
हमारा महान शत्रु-आलस्य।
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(ले.- श्री अगरचन्दजी नाहटा, बीकानेर)
किसी भी कार्य की सिद्धि में आलस्य सबसे बड़ा बाधक है, उत्साह की मन्दता प्रवृत्ति में शिथिलता लाती है। हमारे बहुत से कार्य आलस्य के कारण ही सम्पन्न नहीं हो पाते। दो मिनट के कार्य के लिए आलसी व्यक्ति फिर करूंगा, कल करूंगा-करते-करते लम्बा समय यों ही बिता देता है। बहुत बार आवश्यक कार्यों का भी मौका चूक जाता है और फिर केवल पछताने के आँतरिक कुछ नहीं रह जाता।
हमारे जीवन का बहुत बड़ा भाग आलस्य में ही बीतता है अन्यथा उतने समय में कार्य तत्पर रहे तो कल्पना से अधिक कार्य-सिद्धि हो सकती है। इसका अनुभव हम प्रतिपल कार्य में संलग्न रहने वाले मनुष्यों के कार्य कलापों द्वारा भली-भाँति कर सकते हैं। बहुत बार हमें आश्चर्य होता है कि आखिर एक व्यक्ति इतना काम कब एवं कैसे कर लेता है। स्वर्गीय पिताजी के बराबर जब हम तीन भाई मिल कर भी कार्य नहीं कर पाते, तो उनकी कार्य क्षमता अनुभव कर हम विस्मय-विमुग्ध हो जाते हैं। जिन कार्यों को करते हुए हमें प्रातःकाल 9-10 बज जाते हैं, वे हमारे सो कर उठने से पहले ही कर डालते थे। जब कोई काम करना हुआ, तुरन्त काम में लग गये और उसको पूर्ण करके ही उन्होंने विश्राम किया। जो काम आज हो सकता है, उसे घंटा बाद करने की मनोवृत्ति, आलस्य की निशानी है। एक-एक कार्य हाथ में लिया और करते चले गये तो बहुत से कार्य पूर्ण कर सकेंगे, पर बहुत से काम एक साथ लेने से- किसे पहले किया जाय, इसी इतस्ततः में समय बीत जाता है और एक भी काम पूरा और ठीक से नहीं हो पाता। अतः पहली बात ध्यान में रखने की यह है कि जो कार्य आज और अभी हो सकता है, उसे कल के लिए न छोड़, तत्काल कर डालिए, कहा भी है-
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब॥
दूसरी बात ध्यान में यह रखनी है कि एक साथ अधिक कार्य हाथ में न लिये जायं, क्योंकि इससे किसी भी काम में पूरा मनोयोग एवं उत्साह नहीं रहने से सफलता नहीं मिल सकेगी। अतः एक-एक कार्य को हाथ में लिया जाय और क्रमशः सबको कर लिया जाय अन्यथा सभी कार्य अधूरे रह जायेंगे और पूरे हुए बिना कार्य का फल नहीं मिल सकता।
जैन धर्म में कार्य सिद्धि में बाधा देने वाली तेरह बातों को तेरह काठियों (रुकावट डालने वाले) की संज्ञा दी गई है। उसमें सबसे पहला काठिया ‘आलस्य’ ही है। बहुत बार बना बनाया काम तनिक से आलस्य के कारण बिगड़ जाता है। प्रातःकाल निद्रा भंग हो जाती है, पर आलस्य के कारण हम उठकर काम में नहीं लगते। इधर-उधर उलट-पुलट करते-करते काम का समय गंवा बैठते हैं। जो व्यक्ति उठकर काम में लग जाता है, वह हमारे उठने के पहले ही काम समाप्त कर लाभ उठा लेता है। दिन में भी आलसी व्यक्ति विचार में ही रह जाता है, करने वाला कमाई कर लेता है। अतः प्रति समय किसी न किसी कार्य में लगे रहना चाहिए। कहावत भी है ‘बैठे से बेगार भली’। निकम्मे आदमी में कुविचार ही घूमते हैं। अतः निकम्मेपन को हजार खराबियों की जड़ बतलाया गया है।
मानव जीवन बड़ा दुर्लभ होने से उसका प्रति क्षण अत्यन्त मूल्यवान है। जो समय जाता है, वापिस नहीं आता। प्रति समय आयु क्षीण हो रही है, न मालूम जीवन दीप कब बुझ जाय। अतः क्षण मात्र भी प्रमाद न करने का उपदेश भगवान महावीर ने दिया है। महात्मा गौतम गणधर को सम्बोधित करते हुए उन्होंने उत्तराध्ययन-सूत्र में ‘समयं गोयम मा पमायए’ आदि- बड़े सुन्दर शब्दों में उपदेश दिया है। जिसे पुनः-पुनः विचार कर प्रमाद का परिहार कर कार्य में उद्यमशील रहना परमावश्यक है। जैन दर्शन में प्रमाद निकम्मे पन के ही अर्थ में नहीं, पर समस्त पापाचरण के आसेवन के अर्थ में है। पापाचरण करके भी जीवन के बहुमूल्य समय को व्यर्थ ही न गंवाइये।
कई लोग कार्याधिक्य से घबराते हैं और आराम नहीं होने से स्वास्थ्य नष्ट होने की आशंका करते हैं, पर आलस्य के त्याग द्वारा कार्य शक्ति बहुत बढ़ाई जा सकती है। अतः अपने को अधिकाधिक कार्य कर सकने के उपयुक्त बनाने का अभ्यास डालना चाहिए।
आत्मा अनन्त शक्ति का भंडार है, पर उसका मान न होने से हम उस शक्ति का अनुभव नहीं कर पाते। बहुत बार हमारी शक्ति को काम में न लेने के कारण ही वह कुँठित हो जाती है और विधिवत उपयोग करते रहने से वह क्रमशः बढ़ती चली जाती है। हम दो-चार घंटे शारीरिक वाचिक एवं मानसिक श्रम करके थक जाते हैं, एवं विश्राम करने के लिए आतुर हो उठते हैं, पर अभ्यास के बल पर जिन्होंने अपनी शक्ति को बढ़ा लिया है, वे 16 एवं 20 घंटे तक काम करने पर भी हारते नहीं। पंडित जवाहर लाल नेहरू के कार्यों को देखिए, उनका प्रतिफल कार्य संलग्न है। तीन-चार वर्ष हुए जब नेहरू जी सिलहट पधारे थे तो देखा कि एक ही दिन में 100-150 मील के भ्रमण के साथ 10-15 कार्यक्रम थे। पर किसी को फेल न होने दिया, उनके एक-एक मिनट के समय का कार्यक्रम बँधा था। स्थान-स्थान पर भाषण देना पड़ता था, लोग उनकी कार्य-शक्ति को देख कर दंग रह जाते थे। गाँधी जी को भी कितने अधिक कार्य करने पड़ते थे, पर सब को नियमित रूप से करते थे। सैकड़ों व्यक्तियों से मिलना सबकी बातें सुनकर संतोष प्रद उत्तर देना। सैकड़ों व्यक्तियों के पत्र आते थे, उनका उत्तर देना, हरिजनादि के लिए लेख लिखना या लिखाना, प्रवचन देना, रोगियों को संभालना, चरखा कातना, शारीरिक सभी कार्य अच्छी तरह से करना, टहलने भी जाना, फिर भी सब काम समय पर निपट जाते और आज के कार्य कल पर नहीं छोड़ते। अभ्यास और नियमितता से कार्य शक्ति को बहुत बढ़ाया जा सकता है इसके यह दो ज्वलंत उदाहरण हैं।
आलस्य के कारण हम अपनी शक्ति से परिचित नहीं होते- अनन्त शक्ति का अनुभव नहीं कर पाते और शक्ति का उपयोग न कर, उसे कुँठित कर देते हैं। किसी भी यन्त्र एवं औजार का आप उपयोग करते रहते हैं तो ठीक और तेज रहता है। उपयोग न करने से पड़ा-पड़ा जंग लगकर बरबाद और निकम्मा हो जाता है। उसी प्रकार अपनी शक्तियों को नष्ट न होने देकर सतेज बनाइये। आलस्य आपका महान शत्रु है। इसको प्रवेश करने का मौका ही न दीजिए एवं पास में आ जाए तो दूर हटा दीजिए। सत्कर्मों में तो आलस्य तनिक भी न करे क्योंकि “श्रेयाँसि बहु विघ्नानि” अच्छे कामों में बहुत विघ्न जाते हैं। आलस्य करना है, तो असत् कार्यों में कीजिए, जिससे आप में सुबुद्धि उत्पन्न हो और कोई भी बुरा कार्य आप से होने ही न पावे।