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Magazine - Year 1952 - Version 2

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यज्ञ का रहस्य

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(महात्मा गाँधी)

‘यज्ञ’ अर्थात् इस लोक या परलोक में बिना किसी प्रकार का बदला लिये या बदले की इच्छा किये परार्थ किया गया कोई भी काम। वह कायिक, वाचिक या मानसिक तीनों प्रकार का हो सकता है। काम या कर्म का यहाँ विशाल अर्थ करना चाहिये। ‘पर’ अर्थात् केवल मनुष्य वर्ग ही नहीं, पर जीवमात्र। इसलिए, एवं अहिंसा की दृष्टि से भी मनुष्य जाति की सेवा के लिए ही क्यों न हो, दूसरे जीवों की बलि चढ़ाना या नाश करना यज्ञ नहीं माना जा सकता। वेदादि में अश्व, गाय इत्यादि को बलि चढ़ाने का उल्लेख मिलता है। हम उसका खण्डन करते हैं। सत्य और अहिंसा की तराजू में, पशु-हिंसा के अर्थ में होम या यज्ञ चढ़ नहीं सकते। हमने इतने ही से संतोष माना है। धार्मिक कहे जाने वाले वचनों के ऐतिहासिक अर्थ लगाने के लिये हम नहीं कह सकते और ऐसे अर्थों की शोध करने की अपनी अयोग्यता को हम स्वीकार करते हैं। ऐसी योग्यता प्राप्त करने का प्रयत्न भी हम नहीं करते। क्योंकि ऐतिहासिक अर्थ जीव-हिंसा को पसन्द करता हो तो भी सत्य और अहिंसा को सर्वोपरि धर्म स्वीकार कर चुकने के बाद हमारे लिये वह आचार त्याज्य है, जो ऐसे अर्थ को पसन्द हो। उक्त व्याख्या की दृष्टि से विचार करने पर हम देख सकते हैं कि जिस कर्म से अधिक से अधिक जीवों का विशाल क्षेत्र में—व्यापक रूप से कल्याण हो, जो कर्म अधिक से अधिक सरलता के साथ किया जा सके, और जिससे अधिक से अधिक सेवा होती हो, वह महायज्ञ है—अथवा अच्छे से अच्छा यज्ञ है। अर्थात् किसी की भी सेवा के लिये दूसरे किसी का अकल्याण चाहना या करना, कदापि यज्ञ कार्य नहीं। और यह बात तो भगवद्गीता तथा अनुभव दोनों हमें सिखाते हैं कि यज्ञ व्यतिरिक्त कर्म-बन्धन है। ऐसे यज्ञ के बिना यह जगत् एक क्षण भी नहीं टिक सकता। इसलिए गीताकार ने दूसरे अध्याय में ज्ञान की थोड़ी झाँकी कराने के बाद तीसरे अध्याय में उसकी प्राप्ति के साधनों का दिग्दर्शन कराया है, और स्पष्ट शब्दों में कह दिया है कि जन्म से ही हम यज्ञ को अपने साथ लाये हैं—अर्थात् हमें यह देह केवल परमार्थ के लिए मिली है, और इसलिए जो बिना यज्ञ किये जीमताडडडडड है, वह चोरी का अन्न खाता है। गीताकार ने अपना यह कठोर निर्णय दिया है। शुद्ध जीवन व्यतीत करने की इच्छा रखने वाले के समस्त कार्य यज्ञ रूप होने चाहिये। हम यज्ञ को साथ लेकर पैदा हुए हैं—अर्थात् सदा के ऋणी हैं, देनदार हैं। अतः हम जगत के सदा के सेवक—गुलाम हैं और जैसे गुलाम को उसका स्वामी सेवा के बदले में अन्न वस्त्रादि देता है, वैसे ही हमें जगत् का स्वामी हमारी सेवा के बदले या हम से सेवा लेने के कारण जो अन्न वस्त्रादि दे उसे हम आभार पूर्वक ले लें। इतने के भी हम हकदार हैं, ऐसा न मानें, अर्थात् न मिलने पर स्वामी को बुरा भला न कहें। यह शरीर उसका है, वह अपनी इच्छानुसार इसे रखे या नष्ट करे। यह स्थिति न तो दुःखद है, न दयनीय। यदि हम अपना स्थान समझ लें तो स्वाभाविक है और इसीलिए सुखद तथा वाञ्छनीय भी। इस परमसुख का अनुभव करने के लिये अविचल श्रद्धा की आवश्यकता है ही। मैंने तो सब धर्मों में यही आदेश पाया है कि अपनी चिन्ता ही न करनी—सब परमेश्वर के भरोसे छोड़ देना।

पर इस वचन से डरने का किसी के लिए कारण ही नहीं है। जो मन साफ रखकर सेवा का आरम्भ करता है, उसे उसकी आवश्यकता दिन-प्रतिदिन स्पष्ट होती जाती है और वैसे-वैसे उसकी श्रद्धा भी बढ़ती जाती हैं। जो स्वार्थ छोड़ने को तैयार ही नहीं हैं, उसके लिए अलबत्ता सेवा मार्ग कठिन है। उसकी सेवा में स्वार्थ की गन्ध आया ही करेगी। पर दुनिया में ऐसे स्वार्थी बिरले ही पाये जायेंगे। हम सब कुछ न कुछ निःस्वार्थ सेवा तो जाने-अनजाने करते ही हैं। इसको हम विचारपूर्वक करने लगें तो हमारी सेवा-वृत्ति—परमार्थिक सेवा-वृत्ति, उत्तरोत्तर बढ़ती ही जायगी—इसी में हमारा सच्चा सुख और संसार का कल्याण है।

जिस वस्तु को जन्म से साथ लेकर हमने इस जगत में प्रवेश किया है, उसका कुछ और विचार करना निरर्थक न होगा। यह सोचते हुए कि यज्ञ नित्य का कर्त्तव्य है, चौबीसों घण्टे आचरण करने की चीज है, और यह जानते हुए कि यज्ञ का अर्थ सेवा है, ‘परोपकाराय सताँ विभूत्यः, जैसा वचन खटकता है। निष्काम सेवा परोपकार नहीं, अपना उपकार है। जैसे कर्ज अदा करना परोपकार नहीं, बल्कि निज की सेवा है, अपना उपकार है। अपने सिर का बोझ हलका करना है, अपने धर्म को निभाना है। दूसरे, यह कि सन्त की ही पूँजी—विभूति—’परोपकार के लिए’ अर्थात् अधिक उपयुक्त शब्दों में ‘सेवा के लिए’ है, ठीक नहीं, बल्कि मनुष्य की पूँजी मात्र सेवा के लिए है। और यही बात है तो जीवन मात्र से भोग का उच्छेद हो जाता है और यह त्यागमय बनता है, अथवा त्याग को ही भोग समझता है। मनुष्य का त्याग ही उसका भोग है। यह है पशु और मनुष्य के बीच का भेद। बहुतेरे लोग इस पर यह आपत्ति करते हैं कि जीवन का ऐसा अर्थ करने से जीवन शुष्क बन जाता है, कला का नाश हो जाता है। इसी कारण वे उक्त विचार को दोषपूर्ण मानते हैं। पर मेरे विचार में ऐसा कहने में त्याग का अनर्थ होता है। त्याग का अर्थ संसार से भागकर अरण्यवास करना नहीं, बल्कि जीवन की समस्त प्रवृत्ति में त्याग की भावना का होना है। गृहस्थ-जीवन त्यागमय भी हो सकता है और भोगमय भी। मोची के जूते बनाने में, किसान के खेती करने में, व्यापारी के व्यापार में और नाई के हजामत बनाने में त्याग की भावना हो सकती है, अथवा भोग की लालसा। यथार्थ व्यापार करने वाला करोड़ों का व्यापार करता हुआ भी लोक सेवा का ही विचार करेगा। वह किसी को धोखा न देगा, सट्टेबाजी न करेगा, न उठाने योग्य जोखिम नहीं उठावेगा और करोड़ों का स्वामी होते हुए भी सादगी से रहेगा। करोड़ों की कमाई करते हुए भी वह किसी का नुकसान नहीं करेगा किसी का नुकसान होता होगा तो करोड़ों पर लात मार देगा। कोई मेरी इस बात को काल्पनिक समझकर हँसे नहीं। संसार के सौभाग्य से ऐसे व्यापारी पश्चिम में भी हैं और पूर्व में भी। भले ही इनकी संख्या उंगली पर गिने जाने योग्य हो। पर एक भी जीवित उदाहरण के रहते हुए ऐसा व्यापारी काल्पनिक नहीं रह जाता। ऐसे दरजी को तो हमने बढ़वाण (काठियावाड़ एक देशी राज्य की राजधानी) में ही देखा है। ऐसे एक नाई को मैं जानता हूँ और ऐसे जुलाहे को हम में से कौन नहीं जानता? विचार करने और शोध करने से हमें सब धन्धों में केवल यज्ञार्थ जीवन बिताने वाले और अपना धन्धा करने वाले लोग दिखाई पड़ेंगे। यह सच है कि ऐसे याज्ञिक अपना धन्धा करते हुए अपनी आजीविका कमाते हैं। पर वे आजीविका के लिए धन्धा नहीं करते। आजीविका तो उनके लिए उक्त धन्धे का गौण फल है। मोतीलाल पहले भी दरजी था और ज्ञान के होने पर भी दरजी ही रहा। उसकी भावना बदल गई, इससे उसका धन्धा यज्ञ रूप बना। उसमें पवित्रता ने प्रवेश किया। उस धन्धे में दूसरे के सुख का विचार समाया, तब उसके जीवन में कला ने प्रवेश किया। यज्ञमय जीवन कला की पराकाष्ठा है। सच्चा रस ही उसमें है क्योंकि उसमें से इसके नित नये झरने झरते हैं। मनुष्य उसे पीते हुए थकता नहीं, झरने कभी सूखते नहीं। जो यज्ञ बोझ रूप लगे, वह यज्ञ नहीं, खटके वह त्याग नहीं। भोग का परिणाम नाश है। त्याग का फल अमरता। रस स्वतन्त्र वस्तु नहीं। रस हमारी वृत्ति में है। एक को नाटक के पदों में मजा आवेगा, दूसरे को आकाश में जो नित नये परिवर्तन रहते हैं, उसमें मजा आवेगा। अर्थात् रस तालीम या अभ्यास का विषय है। बचपन में रस के रूप में जिनका अभ्यास कराया जाता है, रस के रूप में जिनकी तालीम जनता लेती है, वे रस माने जाते हैं। एक राष्ट्र या प्रजा को जो रसमय प्रतीत होता है, वह दूसरे राष्ट्र या दूसरी प्रजा को रसहीन लगता है। इसके उदाहरण हमें मिल सकते हैं।

यज्ञ करने वाले बहुतेरे सेवक यह मानते हैं कि हम निष्काम भाव से सेवा करते हैं, इसलिए लोगों से जो चाहिये वह और जिसकी जरूरत नहीं है, वह भी लेने का परवाना मिल गया है, यह विचार जिस सेवक के मन में जिस वक्त आता है, तभी से वह सेवक मिटकर सरदार बनता है। सेवा में अपनी सुविधा के विचार को कोई स्थान ही नहीं है। सेवक की सुविधा को देखने वाला स्वामी—ईश्वर—है। उसे जो सुविधा देनी होगी, वह देगा। यह सोचकर सेवक को चाहिये कि जो मिले उसे, अपना समझ कर बैठ न जाय, बल्कि जितनी आवश्यकता है, उतना ही ले और बाकी का त्याग करे। अपनी सुविधा की रक्षा न होने पर भी ऐसा सेवक शान्त रहेगा, रोष-रहित रहेगा, मन में भी नहीं झुँझलाएगा। याज्ञिक का बदला सेवक की मजदूरी, यज्ञ-सेवा ही है। उसे उसी में सन्तोष होगा।

साथ ही सेवा-कार्य में बेगार कदापि नहीं टाली जा सकती, उसे आखिरी स्थान नहीं दिया जा सकता। अपनी चीज को सजाना और दूसरे की उपेक्षा करना अथवा मुफ्त में करना है, इसलिए जैसा और जब करेंगे तो भी काम चलेगा, इस तरह के विचार करने वाला या ऐसा आचरण करने वाला यज्ञ के मूलाक्षर भी नहीं जानता। सेवा में तो शृंगार सजाने होते हैं, अपनी समस्त कला उसमें उड़ेलनी होती है, वह है पहली चीज, और बाद में है अपनी सेवा। साराँश यह की शुद्ध यज्ञ करने वाले का अपना कुछ भी नहीं है, उसने सब कृष्णार्पण किया होता है।

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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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Type: TEXT
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