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Magazine - Year 1952 - Version 2

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Language: HINDI
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अपने आपके साथ सद्व्यवहार

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प्रशस्त पद एवं आत्म गौरव की स्थापना करने वाले व्यक्तियों के जीवन का अध्ययन करने पर एक तत्व जो हमें सर्वत्र विद्यमान उपलब्ध है, वह है अपने सम्बन्ध में उच्च धारणाएँ, अपने मानसिक, शारीरिक या स्वास्थ्य के सम्बन्ध में हितैषी भावनाएँ। जो व्यक्ति अपने विषय में तुच्छ सम्मति रखता है और बेकदरी करता है, वह मानो ईश्वर की निन्दा करता है, क्योंकि मनुष्य ईश्वर का पुत्र है, ईश्वर का स्वरूप शरीर धारण कर पृथ्वी पर अधिष्ठित होता है, ईश्वर की समस्त विभूतियों से अलंकृत है।

मैं ईश्वर का रूप हूँ-

ईश्वर ने जब सब प्रकार के जलचर, ‘नभचर’ स्थल-चर जीवों का निर्माण किया, तो उन्होंने यह सोचा कि अब किसी ऐसे जीव की सृष्टि करनी चाहिए जो मेरा स्वरूप हो, तथा इन समस्त जीवों पर नियन्त्रण रख सके। उन्होंने अपनी आकृति का एक जीव निर्माण किया, उसमें अपनी आमोघ शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों का समावेश किया, और पृथ्वी पर राज करने के निमित्त भेज दिया। यह असंख्य शक्तियों का शक्तिपिंड, जीवों का महाराजाधिराज, सृष्टि का सिर-मौर, शक्ति का अवतार, परमेश्वर का पुत्र मनुष्य ही था। ईश्वर ने मनुष्य को अपने रूप में बनाया है, उसमें अपनी समस्त शक्तियों का समावेश किया है।

ईश्वर से उत्पत्ति होने के कारण मनुष्य का संकल्प भव्य है। उत्तमोत्तम मानसिक तथा अध्यात्मिक शक्तियों की मंजूषा उसके पास है। ईश्वरत्व का प्रतिनिधि स्वरूप होकर उसने संसार पर एकछत्र राज्य किया है। बड़े से बड़े हिंसक पशुओं, भयंकर विषैले जन्तुओं पर भी मनुष्यों का राज्य है।

जब आप ईश्वर के प्रतिनिधि हैं, सर्वोच्च विभूति के पुञ्ज हैं, तो आपको क्या अधिकार है कि अपने को दीन, हीन, या अभागा समझें? ईश्वर का अपमान आप नहीं कर सकते। ईश्वरत्व संसार की मृत क्रियात्मक शक्ति है। संसार में जो सबसे सत्य, सुन्दर, शिव हो सकता है, वह ईश्वरत्व के नाते आपके रग और पट्ठों में प्रवाहित है।

अपने साथ सद्व्यवहार सीखिये। आप दूसरों की भलाई चाहते हैं। अपने पुत्र की शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रसिद्ध, हितकामना के लिये आप एड़ी चोटी का पसीना एक कर देते हैं। पत्नी, पुत्री अन्य सम्बन्धियों के हितचिंता में निरन्तर निमग्न रहते उससे उत्कृष्ट हैं। दूसरों के हितचिंतन में रहना अच्छा है किन्तु मार्ग तो वह है, जिसके द्वारा आप स्वयं अपने विषय में हित चिंतन करते हैं।

दूसरों के साथ बुराई करने को आप पाप कहते हैं। इस दुर्व्यवहार को आप घृणा की दृष्टि में अवलोकित करते हैं। ठीक है। किन्तु जब आप स्वयं अपने ही विषय में निंद्य विचार रखते हैं, मेरे विचार में तो यह और भी जघन्य पाप कमाते हैं। दूसरों के साथ किये हुए पाप को संसार देखता है, पर आपको स्वयं अपने साथ किया हुआ पाप नजर नहीं आता। अंतर्दृष्टि से अन्तरात्मा उसे देखता है। वह कभी-कभी आपको धिक्कारता भी है, पर उसके निर्देशनों पर ध्यान न देने से वह क्षीण हो जाता है।

ईश्वर ने आपको उत्पन्न किया है, तो उन्होंने सम्पूर्ण विभूतियों सहित ही पृथ्वी पर भेजा है। जो कुछ कमी या निर्बलता तुम अपने अन्दर देखते हो, उसका उत्तरदायित्व स्वयं तुम्हीं पर है। उसका कारण अज्ञान और आलस्य है।

अपने हितैषी बनें :-

मुझे ईश्वर ने बनाया है। मैं ईश्वर का रूप हूँ। समस्त संस्थाओं की उच्चताओं का समावेश मुझमें किया गया है। मुझसे श्रेष्ठ जीव संसार में दूसरा नहीं हो सकता है। मेरा हृदय ईश्वर का मन्दिर है। उसमें सात्विक संकल्पों का ही निवास है। मेरे पाँव पवित्र स्थानों पर ही जाते हैं, मेरी जिह्वा पवित्र भाव ही उच्चारण करती है, मैं पवित्र विचारों को ही मन में स्थान देता हूँ।

यदि तुम जीवन को वास्तव में उपयोगी बनाना चाहते हो तो अपने विषय में क्षीणता और कमजोरी की भावनाएँ बहिष्कृत कर दो, अपने प्रति कर्तव्यों को समझ कर उन्हें पूर्ण करने में संलग्न हो जाओ।

वे क्या कर्तव्य हैं, जिन्हें हम पूर्ण करते चलें? सर्व प्रथम अपने शरीर की देखभाल है। अन्य वस्तुओं की भाँति शरीर भी घिसता है, टूटता है, बीमार होता है, खिदमत कराता है। टूट-फूट के पश्चात् दुरुस्ती चाहता है। जिस प्रकार आप किसी कीमती मशीन से बड़ी सतर्कता से काम लेते हैं, जरा खराब होते ही दुरुस्त कराने की भाग दौड़ करते हैं, उसी प्रकार शरीर भी है। संसार में जितनी भी मशीन हैं। उन सबसे अधिक कीमत इस मानव-शरीर की है। इसका दाम रुपये पैसों में आँका नहीं जा सकता इसे कितना भी रुपया देकर खरीद नहीं सकते। फिर, बेशकीमती मशीन के उपयोग में कितनी सावधानी की आवश्यकता है, इसे स्वयं सोच सकते हैं। शरीर वह साधन है, जिसमें संसार बनता है। इसी के माध्यम से संसार का अस्तित्व है। जिस दिन आपकी यह मशीन टूटती है, उसी दिन संसार का भी अन्त हो जाता है। महाप्रलय हो जाती है। शरीर की देख-भाल करना ही मानव का सर्व प्रथम पवित्र कर्तव्य है। मन्दिर में परमेश्वर की पूजा करते हैं, उससे आवश्यक, शरीर में आत्मा रूपी परमेश्वर का जो अंश है, उसकी पूजा है।

कुछ लोग शरीर की जो बेकदरी करते हैं, उसे देखकर अत्यन्त दुःख होता है। न उचित खान-पान करेंगे, न स्वस्थ स्थानों में रहेंगे, न पर्याप्त विश्राम ही करेंगे, रुपया उनके पास है। रुपया वे जीवन से अधिक मूल्यवान समझते हैं। जीवन के सामने रुपया अस्थिर, अल्प मूल्य का है। संसार का सब रुपया देकर भी जीवन की कुछ भी घड़ियाँ वापिस नहीं ली जा सकतीं।

मुझे अपनी छोटी बहिन की मृत्यु की वह घड़ी याद है। रुपयों की मुट्ठियाँ भर कर हम काम कर रहे थे। दवाइयों में जो कुछ जिसने बताया वही ले गया। इन्जेक्शन, गोलियाँ, परीक्षायें-जो कुछ भी मनुष्य का प्रयत्न हो सकता है, किया गया। तीन-तीन डॉक्टर समीप बैठे रहे। रुपयों से भरा बटुआ गहनों की अलमारी का गुच्छा उसके पास रक्खा रहा बचने की कोई आशा न थी। जीवन की घड़ियाँ निरन्तर कम होती जा रही थीं वह स्पष्ट स्वर में एक दृष्टि रुपये, बटुये, गुच्छे, दूसरी मेरी ओर डालते हुए बोली “भाई साहब मुझे बचाइये।” मैं एक दुर्बल मानव, मनुष्य की अपूर्णता से अपने आपको बँधा हुआ पा रहा था। मैं क्या उत्तर देता। जीवन उड़ गया। रुपया यों ही पड़ा रह गया।

आवश्यकता इस बात की है कि जरा सी टूट-फूट होते ही जीवन की रक्षा की जाय। इस ओर से तनिक भी लापरवाही न की जाय। अधिक दौड़ धूप की आवश्यकता नहीं है। जितनी आय शरीर की स्वास्थ्य स्थिर रखते हुए रह सके वही ठीक है। जीविका जीवन के लिए है। धन जीवन की कमर पर न चढ़ बैठे। जीवन में परिश्रम कीजिए किन्तु परिश्रम के पश्चात् समुचित विश्राम की व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए।

शरीर के पश्चात् अपनी मानसिक शक्ति को स्थिर रखने का सतत् प्रयत्न होना चाहिए। बाह्य संघर्षों से आन्तरिक स्थिति में उत्तरोत्तर हलचल तूफान, और विद्रोह नहीं चलना चाहिए। उच्च आध्यात्मिक शान्ति, जिसमें समस्त मानव इच्छाओं का निलय हो, जहाँ इच्छा आवश्यकताओं का संघर्ष न हो, जीवन को आगे बढ़ाने वाला है।

आप एक साधन हैं, साध्य जीवन का आनन्द है। जितने अंशों में आप जीवन का आनन्द ले सकते हैं, उतने ही अंशों में जीवन को सार्थक बनाते हैं। आनन्द जीवन का नवनीत है। यह आपको स्वयं ही प्राप्त करना है। जब तक आप अपने विषय में उच्च धारणाएं बनाकर संसार की कर्म स्थली में प्रविष्ट नहीं होते, तब तक आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता।

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