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Magazine - Year 1949 - Version 2

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प्रकृति का आश्रय लेने से ही आरोग्यता प्राप्त होगी।

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आज तक संसार में जितनी चिकित्सा प्रणालियाँ हैं, उनके मूल में दो प्रवृत्तियां कार्य करती हैं। इन सभी अनुसंधानों का अध्ययन हम दो विभागों के अंतर्गत कर सकते हैं। एक तो यह कि मनुष्य को, जैसा कि प्रकृति चाहती है, पूर्ण स्वस्थ, निरोग, पुष्ट, दीर्घजीवी, उन्मुक्त किस प्रकार रखा जाय, अर्थात् स्वास्थ्य के संरक्षण के लिए किन-2 प्राकृतिक नियमों का पालन करना चाहिये। इस विभाग के अंतर्गत उन प्राकृतिक नियमों का प्रतिपादन किया जाता है जिनसे मनुष्य प्रकृति के निकट आता है और साहचर्य द्वारा पूर्ण स्वस्थ रहता है। नियम यह है कि प्रकृति से हम जितनी दूर जायेंगे। अर्थात् प्रकृति नियमों का अतिक्रमण करेंगे, उतने ही रोगी दुःखी और दीन हीन होंगे। जितने ही प्रकृति के समीप रहेंगे, प्राकृतिक नियमों का पालन करेंगे, उतने ही स्वस्थ रहेंगे। प्रकृति के समीप रहना हमारा आदर्श है।

दूसरा विभाग है रोगी का निवारण। प्रकृति के नियमों की अवहेलना करने से यदि हम रोगी हों जायें, तो पुनः किस प्रकार स्वास्थ्य लाभ करें? इसका उत्तर होगा कि हम पुनः प्राकृतिक नियमों का पालन करने लगें, दूरी छोड़कर पुनः प्रकृति के समीप आयें। सभी चिकित्सा प्रणालियाँ किसी न किसी रूप में प्रकृति के समीप आने की चेष्टा करती है। इस अंक में पृथक-2 हमने दोनों उद्देश्यों पर विचार किया है।

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