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Magazine - Year 1947 - Version 2

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पूर्ण शान्ति की प्राप्ति

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(ले.-श्री राल्फ वाल्टडी ट्राईन)

जिस क्षण हम भगवान् के साथ अपनी एकता, सगर सत्ता का अनुभव करना प्रारम्भ कर देते हैं, उसी क्षण हमारे हृदय में शान्ति का स्रोत बहने लगता है। अपने को सदा सुन्दर, स्वस्थ, पवित्र, आध्यात्मिक विचारों से ओतप्रोत रखना, वस्तुतः जीवन और शान्ति की प्राप्ति है। इस सत्य को सदा अपने हृदय-पट पर अंकित करना कि “मैं आत्मा हूँ भगवान् का अंश हूँ” और हमेशा ही इसी विचारधारा में उठते रहना शान्ति का मूलतत्व है। कितना करुणाजनक और आश्चर्य प्रदृश्य है कि संसार में हमें हजारों व्यक्ति चिन्तित, दुखी, शान्ति की प्राप्ति के लिए इधर-उधर भटकते हुए तथा विदेशों की खाक छानते हुए नजर आते हैं, परन्तु उन्हें शान्ति के दर्शन नहीं होते। इसमें तिलमात्र भी सन्देह नहीं कि इस प्रकार वे कदापि शान्ति नहीं प्राप्त कर सकते, चाहे वर्षों तक वे सब प्रयत्न करते रहें, क्योंकि वे शान्ति को वहाँ खोज रहे हैं, जहाँ कि इसका सर्वथा अभाव है। वे भोले मनुष्य बाह्य पदार्थों की ओर तृष्णा भरी निगाहों से देख रहे हैं जब कि शान्ति का चश्मा उनके अपने अन्दर बह रहा है। कस्तूरी मृग की नाभि में विद्यमान है, परन्तु मृग अज्ञानतावश उसे खोजता फिरता है। जीवन में सच्ची शान्ति अपने अन्दर झाँकने से ही मिल सकती है।

बाह्य संसार में शान्ति नहीं, शान्ति का उद्गम स्थान तो मनुष्य की आत्मा है। आप शान्ति की खोज में चाहे भले ही जंगलों में भटकते फिरें, शारीरिक वासनाओं, इच्छाओं और आवेशों की पूर्ति को ही शान्ति समझते रहें, तथा बाह्य पदार्थों की प्राप्ति द्वारा शान्ति का दिव्य आनन्द उपभोग करना चाहें पर सच जानिए, सच्ची शान्ति के दर्शन आपको नहीं होंगे। परन्तु इस सबसे मेरा यह तात्पर्य कभी नहीं कि आदमी को अपनी इच्छाओं, शारीरिक आवेशों और लालसाओं की पूर्ति करनी ही नहीं चाहिए, अपितु इन शारीरिक इच्छाओं और आवेशों की पूर्ति उस सीमा तक मनुष्य को करनी चाहिए, जहाँ तक यह हमारे स्वास्थ्य को कायम रखने में आवश्यक है। दिन रात इन्हीं आवेशों की पूर्ति में लगा रहने वाला व्यक्ति असन्तोष, चिन्ता और उदासी की काली छाया से घिरा होता है। सुन्दर, स्वस्थ जीवन बिताने के लिए शारीरिक आवेशों की पूर्ति नितान्त आवश्यक है, परन्तु सबसे बड़ी आवश्यकता है अपने मन पर नियन्त्रण की, मन को इन्द्रियों का दास नहीं अपितु उनका स्वामी बनना चाहिए।

शान्ति की प्राप्ति में बच्चों की सी स्वाभाविक सरलता और हृदय की निष्कपटता नितान्त आवश्यकता है। सन्त-महात्माओं की समुन्नति का प्रधान कारण यही सरल-हृदयता है, उनका मानसरोवर सदा स्फटिक की नाई शुद्ध रहता है और उनमें प्रेम, पवित्रता और प्रकाश के पुष्प प्रफुल्लित रहते हैं। जिस प्रकार एक बच्चा पूर्णरूपेण अपने को पिता के प्रति समर्पित कर देता है, अपने हृदय की कोई भी बात उससे गुप्त नहीं रखता, ठीक इसी प्रकार सन्त जन अपना भगवान् के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण कर देते हैं।

जो भगवान् के साथ अपनी एकता अनुभव करना प्रारम्भ कर देते हैं, वे सर्वथा निर्भय हो जाते हैं और सदा ऐसा प्रतीत होता है कि मंगलमय भगवान स्वयं उनकी रक्षा के लिए कटिबद्ध हैं। सच्चे सन्त अगर डरते हैं तो केवल भगवान् से। संसार की अन्य कोई भी ताकत उनकी आवाज को दबा नहीं सकती संसार की समस्त शक्तियाँ यदि एक ओर हो जाएं तब भी वे पराभूत नहीं किये जा सकते। इस असीम साहस और निर्भयता का स्रोत भगवान् ही हैं। जिन सन्त महात्माओं के जीवन में बिल्कुल समता की दृष्टि आ जाती है, पशु पक्षी तक भी उन्हें स्नेह की दृष्टि से देखने लगते हैं। किसी वस्तु से डरने का तात्पर्य यही है कि हम उसके साथ अपनी एकता अनुभव नहीं करते और और उसमें सत्य सनातन भगवान का अंश नहीं देखते।

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