
दहेज की घातक प्रथा
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(श्री राधेश्याम जी टाटिया, कलकत्ता)
लड़की के विवाह के अवसर पर दहेज देने की प्रथा हमारे देश में बहुत वर्षों से चली आती है। यह प्रथा हमारे पूर्वजों द्वारा बड़ी आदर और उत्साह से मानी जाती थी। लड़की को अपने घर विदा करते समय अपने धन का कुछ हिस्सा दहेज के रूप में दे देना वे अपना धर्म समझते थे। वे अपनी इच्छा और सामर्थ्य के अनुसार दहेज देते थे उन पर लड़के वालों की तरफ से कोई पाबन्दी नहीं होती थी। परन्तु ज्यों ज्यों समय व्यतीत होता गया, त्यों-त्यों इस प्रथा ने भीषण रूप धारण कर लिया और अब यह प्रथा सौदे के रूप में हम लोगों के सामने है। यदि लड़की वाला लड़के वाले की माँग को पूरा करने में समर्थ है तो उसकी लड़की की शादी इच्छानुसार हो सकती है। लड़के वाले की नाजायज माँग को चाहे वह कर्ज लेकर पूरा करे, चाहे अपने पूर्वज की जायदाद बेचकर पूरा करे। अगर वह उसकी माँग को पूरी करने में असमर्थ है तो उसकी लड़की की शादी इच्छानुसार नहीं हो सकती। इस तरह विवाह, जिस को हम लोग जन्म जन्मान्तर का पवित्र सम्बन्ध समझते हैं, इस तरह रुपयों और गहनों पर बिक्री होता है, अब यदि हम इसे गहनों और रुपयों का सम्बन्ध कहें तो कोई अनुचित नहीं होगा, क्योंकि इस तरह के विवाहों में लड़की और लड़के के रूप और गुण को नहीं देखा जाता है।
आजकल अपनी लड़की की शादी क्या करनी है, अपनी इज्जत और शान को बेचना है। समाज के चन्द धनीमानी व्यक्तियों को छोड़कर सबको ही अपनी लड़की के विवाह की चिन्ता लगी रहती है। घर में लड़की के पैदा होते ही घरवालों के मुँह पर विषाद की रेखा नजर आती है इस महँगाई के समय में शायद ही कोई (साधारण वर्ग और मध्यम वर्ग) अपनी आय में से खर्च के बाद दे बचा सकता है। फिर वह अपनी लड़की के विवाह के लिए कैसे उतने रुपये जमा कर सकता है, जितनी कि लड़के वाले की माँग होती है। लड़की का विवाह करना अनिवार्य होने पर भी कई मनुष्य उसका विवाह नहीं कर सके और दहेज की चिन्ता करते 2 ही दुनिया से चले गये। दहेज देने में असमर्थ होने के कारण कई मनुष्यों ने अपनी लड़की का अनमेल विवाह करना शुरू किया, जिससे बाल विधवाओं की संख्या बढ़ने लगी और इससे दुराचार भी फैलने लगा। अपनी लड़की की शादी की चिन्ता में हमारे समाज के लाखों माता-पिताओं को दिन रात आँसू बहाने पड़ने हैं और लड़कियाँ अपने यौवन काल में अपने माता-पिता को इस तरह आँसू बहाते देखकर अपने भाग्य को कोसती हैं और कभी 2 आत्म हत्या तक कर बैठती हैं।
इस विषय को सुधारने के लिए हमारे समाज में अनेक सभा, सोसाइटी और पंचायतें बनी हुई हैं, जिन पर हमारे देश का हजारों रुपया हर साल खर्च होता है, परन्तु अब तक कोई भी संस्था इस प्रथा को सुधारने में सफल नहीं हुई, क्योंकि इन संस्थाओं में सुधार के प्रस्ताव केवल कागजों तक ही बने हुए हैं, वे मनुष्यों के हृदय पर अपना अधिकार नहीं जमा सके और मनुष्य के हृदय पर प्रभाव पड़ने से ही इस प्रथा में सुधार हो सकता है।
आजकल इस प्रथा का सुधार एक विचित्र ढंग से हुआ है। आजकल बहुत से मनुष्य विवाह के अवसर पर दहेज प्रदर्शनी नहीं करते हैं, वे लड़की वालों से दहेज के रूप में एक निश्चित रूप रकम ले लेते हैं और बाहर से दुनिया को दिखाते हैं कि उन लोगों ने दहेज नहीं लिया है।
हमारे समाज के नवयुवकों का कर्तव्य है कि वे इस प्रथा का अनुशोधन करने के लिए तन-मन से चेष्टा करें। नवयुवकों के द्वारा इन कुप्रथाओं में सुधार हो सकता है। युग-युग की इस भयंकर बीमारी को, जो समाज के लाखों मनुष्यों को दिन-रात कष्ट दे रही है, नवयुवक ही नष्ट कर सकते हैं। उन्हें इसके विरुद्ध एक जबर्दस्त क्रान्ति मचानी होगी। वे अपने माता-पिता को दहेज न लेने पर बाध्य करें। नवयुवकों को चाहिए कि वे जल्दी से जल्दी इस सत्यानाशी प्रथा को रोकने की चेष्टा करें, जिससे दहेज के कोल्हू में पेली जाती हुई नारी जाति का उद्धार हो सके।