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Magazine - Year 1953 - Version 2

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योगी अरविन्द की अमृतवाणी

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हमारे पास कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जिसे हम अपनी कह सकें, सब वस्तु भगवान की हैं, यह जीवन उसी के लिए है, हमारी वासना, हमारी कामना हमारा मतामत, हमारा आदर्श, उचित-अनुचित, सम्भव-असम्भव- जो कुछ ज्ञान है उन सबको इसी भगवत् ज्ञान के अनुगामी करना होगा। हृदय की समस्त आशा आकाँक्षा एवं बुद्धि के सब विकारों को हटाना होगा। धारणा करनी होगी कि यह जगत् और हम अभिन्न हैं, इस अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड के भीतर सत्-चित् आनन्द है, यह सब उसी परब्रह्म के विकास हैं, वे ही इस विश्व पट पर ज्ञान, शक्ति और प्रेम की अनन्त लीला प्रकट करते और दिखलाते हैं। सभी प्रकार के भेद-भावों को दूर करके, उस विश्व शिल्पी के हाथ में अपने को खिलौने की तरह समर्पण करके निश्चिंत होने से ही परम आनन्द मिल सकेगा। अहंकार इस उत्तम मार्ग का कण्टक है, अहंकार दूर होने से भगवान की पूर्ण लीला इन लोगों के जीवन कुँज में अभिनीत होगी, पूर्ण ज्ञान, प्रेम, आनन्द और शान्ति से हमारा यह जीवन पूर्ण रूप से विकसित हो उठेगा और तभी हम दिव्य जीवन का उपभोग कर सकेंगे, क्योंकि हमारा जीवन भगवत् लीला का आधार स्वरूप बन जाएगा। इस प्रकार का आत्मोत्सर्ग यदि साधक अशंतः भी कर सकेंगे तो उनके कुसंस्कारों की दुष्प्रवृत्तियाँ और बुरे कर्मों की ओर झुलाने वाली अन्धचेष्टा की वृत्तियाँ दूर हो जायगी।

जिसे देखिये वही यह कहता सुनाई देता है कि सत्युग अब नहीं रहा, ईमानदारी, विश्वास, सत्यता सब इस संसार से उठ गई। अब कलियुग आया है और बढ़ता चला जा रहा है। पर किसी ने एक बार भी विचार नहीं किया कि यह सत्युग क्या है। सत्युग कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो जन्म जन्मान्तर में किसी एक नियमित समय पर ही आवेगी और फिर चिरकाल के लिए दृष्टि पथ से ओझल हो जायगी। हम अपना सत्युग और कलियुग अपनी प्रेरणा से आप बना सकते हैं। जिस समय मनुष्य इस जाग्रत जीवन का अधिकार बढ़ाकर इस सूक्ष्म स्थान पर पहुँच जाता है, वासना, कामना, संस्कार आदि से किसी तरह का सम्बन्ध नहीं रखता, इस पार्थिव शरीर में अवस्था भेद की समता नहीं रखता अर्थात् आधार और आधेय इन दोनों की भिन्नता पूर्ण रूप से अलग कर देगा उसी समय इस संसार में स्वर्गीय राज्य पुनः उदय हो जायगा, यही सत्युग है। इस समय पृथ्वी तल पर रहने वाली मानव जाति बुद्धि, मन और शरीर को ही सर्वप्रधान मानती और बतलाती है, इन्हीं के चक्कर में पड़ी वह नाना प्रकार की लीलाएं किया करती है। स्वर्ग लोक की खोज-खबर वह नहीं रखना चाहती। वहाँ की चर्चा वह एकदम भूल गई है। आज फिर नये सिरे से हमें अनुष्ठान करना होगा। शक्ति को पुनः जगाना होगा। अहंकार का सिर हमें नीचा करके रखना होगा। हम दिव्य लोक के अधिकारी हैं, इस बात का हमें फिर से ज्ञान प्राप्त करना होगा। इसी से सत्युग की पुनः स्थापना होगी और इसीलिए साधना तथा तपस्या का सारा प्रयास है। यदि इस प्रयास से हम लोग एक बार भी उस स्थान तक पहुँच गए तो हम लोग यन्त्रणाओं से मुक्त होकर, सिद्ध बनकर, सत्य और आनन्द की लीला में रहकर इसी मृत्यु लोक को ही स्वर्ग बना देंगे। उस युग के लोग (अर्थात् सतयुग के जीव) इस स्वर्गधाम का पता लगाकर इस पृथ्वीतल से संबन्ध त्यागकर उस महत धाम को पहुँचते थे। पर आज हम लोग इस योग के द्वारा स्वर्गलोक के अधिकारी बन कर भी इस पृथ्वी से सम्बन्ध नहीं त्यागेंगे? जिस प्रकार तपस्वी भागीरथ स्वर्ग से गंगा की धारा बहाकर इस अवनीतल को पवित्र कर सके, उसी प्रकार हम लोग भी अमृत का भांड़ लेकर इस संसार में भी अमरलोक की लीला करेंगे, इस मर्त्यलोक में ही स्वर्ग की लीला का आनन्द लेंगे।

जीव इस समय माया के फन्दे से छूट जाता है और भेदभाव का विचार उसके मन से दूर हो जाता है उस समय उसे ज्ञान होता है और वह दिव्य दृष्टि से देखता है कि उसमें और ब्रह्म में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है, अखिल ब्रह्माण्ड, यह संसार, हमारा शरीर सभी ब्रह्ममय हैं। इसलिए हे साधक! इस ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर मृत्युलोक में विचरण करते हुए दिव्य युग की एक बार पुनः स्थापना का भार तुम्हारे ही ऊपर है।

यह आदि और अन्त रहित ब्रह्म अखण्ड है, इसमें खण्ड नहीं हो सकता। इस अवनी तल की समस्त वस्तुएं भी इसी ब्रह्म के द्वारा प्रकाशित हैं। इस विश्व के समस्त तथा प्रत्येक पदार्थों में व्याप्त रहने पर भी इसकी पूर्णता में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आने पाता क्योंकि वह सदा और सर्वदा परिपूर्ण है, पूर्णता ही उसका प्राकृतिक गुण और भाव है।

यह परमेश्वर पूर्ण है बल्कि पूर्ण से भी पूर्ण है। इसलिए जिस वस्तु में इस पूर्ण का पूर्णरूप से समावेश होगा वह सदा पूर्ण रहेगा। इस भाव को अंतर्गत करके केवल चैतन्य पदार्थों में ही नारायण शिव तथा शक्ति का ज्ञान प्राप्त करना होगा, यह बात नहीं है, बल्कि इस संसार की सभी जड़ वस्तुओं में भी श्रीभगवान की उपस्थिति की भावना करनी होगी। पर हमारी जड़ चक्षु अवनीतल को अंगुल-अंगुल खोज कर डालने पर भी ब्रह्म का दर्शन नहीं कर पाती, ब्रह्म का साक्षात् नहीं कर पाती। अन्धों की भाँति केवल भगवान की रट लगाने से तो कोटि जन्म में भी भगवान का दर्शन नहीं हो सकता। जिस दिन स्वर्ग की पवित्र तेजमय किरण से हमारी जड़ चक्षु प्रकाश प्राप्त कर माया के अन्धकार से निकल भागेगा, जिस दिन ज्ञानरूपी सूर्य के प्रकाश से हमारे मन की शंकाएं और भ्रम दूर हो जाएंगे, उसी दिन हम धन्य तथा कृत-कृत्य हो जांयगे। उस दिन संसार को मोहित करने वाला सत्-चित आनन्दमय भगवान का रूप देखकर, उसका दर्शन करके हम धन्य होंगे।

जब तक इस दिव्य चक्षु का उद्घाटन नहीं होता अर्थात् जब तक यह दिव्य नेत्र नहीं खुलते तब तक साधन निष्फल और निष्प्रयोजन है, केवल मायाजाल है और जिस दिन यह ज्ञानचक्षु खुल जाएंगे उस दिन प्रतीत होगा कि इस संसार में कोई भी पदार्थ अचेतन नहीं है, संसार की सभी वस्तुओं में सच्चिदानन्द परमेश्वर का निवास है। सब के अंतर्गत प्राण, चेतना, मन तथा विज्ञान अधिष्ठित हैं, सब वस्तु के बीच में लीलामय श्रीहरि निवास करके अपने अनन्त गुणों का अपार आनन्द उपभोग करते हैं। संसार की सभी व्यक्त, अव्यक्त प्रकाशोन्मुख वस्तु में, जिसके बीच में परात्पर पुरुष पूर्ण रूप से अव्यक्त रूपेण विद्यमान हैं, अथवा जिसके प्रकाश में चैतन्य का कोई भी रूप देखने में नहीं आता, दिव्य चक्षु प्राप्त हो जाने पर उसके बीच में भी श्री आनन्द स्वरूप भगवान की दिव्य लीला देखने को मिलेगी। पत्र, पुष्प, पत्थर, मिट्टी, पेड़, पौधा- इन सभी वस्तुओं की रचना में विशेष-विशेष प्रकार का आनन्द है। उस आनन्द का आभास उसकी रचना चातुरी से प्रकट होता है। प्रत्येक वस्तु के अंतर्गत श्रीहरि चित् रूप से विराजमान होकर भिन्न-भिन्न रसों का उपभोग कर आनन्द लेते हैं। एक-एक ही ब्रह्म का अनन्त रूप से, अनेक वस्तुओं में निवास देखकर कभी भी इस बात की कल्पना नहीं करनी चाहिये कि ब्रह्म खण्ड है, वह विभक्त होकर आँशिक रूप से इन नानाविधि वस्तुओं में विराजमान है। भगवान द्विधा या विभक्त नहीं हो सकता। काल, स्थान अथवा समय का उस पर किसी तरह का प्रभाव नहीं पड़ सकता। अभेद व अखण्ड होकर ही वह संसार की सभी वस्तुओं में समभाव से विराजमान होकर लीला करता है।

जिस साधक में तमोगुण की प्रधानता रहती है उसे दो प्रकार की विपत्ति में फँसने की सम्भावना रहती है। सबसे पहले साधक के हृदय में उठता है कि- “मैं दुर्बल, पापी, घृणित, अज्ञानी, अकर्मण्य हूँ। जिस किसी को मैं देखता हूँ सभी मुझसे ऊँचे दिखाई देते हैं। मैं सबसे नीच हूँ। भगवान को हमारी आवश्यकता नहीं। भगवान मुझे अपनी शरण में लेकर क्या करेंगे?” यानी ईश्वर की शक्ति परिमित है और अवस्था विशेष के ऊपर निर्भर करती है और यह उक्ति मिथ्या है कि वह गूँगे को बोलने की शक्ति प्रदान कर सकता है और लूले को चलने की शक्ति दे सकता है। दूसरे यदि साधक को थोड़ी बहुत शान्ति मिल गई तब उसी का आनन्द उपभोग कर वह मन में सोचने लगता है कि चलो सारा प्रपंच दूर हुआ, मुझे शान्ति मिल गई। इस प्रकार कह कर वह सब प्रकार के कर्मों में मुंह मोड़कर आनन्द करने लग जाता है। साधक को सदा इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि वह भी परब्रह्म का अंश है और आदिशक्ति उसके हृदय में अवस्थान करके उसका संचालन करती है। सर्वशक्ति मान भगवान की लीला तरह-तरह की होती है। किसी एक लीला के परवश होकर साधक को उदासीन होकर बैठे रहना सदा अनुचित है। वह जो कुछ करता है सब उसकी आनन्द लीला है। उसे उत्पात या और कुछ समझना सर्वथा भूल है। पर जब तक किसी तरह का अहंकार विद्यमान रहता है तब तक इस तरह की धारणा का उत्पन्न होना सम्भव नहीं है। कर्मबन्धन के कट जाने पर भी हमें कर्म तो करना ही होगा।

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