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Magazine - Year 1949 - Version 2

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अनीति से धन मत जोड़िए।

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(श्रीमती ब्रह्मवती देवी, वारा)

आज सर्वत्र अशाँति ही अशाँति विराजमान है। संसार में जितने भी झगड़े फैले हैं उसका एक मात्र कारण अन्याय से दूसरों का अधिकार लेना है। चोरी, ठगी, दुराचार, शोषण, अन्याय, दूसरों की कमाई हुई सम्पत्ति का अपहरण करना अन्याय है और अन्याय से धन जोड़ने से ही समस्त प्रकार के संघर्ष होते हैं। किसी भी प्रकार धन प्राप्त करने के नशे ने ही प्रत्येक देश, जाति परिवार को ऐसा मतवाला बना रखा है। जिसके परिणाम स्वरूप सर्वत्र कलह का साम्राज्य स्थापित है। सब अपनी-2 स्वार्थ सिद्धि में चिंतित रहते हैं। भाई ही भाई को सर्वनाश के लिए उद्यत है। परिवार का सारा सुख नर्क के रूप में परिणित हो जाता है कोई भाग्यवान परिवार की शायद इस दुख से मुक्त हो। प्रायः यह देखा जाता है कि मनुष्य के पास पर्याप्त धन होने पर भी उसकी तृष्णा एवं लोलुपता बढ़ती ही जाती है और वह उस तृष्णा के वशीभूत होकर धनोपार्जन की अभिलाषा से सहस्रों प्रकार के पाप करने में भी नहीं हिचकिचाता। इस प्रकार वह अपने को पापी बना लेता है।

प्रतिक्षण धन में ही अपने को लिप्त बनाये रखना और धनाढ्य बनना अपना परम कर्त्तव्य समझता है। धन-उपयोग की वस्तुएं अधिकाधिक रूप से निरंतर ऐसी प्रबल होती जाती हैं कि मनुष्य को चैन नहीं लेने देतीं। जिस आनन्द की अभिलाषा में वह धन एकत्रित करता है वह आनन्द क्षणिक समय के लिए प्राप्त होता है। अन्याय से एकत्रित किये धन से इस संसार में कोई भी व्यक्ति सुखी नहीं देखे गए हैं।

अनीति से संचय किया हुआ धन कभी आनन्ददायक नहीं होता। वह बुरी तरह नष्ट हो जाता है। उसके नष्ट होने पर लोग रोते हैं, सिर धुनते हैं यहाँ तक कि पागल भी हो जाते हैं, परन्तु फिर भी अपनी भूलों को स्वीकार नहीं करते। यदि वे यह समझने लगें कि मेरा संचित किया हुआ धन नष्ट होने पर मुझे जैसा दुख हो रहा है वैसे ही जिसके धन को मैंने अनाधिकार से ग्रहण किया उसे भी होता होगा तो वह अपहरण का अन्याय करने को तत्पर नहीं हो सकता। जब तक मनुष्य में इस प्रकार के आत्म भाव की कमी रहेगी वह कमी भी वास्तविक उन्नति के शिखर पर नहीं चढ़ सकता।

अपार धन का स्वामी होने पर भी कोई सुख ओर शाँति नहीं प्राप्त कर सकता। कहीं अनाचार और अत्याचार से एकत्रित किये हुए धन से कोई सुखी भी रहा है?

जिन व्यक्तियों के कर्म शुभ हैं और जिनका लक्ष्य उत्तम है वह अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति त्याग देने पर भी दुखी नहीं होते। उनके सुख की सामग्री सर्वथा एकत्रित ही रहेगी। महात्मा गाँधी, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर आदि महापुरुषों ने अपनी सब सम्पदा त्याग दी थी, फिर भी उन्हें निर्धनता का दुख नहीं भोगना पड़ा। सत्पुरुषों के पास अन्य आत्मिक सम्पत्तियाँ इतनी एकत्रित हो जाती है कि उन्हें थोड़े साधनों से भी अमीरों से अधिक सुख प्राप्त होता रहता है।

स्मरण रखिए वही धन फलीभूत होगा, वही सुख अशाँति की वृद्धि करेगा जो परिश्रम एवं ईमानदारी से, उचित प्रयत्नों द्वारा, प्राप्त किया जाता है। अन्यायोपार्जित धन चाहे कितनी ही जल्दी कितनी ही अधिक मात्र में एकत्रित क्यों न हो जाय पर उससे रोग, शोक, चोरी, विपत्ति, राजदंड, हानि आदि का ही कुयोग जमेगा और वह धन अनेक प्रकार के दुख देता हुआ नष्ट होगा।

वर्ष-10 संपादक-श्रीराम शर्मा आचार्य अंक-6

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