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Magazine - Year 1951 - Version 2

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आध्यात्मिकता की वास्तविकता।

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(श्री सत्यभक्त जी सम्पादक, ‘सतयुग‘)

संसार में दो प्रकार के मनुष्य पाये जाते हैं। एक वे जो साँसारिक सुख की लालसा रखते हैं और दूसरे वे जो पारलौकिक कल्याण को अधिक महत्व देते हैं। अथवा यों कहिये कि एक स्वार्थवादी होते हैं और दूसरे परमार्थवादी। आजकल की परिभाषा में यह भी कह सकते हैं कि एक शरीर को ही सब कुछ समझते हैं और दूसरे आत्मा को दृष्टिगोचर रख कर आचरण करते हैं।

हमारे भारतवर्ष के अधिकाँश लोगों का यह ख्याल है कि हम लोग संसार के सब देश वालों की अपेक्षा अधिक आध्यात्मिक हैं। हमारी निगाह में यूरोपियन, अमरीकन आदि तो घोर भौतिकवादी हैं, स्वार्थ पराण हैं, नास्तिक हैं। मुसलमानों और यहूदियों आदि को भी हम आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत नीचे दर्जे पर समझते हैं। चीनी, जापानी, रूसी आदि के विषय में हमको विशेष ज्ञान नहीं, पर यह बात हम छाती ठोक कर कह देते है कि आध्यात्मिकता के मामले में वे हमारे मुकाबले में जरा भी नहीं टिक सकते।

अगर आध्यात्मिकता का अर्थ, ईश्वर, परमात्मा परब्रह्म की चर्चा करना, भाग्य और कर्म के सिद्धांतों का निरूपण करना, पाप-पुण्य, सत्य-असत्य, हिंसा-अहिंसा आदि की मीमाँसा करना, स्नान, ध्यान, देवदर्शन, तीर्थयात्रा में अनुराग रखना, चौका-चूल्हा, शुद्धि-अशौच आदि के नियमों का पालन करना आदि बातों से ही तो हमको इस बात के मान लेने से इन्कार नहीं कि हमारे भाइयों का दावा पूर्णतः नहीं तो अनेकाँश में ठीक माना जा सकता है।

पर हमको कुछ संकोच पूर्वक कहना पड़ता है कि आध्यात्मिकता का एक दूसरा पहलू भी है। हमारी सम्पति से आध्यात्मिकता केवल अध्ययन, मनन, तथा निरूपण की चीज नहीं वरन् कार्य रूप में पालन करने की चीज है। जिस प्रकार बड़े से बड़े स्वास्थ्य संबन्धी ग्रन्थ को पढ़ कर और कण्ठस्थ करके भी हम जब तक अपना आहार विहार न सुधारें, नियमित रूप से कोई शारीरिक व्यायाम न करें, स्वच्छता और सफाई के नियमों का अच्छी तरह पालन न करें, इसी प्रकार उपनिषद्, गीता, योगवशिष्ठ के सैकड़ों पारायण भी हमको आध्यात्मिकता के निकट नहीं पहुँचा सकते अगर हम उनके उपदेशों के वास्तविक मर्म को ग्रहण न करके तद्नुसार आचरण न करें।

इस कसौटी पर जब हम अपने भाइयों को कोसते हैं तो हमको ज्यादातर हिस्से में “कैमिकल गोल्ड” ही मिलता है। ज्यादा न लिख कर हम इतना ही कहना चाहते हैं कि जहाँ हमको यूरोप आदि में कार्ल मार्क्स, क्रोपीटकिन, लेनिन, सनयात सेन और इनके साथी हजारों अन्य क्रान्तिकारी ऐसे मिलते हैं जो यद्यपि हमारी परिभाषा के अनुसार अधार्मिक हैं, नास्तिक भी हैं, फिर भी उन्होंने अपना सारा जीवन केवल लोकोपकार में लगाया और इसी के लिये अपने प्राण दे दिये। इसके विपरीत हमारे यहाँ अनगिनत ऐसे ही सज्जन मिलते हैं जो सुबह गंगाजी पर 2 घण्टे आँख बंद करके पूजन करते हैं या शाम को घण्टे भर तक भगवान की मूर्ति के सामने हाथ जोड़े खड़े रहते हैं और दिन भर लोगों को ठगने या निर्बलों को सताकर अपना मतलब गाँठने का धन्धा किया करते हैं। इनमें से अनेक भाई गीता और उपनिषदों का भी नित्य पाठ करते हैं उनका अर्थ भी समझते हैं, पर व्यवहार करते समय उनकी बातों को ताक पर उठा कर रख देते हैं।

अनेक प्रकार की दार्शनिक मान्यताएँ तथा अनेक प्रकार के कर्मकाण्ड मनुष्य के चरित्र को ऊंचा उठाने के उद्देश्य से हैं। जिस उपायों से जिन विचारों से, मनुष्य का चरित्र ऊँचा उठे, वह पारस्परिक प्रेम, सहयोग, न्याय, उदारता, सचाई एवं संयम शील बने, उन्हें ही आध्यात्म कहते हैं। आज आध्यात्मवाद की चर्चा तो बहुत होती है पर उसकी वास्तविकता का लोप हो रहा है।

हमें सच्चे आध्यात्मवाद की तलाश करनी चाहिए। तलाश करके उसे ही अपनाना चाहिए। क्योंकि हमारा व्यक्तिगत और सामूहिक कल्याण उस सच्चे आध्यात्मवाद पर ही निर्भर है। उच्च चरित्र, सदाचार एवं सर्वतोमुखी नैतिकता ही आध्यात्मवाद का प्राण है। उसकी सजावट और सुविधा के लिये पूजा पाठ के उपचार हैं। यदि प्राण निकल जाय तो देह बेकार है। इसी प्रकार उच्च नैतिकता के बिना धार्मिक कर्मकाण्डों की तरह विशेष उपयोगिता नहीं है।

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