीं है। सच्चे आध्यात्मिक पुरुष भी हमें पर्याप्त संख्या में मिले उनका अनुग्रह, स्नेह एवं आत्मभाव प्राप्त करने का सौभाग्य भी हमें मिला। उनका वर्णन पाठकों को अन्यत्र मिलेगा, इन पंक्तियों में हम उन लोगों की चर्चा करेंगे जो वास्तव में असाधु हैं पर साधुओं के दल में आ मिले हैं। और उनने साधु जैसे पुनीति शब्द को बदनाम किया है।

गौ की खाल ओढ़ कर गधा कुछ समय तक लोगों को धोखा दे सकता है, सिंह का चर्म पहन कर शृगाल कुछ समय तक दूसरों को भ्रम में डाल सकता है, पर

उघरे अन्त न होहि निबाहू।

कालनेमि जिमि रावण राहू॥

ऐसे व्यक्तियों की पोल खुलकर रहती है। असत्य का पर्दाफाश होकर रहता है। जब तक जहाँ अज्ञान है, तब तक तहाँ ऐसे लोगों की दाल गलती है पर जब विवेक, तर्क और परीक्षण का प्रकाश होने लगता है, सत्यासत्य की शोध करने की बुद्धि जाग पड़ती है तो ऐसे लोगों का दंभ प्रकट हो जाता है। रात्रि के अंधकार में उल्लू चमगादड़ तथा अन्य निशाचर किलोल करते हैं, सूर्य नारायण का प्रकाश प्रकट होते ही वे मुँह छिपा कर बैठ जाते हैं इसी प्रकार अज्ञान के अंधकार में किलोल करने वाले इन निशाचरों का भी अन्त होना निश्चित है।

मायावी लोगों ने किसी भी क्षेत्र को अछूता नहीं छोड़ा है। उन्हें जहाँ कहीं भी जरा सी आड़ मिल जाती है छिप बैठते हैं। अनेकों चोर, उठाई-गीरे, डाकू, हत्यारे ठग, दुराचारी, व्यसनी, नशे बाज एवं हरामखोर मनुष्य कानूनी पकड़ तथा जनता की आँखों से बचने के लिए पवित्र साधु वेश में आ छिपते हैं और इस आड़ में बैठे बैठे मौज करते रहते हैं। खुराफाती दिमागों में यह विशेषता होती है कि वे चुप नहीं बैठ सकते। गुलछर्रे उड़ाने के लिए उनका दिमाग कोई न कोई तरकीब ढूँढ़ निकालता है। सन्त वेश की आड़ में छिप बैठने में ही उन्हें संतोष नहीं होता वे आगे धावा बोलते हैं और जनता के भंडार से यश तथा धन की लूट मचा देते हैं।

इस लूट के लिए वे अपना प्रधान हथियार चमत्कारों को बनाते हैं। योग शास्त्रों में ऐसे वर्णन आते हैं कि योगियों को ऋषि सिद्धि प्राप्त होती हैं और वे अलौकिक चमत्कारी करतब दिखा सकते हैं, यह उक्ति न केवल पुस्तकों में वर्णित है वरन् जन साधारण में इसका विश्वास भी बहुत गहरा जमा हुआ है। इस स्थिति से लाभ उठाकर धन और यश लूटने के लिए धूर्त लोग अपने आपको पहुँचा हुआ सिद्ध साबित करने का प्रयत्न करते हैं। चूँकि उनका तप तो होता नहीं त्याग, वैराग्य, साधना और तपश्चर्या के बिना सच्ची सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकतीं। साधनामय तपश्चर्या का साहस उनमें होता नहीं, ऐसी दशा में वे धूर्तता, प्रवंचना, पाखंड, षडयन्त्र, प्रचार, जादूगरी के आधार पर सिद्ध बनने का मायाचार करते हैं। प्रलोभन से आकर्षित होकर अन्य स्वार्थी लोग भी उनके षडयंत्र में शामिल हो जाते हैं और वह गिरोह भोले भाले लोगों को लूटता खाता रहता है।

सत्य की शोध के लिए सुदूर स्थानों में जो दीर्घ कालीन पर्यटन हमने किया है उसमें जहाँ सत्पुरुष और सच्चे महात्माओं का अनुग्रह प्राप्त किया है वहाँ ऐसे धूर्त लोग भी कम नहीं मिले हैं। इन लोगों का वैभव काफी बढ़ा चढ़ा देखा है। हजारों लाखों रुपयों की गुप्त प्रकट सम्पत्तियाँ उनके पास देखी हैं। इन लोगों के रहस्यों का पता प्राप्त करना सहज काम नहीं है। भोले भाले लोग तो इनके चंगुल में ऐसे फंस जाते हैं कि जन्म भर उनसे छूट नहीं सकते। काफी सतर्कता और सूक्ष्म बुद्धि द्वारा बहुत दिन तक बारीकी के साथ निरीक्षण करने पर ही कुछ पता चल पाता है। हमें इस प्रकार के जो भेद मालूम हुए हैं पाठकों के सामने उपस्थित कर रहे हैं।

अब तक इन भेदों को हमने बहुत ही गुप्त रखा था। कारण यह था कि एक बार एक व्यक्ति से हम इन भेदों की चर्चा कर रहे थे, तो वह बहुत प्रभावित हुआ। मजाक में नहीं वरन् बहुत ही गंभीरता से उसने कहा कि—यदि आप इस प्रकार की दस पाँच विद्याएं मुझे सिखा दें तो मैं एक दो वर्ष में ही लाखों रुपया कमा सकता हूँ। उस वक्त हम चुप हो गये दूसरे दिन वह आदमी फिर हमसे बहुत गंभीरता पूर्वक मिला और अपनी पूरी योजना बना कर लाया। उसने कहा कि आप पाप पुण्य से डरते हैं तो आप अलग रहिए, मुझे वह सब बातें सिखाकर दीजिए, आमदनी का आधा भाग मैं आपको देता रहूँगा। किसी को पता भी न चल पावेगा और आप थोड़े ही दिनों में लक्षाधीश बन जावेंगे।

इस प्रस्ताव ने हमारे मस्तिष्क में एक नयी सावधानी पैदा की, वह यह कि-यदि इस प्रकार के भेदों को लोगों ने मालूम कर लिया तो धूर्त लोगों की पाँचों घी में होंगी। वे उसी रास्ते को अपना लेंगे जिसे कि उन “सिद्ध” लोगों ने अपनाया था। इस विचार ने हमें बहुत सावधान कर दिया। और यह प्रतिज्ञा करली कि कभी किसी को यह बातें न बतावेंगे। उस प्रस्ताव के करने वाले को भी हमने स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया। जिन्हें हमारी यात्राओं के वर्णन मालूम थे ऐसे निकटवर्ती मित्रों ने भी ऐसी चमत्कारी कलाएं बताने का हमसे आग्रह किया पर उन्हें भी अबतक कुछ नहीं बताया गया, अब तक ऐसे अनेकों अनुरोध समय पर टाले जाते रहते हैं। किसी पर यह भेद प्रकट नहीं किये गये।

इन धूर्तताओं के विरुद्ध दूसरी ओर हमारे मन में तीव्र घृणा एवं कड़े विरोध की भावना काम करती रही है। जिन लोगों के यहाँ यह पाखंड प्रयुक्त होते हैं, उनका समय समय पर काफी विरोध भी सब संभव उपायों से हमने किया है। यह इच्छा हमें बहुत दिनों से है कि जनता को इस दिशा में शिक्षित किया जाये ताकि वह ऐसे भ्रम और मायाचारों से बच सकें। इस संबंध में काफी समय तक गंभीर विचार करने और विज्ञ पुरुषों से सम्मति लेने पर अपने उस पूर्व निश्चय को बदलना पड़ा। गुप्त रखने से हमारे द्वारा नये जादूगर पैदा न होंगे यह ठीक है। पर जो लोग इस समय धूर्तता कर रहे हैं, या लोग अन्य मार्गों से उन बातों को सीख कर भविष्य में माया चार करेंगे उनकी रोक कैसे होगी? इस दृष्टि से विचार करने पर यह मत स्थिर किया गया कि इन रहस्यों को सार्वजनिक रूप से जनता पर प्रकट कर दिया जाय। ऐसा करने से अनेकों भोले भाले लोग सावधान हो जायेंगे और तथा कथित सिद्धों के चंगुल में फंसने से पूर्व यह देख लिया करेंगे कि वे किसी के द्वारा अनुचित रीति से ठगे तो नहीं जा रहे हैं। दूसरी ओर धूर्त लोगों का रास्ता भी बन्द होगा वे सोचेंगे कि यह सब बातें जनता पर प्रकट हो चुकी हैं, इसलिए हमारी पोल आसानी से खुल जायगी, यह भय उन्हें कुचाल छोड़ने के लिए मजबूर करेगा। इन बातों पर विचार करके यह इन पृष्ठों में वह सब बातें प्रकट की जा रही है जिन्हें अब तक हमने सावधानी के साथ छिपाये रखा था।

किन्तु किसी को इन पंक्तियों से भ्रम में न पड़ना चाहिए। योग साधनों का कोई अलौकिक फल नहीं है, या जितने भी दिव्य शक्ति सम्पन्न महात्मा हैं वे सभी धूर्त हैं, ऐसा हमारा अभिमत कदापि नहीं है। अलौकिक दिव्य पुरुष भी इस भूतल पर हैं और होते हैं। उनकी महत्ता और महिमा को कोई कम नहीं कर सकता। सत्पुरुषों दिव्य आत्माओं तथा धूर्तों में एक अन्तर स्पष्ट है उसे ध्यान में रखने से सत् असत् का निर्णय आसानी से किया जा सकता है। सत् पुरुष सरलतम होते हैं, सबको वे अपने आत्मीयों के समान प्यार करते हैं, निष्कपट और निस्पृह भाव से बात करते हैं। उनके यहाँ छिपाव की कोई बात नहीं होती। इसके विपरीत धूर्तों को अपनी माया छिपाने के लिए पग-पग पर दुराव एवं आडंबर करना पड़ता है। जहाँ दुराव एवं आडम्बर हो। पर्दा तथा भेद रखा जाता हो वहाँ सन्देह की काफी गुंजाइश होती है वहाँ सावधानी रखने की आवश्यकता होती है। पैसे का अनाप शनाप खर्च, अनावश्यक बातों की भरमार, राजसी ठाठ-बाठ, अमीरों जैसा आहार विहार, आलस्य प्रमाद की अधिकता, तत्वज्ञान की अपेक्षा मनोरंजन के समारोह, तुच्छ विषयों पर विशेष चर्चा, आत्म प्रशंसा, आदि बातें जहाँ अधिक दिखाई देती हों वहाँ समझना चाहिए कि यहाँ कुछ दाल में काल हो सकता है। वहाँ पैर फूँक-2 कर रखना चाहिए। जहाँ सादगी, सीधापन, सरलता, निष्कपटता एवं खुला दरबार हो वहाँ सच्चाई की स्थिति अधिक होती है। फिर भी दोनों ही स्थितियों में विवेक पूर्वक नीर−क्षीर को देखने की आवश्यकता है।

गत बीस वर्षों के अनुभव।

गत बीस वर्षों में भारत के लगभग सभी प्रदेशों में कई बार आध्यात्मिक खोजों के सिलसिले में हमने भ्रमण किया है। उस भ्रमण में अनेक भले बुरे अपने अपने ढंग से अनेकों विचित्र विचित्र व्यक्तियों से हमें संपर्क हुआ है। उनमें से इस अंक में केवल ऐसे व्यक्तियों की कटु स्मृतियाँ लिखी जा रही हैं, जो योग के नाम पर चालाकी से अपना दंभ पुजवाते थे। अन्य प्रकार के अनुभवों को आगे फिर कभी प्रकट करेंगे। इस अंक के लेखों का प्रयोजन यह है कि पाठक सावधान रहें और बिना परीक्षा किये किसी नकली “सिद्ध” के चंगुल में न फंसें। अब हम पाठकों के सामने अपने कुछ अनुभव उपस्थित करते हैं।

सट्टा बताने वाले पीर।

बंगाल प्रान्त के मैमनसिंह जिले में एक मुसलमान साधु की गुफा है। उन्हें सोफा पीर कहते हैं। सड़क से कोई डेढ़ मील दूर पर यह गुफा है। इन पीर साहब के बारे में दूर दूर तक यह प्रसिद्ध है कि वे जिस पर प्रसन्न हो जाते हैं उसे दड़े के ठीक नंबर बता देते हैं। कलकत्ता के आस पास दड़ा लगाने का बड़ा चलन है। मंगल और शुक्र को दड़ेबाजों के यहाँ नंबर खुलता है और जिसका दाँव आ जाता है उसे एक के बदले सौ रुपये मिलते हैं। दड़ा लगाने का प्रचार बड़े शहरों से लेकर छोटे ग्रामों तक में है। दड़े के नंबर पूछने के लिए इन पीर साहब के पास सैंकड़ों आदमियों का मेला लगा रहता है। जो भी जाता है भेंट पूजा लेकर जाता है। मेवे मिठाई और फलों का ढेर लगा रहता है। पीर साहब ने सैंकड़ों आदमियों को अब तक दड़ा बताया है ‘वे जिस पर प्रसन्न हो जाते हैं उसे निहाल कर देते हैं’ ऐसा विश्वास पीर साहब के प्रायः सभी मुरीद मन में धारण किये रहते हैं।

बड़ी कठिनता से उस मुश्किल रास्ते को पार करके हम वहाँ पहुँचे। दूर देश से आये हुए, एक प्रतिभा शाली, विद्वान्, ब्राह्मण कुमार का समाचार उनके शिष्यों ने पीर साहब को सुनाया, उन्होंने हमारे ठहरने और भोजन विश्राम की समुचित व्यवस्था कर दी। दूसरे दिन प्रातःकाल उन्होंने भेंट के लिए बुलाया। वार्तालाप करके वे मुग्ध हो गये। एकान्त वार्ता के लिए वे बहुत ही थोड़ा समय लोगों को देते हैं पर मुरीदों की प्रतीक्षा की परवा न करके दो ढाई घंटे लगातार वे हमसे बातें करते रहे। पहली ही मुलाकात में पीर साहब बहुत प्रभावित हो गये वे सोचने लगे कि यह व्यक्ति मेरा शिष्य बन जावे तो मेरी पूजा प्रतिष्ठा और मान्यता में अनेक गुनी वृद्धि हो सकती है। अपने इन विचारों को वे मन में रोक न सके दूसरे दिन उन्होंने दबे शब्दों में अपने मन की बात प्रकट कर दी और साथ ही शिष्य होने का भारी आर्थिक प्रलोभन भी दिया।

अपना उद्देश्य दूसरा था। सत्य की शोध, एवं तथ्य की जानकारी, आत्मा का कल्याण यही अपनी आकाँक्षा थी। धन, यश, या ऐश्वर्य की इच्छा से पीर साहब के पास जाने का प्रयोजन न था अभीष्ट प्राप्ति के लिए पीर साहब के पास ठहरना था। सत्य का पता लगाना था। उत्तर में उनसे इतना ही निवेदन किया कि अभी मुझे आये हुए तीन ही दिन हुए हैं। कुछ समय अपने पास रहने का और विचार करने का मुझे अवसर दें तो ही कुछ निश्चित उत्तर दे सकूँगा। पीर साहब सहमत हो गये।

अब नित्य उनके पास बैठना अपना कार्यक्रम था। सारे दिन होती रहने वाली चर्चा को एकाग्र मन से किन्तु उपेक्षित मुख मुद्रा के साथ सुनता था। कभी कभी पीर साहब को प्रसन्न करने वाली फुलझड़ियाँ बीच बीच में छोड़ देता था जिससे उनकी कृपा अपने ऊपर ज्यों की त्यों बनी रहे। करामात का रहस्य अपने को जानना था, समस्त चित्त वृत्तियाँ उसी की खोज में लगी रहतीं।

तीन सप्ताह के निरंतर सूक्ष्म पर्यवेक्षण से वास्तविकता का पता चला गया, पीर साहब के पास कोई सिद्धि न थी। वे दड़े के नम्बर पूछने के लिए आये हुए मुरीदों को मुट्ठी भर कर कोई चीज देते थे जैसे फूल, बताशे, मेवे आदि। मुरीद उन्हें चुपचाप गिनते और वही संख्या मान लेते। कभी-2 कुछ गिनती सूचक वाक्य भी कहते रहते जैसे “सारंगपुर यहाँ से तेतीस मील है। एक दिन यहाँ से सत्रह हिरनों का झुण्ड निकला था, यह शाल पचपन रुपये की होगी।” आदि-आदि। बैठे हुए व्यक्ति उन अंकों से दड़े के नंबरों का अर्थ निकालते थे और दाव लगाते थे।

पीर साहब इस बात का ध्यान रखते थे कि लोगों को भिन्न-भिन्न नम्बरों का संकेत किया जावे। दड़े में एक से लेकर सौ तक नंबर आते हैं। मन लीजिए पाँच सौ दर्शक आये। उनको अलग अलग नंबर बताये। पाँच सौ व्यक्तियों को सौ नंबर अलग-2 बताये जावें तो पाँच आदमियों का एक नंबर होगा जो भी नंबर खुलेगा वह प्रतिदिन पाँच व्यक्तियों को जरूर बताया गया होगा। इस प्रकार सात दिन में कम से कम 35 आदमियों का नंबर जरूर ठीक निकलेगा। वे पैंतीस आदमी भविष्य में अधिक लाभ की आशा से पीर साहब की भरपेट प्रशंसा करते और उन्हें भेंट पूजते चढ़ाते। उन पैंतीस आदमियों की सफलता का ढोल चारों ओर पिट जाता। शिष्य लोग तिल का ताड़ बनाते पैंतीस की जगह पर तीन सौ गिना देना उनके बाएं हाथ का काम है। लोगों को मिला पाँच सौ बताये दस हजार। इस प्रकार उस अज्ञ समुदाय में तिल का ताड़ बनाने वाली गप्पे फैला दी जातीं। और पीर साहब की मानता दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जाती। दूर दूर से बंबई कलकत्ता, कराची, मद्रास तक के सटोरिये, दड़े बाज, तेजीमंदी , दड़ा सट्टा, फीचर लाटरी आदि के पहुँचते। उनके पट्ट शिष्य ऐसे लोगों के कान भरने, पट्टी पढ़ाने, प्रभावित करने और अच्छी भेंट पूजा पाने में बड़े चतुर थे। दिन भर चाँदी कटती रहती। शिष्य लोगों के पौबारह रहते।

जिन अधिकाँश लोगों के पैसे व्यर्थ ही डूब जाते कुछ न मिलता वे बेचारे पेट मरोड़ कर चुप हो जाते। भाग्य का फेर, बुरे दिन, पीर साहब की सेवा पूजा में कमी आदि अनेकों कारण असफलता के सोच लेते। और फिर उसी आशा तृष्णा में भटकते रहते। “शायद अब की बार हमें मिले” इसी आशा में सैंकड़ों लोग वर्षों से उलझे हुए थे काफी नुकसान उठा चुके थे। पर अपने दुर्भाग्य की बात किसी से कहने का उनमें साहस न होता था। दड़े के व्यापारी पीर साहब की कृपा से मालामाल हो रहे थे नये नये अड्डे खुलते जाते थे। पीर साहब की महिमा बढ़ाने और प्रशंसा करने के लिए उन लोगों ने वेतन भोगी एजेन्ट रख छोड़े थे जो दूर दूर तक पीर जी की प्रशंसा करके नये ‘दाव लगाने वाले’ तैयार करते थे। इस वृद्धि से दड़े के व्यापारी मालामाल हो रहे थे।

यह सब दृश्य देखकर अपनी आत्मा तिलमिलाने लगी, जनता का मूल्यवान समय, हजारों रुपया प्रतिदिन नष्ट होता था, जुआ खोरी की शैतानी आदत बढ़ती थी, मिथ्या भ्रम और पाखंड फैलता है। अपना उद्देश्य सत्य की शोध था, यहाँ शैतान का साम्राज्य छाया हुआ था। एक दिन अस्वस्थता का बहाना करके बिस्तर बगल में दबा कर वहाँ से चल दिया। पीर जी को एक अच्छा शिष्य हाथ से निकलने का दुख हुआ। उन्होंने फिर आने का आग्रह करते हुए विदा दी। मैं दड़ा बताने की करामात को नमस्कार करके आगे के लिए चल दिया।

सोना बनाने वाले सिद्ध।

चंपारन जिले में एक ऐसे महात्मा का नाम सुना था जो सोना बनाने की विद्या जानते हैं। उनके बारे में यह कहा जाता है कि वे किसी से माँगते कुछ नहीं जब शिष्य मंडली के तथा अपने खर्च के लिए रुपयों की जरूरत पड़ती है तो थोड़ा सा सोना बना लेते हैं और इस सोने को बाजार में भेज कर बिकवा देते हैं। उसी रुपये से उनका सब काम चलता है। ढूंढ़ते-2 हम इन सिद्धजी महाराज के पास पहुँचे। देखने में वे तेजस्वी थे। भरा हुआ चेहरा, चमकीली आँखें। उठा हुआ शरीर, घनी दाढ़ी और जटाओं के बीच बड़ा सुहावना मालूम पड़ता था। उनकी जमात में कोई आठ दस उनके निजी शिष्य थे, दस बारह बाहर के सेवक उनके साथ थे, मैं भी इसी जमात में शामिल हो गया। अपनी विद्या, वाक् पटुता एवं व्यवहार कुशलता से वे लोग थोड़ी ही देर में प्रभावित हो गये और खुशी खुशी अपने साथ रख लिया।

इन सभी लोगों का रहन-सहन काफी खर्चीला था। भोजन में मेवे मिठाई दूध, रबड़ी भाँग, ठंडाई की धूम रहती थी। दोनों वक्त भंग छनती थी जिसमें 20 रु. प्रतिदिन से कम का खर्च न होता होगा। जमात के हर आदमी के ऊपर दो तीन रुपया रोज से कम का खाने का खर्च न था। गाँजा और चरस की चिलमें बराबर चलती रहतीं। इस जमात में कभी कोई सामूहिक सत्संग या वार्तालाप होते हमने न देखा वरन् बराबर कानाफूसी होती रहती। कोई किसी को अलग बुला कर कान पर मुँह रख कर घुसपुसाता कोई किसी के कान में बात करता। दिन भर गुप्त मंत्रणाएं होती रहतीं।

एक दो दिन रहने के बाद ही सभी लोगों से अपनी आत्मीयता बढ़ने लगी और उन गुप्त मंत्रणाओं एवं कानाफूसियों के लिए हमें भी पात्र मान लिया गया। पहले दिन हमने समझा था कि सोना बनाने के रहस्यों के वैज्ञानिक भेदों पर यह लोग विवेचना करते होंगे, इसलिए इनकी वार्ता में प्रवेश पाने के लिए हमें अत्यधिक चतुरता पूर्ण प्रयत्न करने पड़ेंगे। पर दूसरे दिन यह भ्रम दूर हो गया। इस गुप्त बात-चीत का विषय केवल महात्मा की प्रशंसा तथा उनके सोना बनाने की योग्यता की पुष्टि करना था। यह वार्ताएं प्रमुख शिष्यों द्वारा प्रचलित की जाती थीं। वे ऐसी घटनाएं, कथा रूप में गढ़ते थे जिनमें यह बताया जाता था कि इन सिद्धजी ने अमुक बार इस प्रकार इतना सोना बनाकर अमुक शिष्य को दिया था। अमुक दिन इतना सोना बनाया था। उस दिन बनाने में जो चीजें डाली थीं उसमें से अमुक को तो हम जानते हैं अमुक रंग की दवा का नाम मालूम नहीं। इन महात्मा के गुरुजी और भी अधिक पहुँचे हुए थे। वे चिलम के छेद में ताँबे के पैसे की रोक रखते थे और ऊपर से एक बूँटी गाँजे की तरह रख कर चिलम पीते थे, बस इतने में ही ताँबे का पैसा सोने का हो जाता था। उस सोने के पैसे को गुरुजी उसी भगत को दे आते थे जिसके यहाँ आतिथ्य स्वीकार करते थे। यह वर्तमान गुरुजी उतने पहुँचे हुए नहीं हैं, इनको सोना बनाने में बहुत सामान इकट्ठा करना पड़ता है तब कहीं कार्य पूरा होता है। ऐसी ही अनेक बातें उस कानाफूसी का विषय होती थीं।

सिद्धजी के एक शिष्य ने कानाफूसी करते हुए मुझसे कई बातें कहीं। उसने बताया कि (1) कलकत्ता के अमुक सेठ को महात्माजी ने यह विद्या सिखा दी है वह अरबों खरबों रुपये का लाभ कर चुका है। (2) एक बार बम्बई का अमुक सेठ दीवालिया होने जा रहा था वह दौड़ा हुआ आया और महात्मा जी के चरणों पर गिर कर लाज बचाने की बात कही। महात्माजी ने दया करके उस सेठ को बीस लाख रुपये का सोना बना कर दिया और शर्त करा ली कि इस समय तो अपना काम चला ले पर बाद में इस रुपये को धर्म कार्य में लगावें। प्रतिज्ञा के अनुसार वह सेठ अब तक बराबर इतने रुपये साल का सदावर्त साधु महात्माओं को बाँटता है। (3) मद्रास प्रान्त में एक बड़ा भारी मन्दिर बन रहा है जिसका खर्च इन महात्माजी ने ही दिया है। (4) यह महात्मा जी अब तक कई आदमियों को यह विद्या सिखा चुके हैं पर साथ ही यह कह देते हैं कि यदि उसने किसी को बताई तो उसी क्षण उसकी मृत्यु हो जायगी। एक आदमी की प्रतिज्ञा तोड़ने पर तुरन्त मृत्यु हो भी चुकी है। (5) महात्माओं से इस विद्या को वही ले सकता है जो उनको पूरी तरह से प्रसन्न कर ले। प्रसन्न करने के लिए तन मन धन से सेवा करनी चाहिए। जब वे पूरी भक्ति देख लेते हैं तभी प्रसन्न होते हैं।

यह बातें इस ढंग से कही गई थीं मानो वह व्यक्ति हमारा बड़ा हितैषी हो और हमारे लाभ के लिए हमारी अभीष्ट पूर्ति में सहायक बनने के लिए कह रहा हो। इन्हीं बातों को वे शिष्य लोग बाहरी आगत व्यक्तियों में गुपचुप रूप से फैलाते थे। वे आगत व्यक्ति अन्य आगत व्यक्तियों से कहते थे। इस प्रकार अनेकों मुखों से गुप्त रूप से एक ही बात की पुष्टि होते देखकर नये व्यक्ति के मन में पूरा और पक्का विश्वास बैठ जाता था कि यहाँ सोना अवश्य ही बनाया जाता है। और प्रयत्न करने पर मुझे भी वह विद्या प्राप्त हो सकती है। यह विश्वास मन में बैठ जाने पर वह व्यक्ति बड़ी से बड़ी कुर्बानी करने को तैयार हो जाता था। बिना परिश्रम लाखों करोड़ों रुपये पाने का लोभ साधारण लोभ नहीं है इतने बड़े लाभ के लिए मनुष्य सहज ही अपना बहुत सा समय और धन खर्च करने को तैयार हो जाता है। लोभ से आतुर हुए मनुष्य की विवेक बुद्धि कुँठित हो जाती है, वह तर्क वितर्क करके वास्तविकता का परीक्षण करने में असमर्थ हो जाती है। इन कानाफूसी के प्रचार और षडयंत्र की वास्तविकता को न समझने वाले अनेकों आँख के अंधे और गाँठ के पूरे मनुष्य वहाँ पहुँचते थे और अपना पैसा महात्माजी को प्रसन्न करने के लिए होली की तरह फूँकते थे। भक्त मण्डली में होड़ लगी रहती थी कि देखें कौन अधिक खर्च करे। इस होड़ाहोड़ी में एक से एक बढ़िया राजसी आहार विहार के ठाठ-बाठ वहाँ जमा होते थे।

विश्वास और अविश्वास की भावनाएं मेरे मन में द्वन्द्व मचा रही थीं। यदि सोना बनाना इन्हें आता है तो यह विद्या मुझे भी प्राप्त करनी चाहिए। यह लोभ अपने लिए भी कम न था, घर से ब्रह्म परायण होने निकले थे पर इस तथाकथित ‘सोने की खान’ में वह इच्छा धुँधली पड़ गई। यदि यह विद्या मिल गई तो धन की प्रचुरता होने पर कैसे बड़े बड़े काम करेंगे, ऐसी कल्पनाएं इतने विशाल आकार में उत्पन्न होने लगीं जिनके पैर जमीन पर थे तो शिर आकाश में। इस सोने की खान में सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से अपनी समस्त चतुराई जागरुकता को एकत्रित करके कार्य करने लगा।

उस अवसर की बड़ी प्रतीक्षा था जब महात्मा जी सोना बनावें और अपनी आँखों उसे बनता देखकर कम से कम यह विश्वास कर सकूँ कि इनके पास यह विद्या वास्तव में है या नहीं। ऐसे अवसर दो चार महीने में कहीं एक बार आते थे। मुझे तीन महीने वहीं ठहरना पड़ा, तब कहीं एक अवसर ऐसा आया। पारा, हड़ताल, ताँबा, गंधक तथा अन्य कुछ जड़ी बूटियाँ जमा की गई। एक गुप्त स्थान पर भट्टी तैयार की गई। वह चीजें कढ़ाई में डालकर आग जला दी गई। मसाले पकते रहे, कुछ देर बाद हम सबको हटा दिया गया और महात्माजी तथा उनके प्रधान शिष्य कढ़ाई में कुछ उलट पलट करते रहे, कुछ चीजें उसमें डालते तथा निकालते रहे ऐसा हमने दूर स्थान से देखा। डडडड को सबके सामने कढ़ाई उतारी गई। करीब तीन तोले सोना निकला। दूसरे दिन उसे बेचने बाजार भेज दिया गया। जो बेचने गया था उसने करीब 100 रु. सोने का मूल्य महात्माजी के सामने रख दिया।

इस क्रिया को देखकर अन्य श्रद्धालु भक्तों के मन में महात्माजी के लिए अनेक गुनी श्रद्धा उमड़ पड़ी। उस श्रद्धा के जोश में जो छिद्र और सन्देह थे वे उनकी दृष्टि तक पहुँचते ही न थे। पर अपने मन में न तो अन्धश्रद्धा थी और सन्देहों के प्रति उपेक्षा भाव। दृष्टि दौड़ाने पर सन्देह हुआ कि जब हम लोगों को हटाया गया था तब ताँबा निकाल कर सोना डाल दिया गया होगा। पर निश्चय न हुआ कि वास्तविकता क्या है। निर्णय पर पहुँचने के लिए उनके प्रधान शिष्य से घनिष्ठता स्थापित की गई। वह लड़का कोई इक्कीस बाईस वर्ष का था दस वर्ष से महात्माजी की सेवा में था, उनकी सभी गुप्त प्रकट बातों से भली भाँति परिचित था। मैंने ताड़ने की कोशिश की कि इसे किस प्रकार अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है। लड़का तरुणाई में प्रवेश हो रहा था, उसके चेहरे और हाव भावों से प्रकट होता था कि काम वासनाएं उसे बुरी तरह बेचैन किये हुए हैं। उसकी इस कमजोरी को ताड़कर मैंने एक दिन एकान्त में लेजाकर चुपके से उससे कहा कि आप चाहें तो मैं एक अत्यन्त स्वरूप तरुणी से विवाह करा सकता हूँ। पहले तो वह चौंका, पर पीछे अपनी नेक नीयती, उसे प्रति अपने प्रेम एवं विश्वास प्रकट करने पर वह तैयार हो गया। पहली बार कहने पर उसे भय था कि मेरे मन की बात प्रकट हो जाने पर महात्माजी की कृपा और यहाँ के ऐश आराम से हाथ धोना पड़ेगा। पर पीछे जब उसे मन में कुहराम मचाने वाली कामेच्छा को तृप्त करने का लोभ सामने आया तो उसके आगे वह शिष्यता का वैभव तुच्छ जँचने लगा। विवाह का प्रलोभन देने वाला मैं, उसे देवता सा जंचने लगा। वह मुझे प्रसन्न करके मेरी सहायता से सुन्दरी वधू प्राप्त करने के लिए छाया की तरह पीछे पीछे फिरने लगा।

तीर निशाने पर लगा। उस प्रमुख शिष्य से आत्मीयता गाँठ लेने पर हम दोनों में अपनी अपनी अन्तरंग बातों को कहने सुनने का क्रम चलने लगा। एक दिन मैंने उससे महात्माजी के सोना बनाने का रहस्य पूछा। पुरानी आदत के अनुसार पहले तो वह कुछ झिझका पर पीछे हमारे प्रोत्साहन देने पर उसने सारा भेद प्रकट कर दिया। उसने बताया कि महात्माजी सोना बनाना बिलकुल नहीं जानते, बाजार से सोना मँगाकर उसे ही कढ़ाई में डाल देते हैं और ताँबे को सफाई के साथ निकाल लेते हैं। हम लोग ऐश आराम पाने के लिए नवागंतुकों की प्रशंसा करके, एवं कल्पित घटनाएं बना कर प्रभावित किया करते हैं। नये आदमी वर्ष दो वर्ष सेवा टहल करते और धन लुटाते हैं। परन्तु उन्हें बताया कुछ नहीं जाता मंत्र सिद्धि बूटी की तलाश, आदि बहाने करके उन्हें लटकाये रखा जाता है, गुप्त बातें, अधिक लाभ की बातें, कानों कान खूब फैलती हैं, इसलिए जहाँ पुराने भक्त टूटते हैं वहाँ नये भक्त आते हैं। इस प्रकार यह ढर्रा चलता रहता है, महात्माजी को प्रतिष्ठा, पूजा, यश और ऐश्वर्य मिलता है उनके सहारे हम लोग चैन की छानते और मस्त रहते हैं, यही सोना बनाने का रहस्य है।

यह अत्यन्त विश्वस्त गवाही थी इसके बाद और कुछ सबूत लेने की आवश्यकता न थी। उस प्रधान शिष्य को साथ लेकर सोना बनाने वाले महात्मा को नमस्कार करके मैं चल दिया। चलते समय उपस्थित लोगों से भंडाफोड़ भी किया पर अन्ध श्रद्धा के तूफान में हमारा विरोध तिनके की तरह बह गया और किसी ने मेरी बात पर विश्वास न किया। उलटा नास्तिक करार दिया गया। उस प्रधान शिष्य का अपने वचनानुसार विवाह कराके और एक कमाऊ धंधे में लगाकर आगे चल दिया।

त्रिकालदर्शी शाक्त।

भरतपुर रियासत के एक गाँव में देवी के मठ पर एक ताँत्रिक महोदय रहते थे, जिनके बारे में दूर दूर तक यह प्रसिद्ध है कि उन्होंने देवी को सिद्ध कर लिया है। भगवती दुर्गा उन पर प्रसन्न हैं और उन्होंने त्रिकाल दर्शी होने का वरदान दिया है। जो भी आदमी उनके पास जाता है उसके मन की बात जान लेते हैं और जो बात पूछने की इच्छा से कोई मनुष्य उनके पास जाता है उसे बिना कुछ पूछे ही सब बातें बता देते हैं। इन शाक्त सिद्ध की कीर्ति दूर दूर तक फैल रही थी। उनके पास दसियों आदमी रोज जाते थे और अपने बारे में बिना बताये अनेक गुप्त बातें सुनकर पूर्ण प्रभावित होकर उनके सच्चे भक्त होकर लौटते थे।

अपनी भी इच्छा उनके दर्शनों की हुई। आवश्यक सामान साथ लेकर चल दिया। रेलवे स्टेशन से कोई चार मील दूर वह देवी का मठ है। रास्ता बड़ा ऊबड़ खाबड़, जंगली और पथरीला है। इस रास्ते में सिंह तो नहीं पर भेड़िये और बाघ प्रायः मिलते हैं। इसलिए अकेला आदमी प्रायः ठिठकता है और यह देखता है कि कोई साथी उधर जाने वाला मिले तो चलें। कारण कि लुटेरों का, हिंसक पशुओं का, तथा छोटी पगडंडियों के बीच रास्ता भूल जाने का भय बना रहता है। स्टेशन के बाहर साथी की प्रतीक्षा में बैठा हुआ, इधर उधर देख रहा था कि एक सज्जन कंधे पर मोटी लाठी रखे, बगल में एक गठरी दबाये पास में आ खड़े हुए। मुझे बैठा देखकर ठिठक गये। और गठरी में से चिलम निकाल कर तैयार पीने की व्यवस्था करने लगे। चिलम सुलगा कर मेरी ओर बढ़ाते हुए उन्होंने मुझे भी पीने के लिए पूछा, मैंने विनय पूर्वक क्षमा माँगते हुए कहा कि मैं तमाखू नहीं पीता, मेरे मना करने पर वह मेरे समीप बैठ कर खुद धूम्रपान करने लगा।

अब बात चीत का सिलसिला शुरू हुआ। एक दूसरे ने एक दूसरे का परिचय पूछा। मालूम हुआ कि वह व्यक्ति धौलपुर रियासत का रहने वाला राजपूत है प्राइमरी स्कूल तक पढ़ा है, घर में कुछ जेवर चोरी चले गये हैं उनका पता पूछने शाक्त महोदय के पास जा रहे हैं। यह जानकर मुझे प्रसन्नता हुई। साथ मिल गया। वह पहले भी देवी के मठ पर कई बार जा चुका है, रास्ता उसका भली भाँति देखा हुआ है यह जानकर और भी अधिक तसल्ली हुई। हम दोनों साथ-साथ चल दिये।

वह आदमी था तो देहाती पर बातचीत में बड़ा निपुण था। मीठी जबान, हमदर्दी से भरी हुई बोलचाल बरबस दूसरों का मन अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी। हम दोनों साथ-साथ चले जा रहे थे, वह आप बीती अनेकों बातें सुनाता जा रहा था, उसकी चोरी कैसे हुई, किस पर उसका शुबा है, आदि बातें उसने कहीं। उसकी बातें करीब एक डेढ़ घंटे चलती रहीं इतनी देर में हम प्रायः दो ढाई कोस चल चुके थे। दोपहर हो चली थी गर्मी के दिन थे, छाया दार पीपल के पेड़ के नीचे कुआं था, उसने गठरी में से लोटा और डोरी निकाल कर पानी खींचा, हम दोनों पानी पीकर पेड़ के शीतल छाया में सुस्ताने के लिए थोड़ी देर बैठ गये।

अब हमारे साथी ने बात चीत का क्रम बदला, उसने अपनी कहने की बजाय हमारी बातें पूछनी आरंभ कीं। वह मुस्कराहट, आत्मीयता और उत्सुकता के साथ ऐसी मुद्रा के साथ मेरा परिचय एवं आने का कारण पूछने लगा। न बताना शिष्टाचार के नाते ठीक न था। सही बातें बताना मैं चाहता न था क्योंकि मेरा परिचय और आने का कारण दोनों ही बड़े विचित्र थे। उसे समझने में उसे काफी कठिनाई पड़ती और मुझे बहुत माथा पच्ची करनी पड़ती। पीछा छुड़ाने के लिए मैंने यों ही अंटशंट बातें बताई। कहा मैं अलीगढ़ का रहने वाला गौड़ ब्राह्मण हूँ नाम मेरा रामचन्द है। एक मुकदमा लग गया है उसकी बात पूछने आया हूँ। मुकदमे की बारीकियों के बारे में उसने अनेक प्रश्न पूछे—किस विषय का मुकदमा है, किस अदालत में है मुद्दाअलह कौन है, आपका वकील कौन है, गवाह कौन-कौन हो चुके हैं, आदि इसी प्रकार मेरे व्यक्तिगत, पारिवारिक, व्यावसायिक जानकारी के संबंध में अनेकों बातें पूछीं। मैं मन ही मन इस अकारण की जिरह से खीज रहा था पर शिष्टाचार के कारण उसे उलटे सीधे उत्तर देता चलता था। उस प्रकार चलते चलते हम लोग दोपहर ढलने तक मठ पर जा पहुँचे।

मठ की बगल में एक बड़ा सा पक्का दालान बन रहा था, सामने चबूतरा था, चबूतरे पर पीपल का छायादार पेड़, पेड़ से थोड़ा हट कर कुँआ था। जंगल में यह स्थान बहुत भला मालूम पड़ता था। उस दालान में हम लोग ठहर गये। पूछने पर पता चला कि शाक्त महोदय दिन रात म
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