• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • यज्ञ—भारतीय संस्कृति का आदि प्रतीक
    • दिव्य ज्ञान की बाती!
    • दिव्य ज्ञान की बाती (Kavita)
    • हिंदू धर्म में यज्ञों का स्थान तथा प्रयोजन
    • गीता में यज्ञ की महिमा
    • उपनिषदों में यज्ञ—रहस्य का वर्णन
    • रामायण में यज्ञ—चर्चा
    • भूपति मन मांही (Kavita)
    • हमरे वैरी विबुध वरुथा (Kavita)
    • यज्ञ में असुर
    • तेजस्वी इंद्रजीत
    • प्रेम भाव
    • वेदों में यज्ञाग्नि की प्रार्थना
    • यज्ञ द्वारा देव शक्तियों की तुष्टि−पुष्टि
    • पुराणों में यज्ञ महात्म्य के कुछ प्रसंग
    • यज्ञ द्वारा अनन्त सुख शान्ति
    • यज्ञ से सुसन्तति की प्राप्ति
    • शत्रु संहार में यज्ञ का उपयोग
    • यज्ञ द्वारा पापों का प्रायश्चित
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • यज्ञ—भारतीय संस्कृति का आदि प्रतीक
    • दिव्य ज्ञान की बाती!
    • दिव्य ज्ञान की बाती (Kavita)
    • हिंदू धर्म में यज्ञों का स्थान तथा प्रयोजन
    • गीता में यज्ञ की महिमा
    • उपनिषदों में यज्ञ—रहस्य का वर्णन
    • रामायण में यज्ञ—चर्चा
    • भूपति मन मांही (Kavita)
    • हमरे वैरी विबुध वरुथा (Kavita)
    • यज्ञ में असुर
    • तेजस्वी इंद्रजीत
    • प्रेम भाव
    • वेदों में यज्ञाग्नि की प्रार्थना
    • यज्ञ द्वारा देव शक्तियों की तुष्टि−पुष्टि
    • पुराणों में यज्ञ महात्म्य के कुछ प्रसंग
    • यज्ञ द्वारा अनन्त सुख शान्ति
    • यज्ञ से सुसन्तति की प्राप्ति
    • शत्रु संहार में यज्ञ का उपयोग
    • यज्ञ द्वारा पापों का प्रायश्चित
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1955 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


यज्ञ द्वारा अनन्त सुख शान्ति

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 15 17 Last
यज्ञ में वेद मन्त्रों का उच्चारण, विशेष प्रकार की समिधाएं विशिष्ट हवि शाकल्य, चरु, पुरोडास, भावनाओं का प्रवाह आदि अनेकों सूक्ष्म प्रक्रियाओं से एक प्रचण्ड अदृष्ट−अदृश्य वातावरण बनता है। उसकी शक्ति से यज्ञ कर्ताओं को ही नहीं समस्त संसार को अनेक प्रकार के भौतिक और आध्यात्मिक लाभ होते हैं। अन्तःकरण की पवित्रता, मल विक्षेप और कुसंस्कारों का निवारण होने से आत्मबल की वृद्धि होती है और आत्मा का साक्षात्कार होकर, स्वर्ग, मुक्ति , ब्रह्म निर्वाण एवं परम पद की प्राप्ति होती है। साथ ही भौतिक अभाव एवं त्रास भी−कष्ट भी दूर होते हैं। सच्चा याज्ञिक जीवनोपयोगी आवश्यकताओं से वञ्चित नहीं रहता। अग्नि की उपासना करने वाले दीन दुखी नहीं रहते इसके अनेक प्रमाण शास्त्रों में उपलब्ध हैं:—

यज्ञ करने से मन, वाणी एवं बुद्धि की उन्नति होती है इसका प्रतिपादन यज्ञ भगवान स्वयं करते हैं—

देव सविता प्रसुव यज्ञं प्रसुवयज्ञपति भगाय। दिव्योगर्न्धवः केतपूःकेतनः पुनातु वाचस्पतिर्वांच नः स्वदतु॥

यजु. 30−1॥

अर्थ:—मन, वाणी, बुद्धि की उन्नति तब होगी जब यज्ञ एवं यज्ञ पति की उपासना की जाय।

ऋषयो मुनयश्चैव ब्राह्मणः क्षत्रियादयः।

स्वाहं मन्त्रमुच्चार्थ हविर्ददति नित्यशः॥

स्वाहायुक्तं च मन्त्रं च मो गृह्णातिप्रशस्तकम्॥

सर्वसिद्धिर्भवेतस्य ब्रह्मग्रहणमात्रतः।।

—ब्रह्म वैवर्त पुराण, ब्रह्म खण्ड

अर्थ:—श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऋषि, मुनि, ब्राह्मण क्षत्री आदि मन्त्र के अन्तः में ‘स्वाहा’ शब्द बोलकर नित्य हविष्य देते हैं। जो स्वाहा युक्त मंत्र को ग्रहण करता है, अर्थात् हवन करता है, उस ब्राह्मण को सब सिद्धियाँ मिलती हैं।

अग्निहोत्रात्परंनान्यत्पवित्रमिहपठयते॥

सुकृतेनाग्निहोत्रेणशुद्धयंतिभुवि द्विजाः॥83॥

पंथानोदेवलोकस्यब्राह्मणैर्दर्शितास्त्वमी॥

एकोऽग्निःसर्वदाधार्योगृहस्थेनद्विजन्मना॥84॥

—पद्म पुराण

अग्निहोत्र से बढ़कर कोई पवित्र कर्म नहीं। अच्छी प्रकार से किये गये अग्निहोत्रों के द्वारा द्विजों का अन्तःकरण पवित्र हो जाता है।

ब्राह्मणों ने विश्व को यज्ञ करने की प्रक्रिया बताकर सबों के लिए स्वर्ग को पाने का निश्चित पथ बता दिया है अतः हे गृहस्थो! यज्ञ को प्रतिदिन करते रहना ही गृहस्थों का धर्म है। बिना हवन किये गृहस्थ धर्म की प्राप्ति नहीं होती।

अहन्यहन्यनुष्ठानंयज्ञानांपार्थिवोत्तम॥

उपकारकरंपुंसांक्रियमाणंफलार्थिनाम्॥152॥

—पद्म पुराण भूमिखण्ड

अर्थ—हे राजन! सुख पाने की इच्छा वाले मनुष्यों को प्रतिदिन अवश्य ही होम करना चाहिये, इससे होम कर्ता का निश्चित रूप से कल्याण होता है।

‘पक्तिदूषकः’ का पौराणिक अर्थ दृष्टव्य है

महायज्ञविहीनश्च ब्राह्मणः पंक्ति दूषकः॥45॥

—कूर्म पुराण उत्तरार्ध अ. 21 श्लोक 42

अर्थ—महायज्ञ नहीं करने से ब्राह्मणों की पंक्ति में स्थान पाने योग्य नहीं होता। गृहस्थाश्रम वासी तीनों वर्णों का धर्मः

नास्तिक्यादथवालस्याद्योऽग्नीन्नाधातुमिच्छति।

यजेत वा न यज्ञेन स याति नरकान बहून्॥7॥

कूर्म पुराण, उत्तरार्ध अ. 24−श्लोक 7

भावार्थ:—नास्तिकता से अथवा आलस्य से जो अग्नि को धारण नहीं करना चाहता अथवा यज्ञ से जो परमात्मा का भजन नहीं करता वह अनेकों नरकों को प्राप्त करता है।

अग्निहोत्रात् परो धर्मो द्विजानां नेह विद्यते।

तस्मादाराधयेन्नित्यमग्निहोत्रेण शाश्वतम्॥

—कूर्म पुराण उत्तरार्ध अ. 24। श्लोक 8

अर्थ—इस लोक में द्विजों के लिये अग्नि होत्र से महान् कोई धर्म नहीं है इसलिए सनातन परमात्मा की नित्य ही अग्नि होत्र से आराधना करनी चाहिये।

व्यास उवाच:—

मातापित्रोर्हिते युक्तो गो ब्राह्मण हिते रतः।

दान्तो यज्वा देवभक्तो ब्रह्मलोके महीयते॥

—कूर्मपुराण उत्तरार्ध अ. 15। श्लोक 24

भावार्थ:—माता पिता के हित में ‘रत’ गो ब्राह्मणों का हित करता हुआ देवभक्त और दाता, ये सभी, यज्ञ करने से ब्रह्म लोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं।

सायंसायं गृहपतिर्नो अग्निः

प्रातः प्रातः सौमनसस्य दाता॥1॥

प्रातः प्रातर्गृहपतिर्नो अग्निः सायं

सायं सौमनसस्य दाता॥2॥

अ. कां 19। अनु. 7 मं. 3।4॥

अर्थ—जो गृहपति संध्याकाल में हवन करता है, उसे, वह यज्ञाग्नि, देव रूप से प्रातः काल तक सौमनस्य देने वाला होता है, अर्थात् उस गृहपति के मन, बुद्धि, शरीर एवं प्राण को शुद्ध करता रहता है, इसी भाँति प्रातः कालीन आहुति, उस दिन भर तक, उस गृहपति के सर्वांगीण कल्याण और सुख वृद्धि में सहायक होता है—सौमनस्य का देने वाला होता है।

दिवि विष्णु व्यक्तित्व जागतेन छंदसा

ततो निर्भयोक्ता योऽस्मान द्वेष्टि यंच वचं द्विष्मः।

अन्तरिक्षे विष्णुव्यक्रंस्त त्रैष्टुते छंदसा।

सतो निर्भक्तो.।

पृथिव्यां विष्णुर्ञ्येक्रस्तं गायत्रेण छंदसा।

सतो निर्भक्तो.।

अस्यादन्नात्। अस्ये प्रतिष्ठान्यै। अगन्य स्वः। संज्योतिषाभूम।

यजु. 2−25।

भावार्थ—अर्थात् अग्नि में प्रक्षिप्त जो रोग−नाशक पुष्टि प्रदायक और जलादिसंशोधक हवन सामग्री है वह भस्म होकर वायु द्वारा बहुत दूर तक पहुँचती है और वहाँ पहुँचकर रोगादिजनक वस्तु को नष्ट कर देती है। इस हेतु वेद में कहा जाता है, जो वस्तु हम लोगों से द्वेष करती है एवं जिससे हम लोग द्वेष करते हैं वह वस्तु यज्ञ के द्वारा नष्ट हो जाती है। आगे भी यही भाव समझाना चाहिए। अर्थात् यज्ञ से इहलौकिक और पारलौकिक दोनों कार्य सम्पन्न होते हैं।

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नता गायत्रं छंद आरोह पृथिर्वामतु विक्रमस्व। विष्णोः क्रमोऽस्य मिमातिव्य त्रैष्टुभं छंद अरोहान्तरिक्षयनु विक्रमस्व। विष्णोः क्रमोऽस्यरातयितो हन्ता जागते छंद आरोह दिवमनु विक्रमस्व। विष्णोः क्रमोऽसि शत्रूयतो हन्तानुष्टुभं छंद आरोह दिशोऽनु विक्रमस्व।

यजु. । 12−5 ।

अर्थ—यहाँ यज्ञ के फैलने का वर्णन है। यज्ञ का जो क्रम अर्थात् यज्ञ की सामग्री का जो चारों तरफ गमन है उसको संबोधन करके कहते हैं। आप यज्ञ के क्रम हैं, इसी हेतु सफल अर्थात् जीव के आरोग्य के नाश करने वाले जो शत्रु हैं उनको भी आप नष्ट करने वाले हैं। हे यज्ञ क्रम! प्रथम आप गायत्री छन्द को प्राप्त करें। पश्चात् पृथ्वी पर फैलें। आप घातक पाप को नष्ट करने वाले हैं। त्रिष्टुभ छन्द को प्राप्त करें। पश्चात् अन्तरिक्ष लोक में व्याप्त होवे। पुनः आप शत्रु के हननकर्ता हैं। जगती छन्द को प्राप्त करें। पश्चात् द्युर्लाक तक फैल जाय। इसी प्रकार अनुष्टभ छन्द को प्राप्त कर सब दिशाओं में फैल जायं

अग्नि पूजा परानित्यं गुरुपूजारतास्तथा।

ब्राह्मणां तृप्तिकरोः सर्वे सवर्गस्य भागिनः॥

शिवपुराण वि. सं. 1।अध्या. 14।1 श्लोक 13

अर्थ—जो प्रति दिन यज्ञ करते, गुरुपूजा एवं ब्रह्मभोज करते हैं, वे सभी स्वर्ग प्राप्त करने योग्य हैं।

मनुश्चसगरोराजामरुत्तोनहुषात्मजः।

एतेतेपूर्वजाः सर्वेयज्ञं कृत्वापदंगताः॥

पाद्म महापुराण पाताल खण्ड

अ. 8 श्लोक−35

अर्थ—शेषजी कहते हैं हे राम!—राजा मनु, सगर, नहुष के आत्मज मरुत, ये सब आपके पूर्वज, यज्ञ करने से ही परमपद को प्राप्त हुए हैं।

शतक्रतुः शतंकृत्वाक्रतूनाँ पुरुषर्षभः।

पदमापानरक्त्यां देवदैत्य सुसेवितम्॥

पाद्ममहापुराण पाताल खण्ड अ. 8−श्लोक−34

अर्थ—इन्द्र ने एक सौ महायज्ञ करके ही, उसी के फल स्वरूप, देव−दैत्य जिसका सेवन करते और करना चाहते हैं, उस सुख सौंदर्यमय स्वर्ग की प्राप्ति की।

सपृतन्तुर्महीभर्त्तात्वया साध्योमनीषिणा।

महासमृद्धियुक्तेन महाबल सुशालिना॥

पाद्मे महापुराण पाताल खण्ड अ. 8 श्लोक−32

अर्थ—शेष भगवान् श्री रामचन्द्र जी से कहते हैं कि अश्वमेध करने से आप सप्त लोकों का शासन करेंगे। तथा महा समृद्धि युक्त होकर महाबली तथा पवित्र आचरण करने वाले होंगे॥22॥

युधिष्ठिर ने शान्ति, पुष्टि को बढ़ाने वाले तथा सब कर्मों को सिद्ध करने वाले कृत्य को श्रीकृष्ण भगवान् से पूछा। श्रीकृष्ण जी बोले—

श्लोक:—

श्रीकामःशान्तिकामोवाग्रह यज्ञं समारभेत्।

दृष्टयायु पुष्टि कामो वा तथैवाभिचरन्पुनः॥

ग्रहयज्ञस्त्रिधाप्रोक्तः पुराण श्रतिकोविदैः।

प्रथमोऽयुत होमः स्याल्लक्षहोमस्ततः परम्।।

तृतीयःकोटिहोमस्तु सर्वकामफलप्रदः।

अयुतेनाहुतीनां च नवग्रह मख स्मृतः॥

होमं समारभेत्सर्पि यव व्रीहितिला दिना।

अर्कःपलाश खदिरौह्यपामार्गोऽथ पिप्पलः॥

उदुम्बर शमीदूर्वा कुशाश्च समिधः क्रमात्।

एकैकस्य चाष्टशतमष्टाविंशति वा पुनः॥

दक्षिणाभिःप्रयत्ने बहुन्वा बहु वित्तवान्।

लक्षहोमस्तु कर्त्तव्यो यदिवित्तं गृहे गृहे॥

यतः सर्वानवाप्नोति कुर्वन्कामान्विधानतः।

पूज्येतशिव लोके च वस्वादित्य मरुद्गणैः॥

यावत्कल्प शतान्यष्टावथ मोक्षमवाप्नुयात्।

सकामोयस्त्विमं कुर्याल्लक्ष होमं यथा विधिः॥

सतंकाममवाप्नोति पदं चानन्त्यमश्नुते।

पुत्रार्थीलभते पुत्रं धनार्थी लभतेधनम्॥

भार्यार्थी शोभनाँभार्यां कुमारी च शुभ पतिम्।

भ्रष्टराज्यस्तथाराज्यं श्रीकामश्रियमाप्नुयात्॥

यं यं कामयेतकामं तंतं प्राप्नोति पुष्कलम्।

निष्कामःकुरुतेयस्तु परं ब्रह्म सगच्छति॥

—अग्नि पुराण अ. 141 उ.प. 4 श्लोक 2,5,6,30,32,116,117,118,119,120,121

अर्थ:—लक्ष्मी की इच्छा करने वाला अथवा शांति चाहने वाला नवग्रह यज्ञ करे। उसी प्रकार दृष्टि, आयुः की पुष्टि चाहने वाले को भी ग्रह यज्ञ करना चाहिए। ग्रह यज्ञ तीन प्रकार कहा गया है, पुराणवेत्ता, श्रुतिवेत्ताओं के द्वारा।

पहला अयुतहोम दूसरा लक्षहोम तीसरा कोटिहोम सम्पूर्ण कामनाओं के फल को देने वाले हैं। अयुत (दस हजार) आहुतियों के देने से वह नवग्रह यज्ञ कहा गया है।

अर्क पलाश, खदिर अपामार्ग, पिप्पल, उदुम्बर शमी, (छोंकर) दूब और कुशा इन समिधाओं के क्रम से घी, जौ, व्रीहितिलादि से एक एक ग्रह को एक सौ आठ अथवा अट्ठाईस आहुतियों से हवन करें।

बहुत धन वालों को प्रयत्न पूर्वक बहुत से लक्ष होम करना चाहिये। यदि घर घर में धन हो तो विधि विधान से लक्ष होम को करने से सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति होती है और आठ सौ कल्प तक वसु आदित्य, मरुद्गणों आदि के द्वारा शिव लोक में पूजित होता है, इसके बाद मोक्ष पद को प्राप्त करता है।

जो मनुष्य सकाम भावना से इस लक्ष होम को विधि विधान से करता है उसको इच्छित काम की प्राप्ति होती है ओर अन्त समय परम पद को प्राप्त करता है।

पुत्रार्थी, पुत्र को प्राप्त करते हैं, धनार्थी, धन को प्राप्त करते हैं, भार्यार्थी, सुन्दर स्त्री को प्राप्त करते हैं और कन्या, शुभ पति को प्राप्त करती है। राज्य से च्युत राजा, राज्य को प्राप्त करता है लक्ष्मी की कामना वाला, लक्ष्मी को प्राप्त करता है।

जो पुरुष जिस जिस कामना की इच्छा करता है, उसी−उसी कामना को अधिक मात्रा में प्राप्त करता है जो निष्काम भाव से लक्ष हवन करता है वह परब्रह्म को प्राप्त करता है।

सूत जी यथा विधि कृत योगफल का वर्णन कर रहे हैं।

श्लोक:—लक्षहोमस्तुकर्तव्योयदा वित्तं भवेत्तदा। यतः सर्वमवाप्नोतिकुर्यात्कामाविधानतः॥ पूज्यतेशिवलोके च वस्वादित्य मरुद्गणैः। यावत्कल्पशतान्यष्टावन्तेमोक्षमवाप्नु यात्॥ अकामोयस्त्विमं कुर्याल्लक्षहोमं यथविधि। शतकाममवाप्नोति पदं चानन्त्यमश्नुते॥ पुत्रार्थी लभते पुत्रं धनार्थी लभतेधनम्। भार्यार्थीलभतेभार्या कुमारी च शुभपतिम्॥ भ्रष्टसज्यस्तथा राज्यं श्रीकामः श्रियमाप्नु यात्। यंयं कामयते काम सर्वंप्राप्नोति पुष्कलम्॥ निष्कामः कुरुतेयस्तु परंब्रह्माधिगच्छति। तस्माच्छत गुणः प्रोक्तः कोटिहोमः स्वयं भुवा॥

भविष्य पु.म.प. 2 अ. 20 श्लोक 34,35,36,37,38,39

अर्थ:—यदि धन हो तो लक्ष आहुतियों का होम करना चाहिये, क्योंकि लक्ष होम के विधि विधान से करने पर सम्पूर्ण कामनाओं की प्राप्ति होती है और आठ सौ कल्प तक शिव लोक में वसु, आदित्य, मरुद्गणों के द्वारा पूजित होता है। अन्त समय मोक्षपद को प्राप्त करता है।

जो पुरुष अकाम भाव से यथा विधि यज्ञ करे, वह सैकड़ों इच्छित पदार्थों को प्राप्त करता है और अनन्त पद को प्राप्त करता है।

पुत्र की इच्छा से यज्ञ करने वाले को, पुत्र की प्राप्ति होती है, धन की इच्छा वाले को, धन की प्राप्ति होती है−भार्यार्थी, भार्या को प्राप्त करता है और कुमारी, शुभ पति को प्राप्त करती है।

राज्य से च्युत, राज्य प्राप्त करता है।

अनेन विधिना यस्तु कोटि होमं समाचरेत।

सर्वान् कामानवाप्नोति ततो विष्णु पदं व्रजेत्॥

मत्स्यपुराण अ. 93।136 श्लोक

अर्थ—विधि पूर्वक जो करोड़ आहुति हवन करता है, उसकी सब कामनाओं की पूर्ति होती है और विष्णु पद को प्राप्त होता है।

सकामो यस्त्विमं कुर्याल्लक्षहोमं यथाविधि।

स तं काममवाप्नोति पदमानंत्यमश्रुते॥116॥

पुत्रार्थी लभते पुत्रान् धनार्थी लभते धनम्।

भार्यार्थी शोभनाँ भार्यां कुमारी च शुभम्पतिम्। ॥117॥

भ्रष्ट राज्यस्तथा राज्यं श्री कामः श्रियमाप्नुयात्।

यं यं प्रार्थयते कामं सवै भवति पुष्कलः। निष्कामः कुरुते यस्तु स परं ब्रह्म गच्छति॥118॥

मत्स्य पुराण; अध्याय 93

अर्थ:—कामना सहित किया हुआ लक्ष होम, कामनाओं को पूर्ण करता है तथा अनन्त पद की प्राप्ति होती है।

पुत्रार्थी को, पुत्र की प्राप्ति, धनेच्छु को, धन प्राप्ति, भार्यार्थी को, सुन्दर पत्नी व कुमारी को, सुन्दर पति की प्राप्ति होती है।

जिसका राज्य नष्ट हो गया हो, उसे वह पुनः मिलता है, लक्ष्मी को चाहने वाला, लक्ष्मी प्राप्त करता है, जिस−जिस काम के लिए प्रार्थना की जाती है, उनकी पुष्कल रूप से प्राप्ति होती है।

जो निष्काम भाव से यज्ञ करता है, वह परब्रह्म की प्राप्ति करता है।

राजा, राज्य को प्राप्त करता है, लक्ष्मी की इच्छा करने वाला, लक्ष्मी को प्राप्त करता है। जो, जिस−जिस कामना से यह यज्ञ करता है, उसकी वे सभी कामनायें पूरी हो जाती हैं।

निष्काम भाव से हवन करने वाले को निश्चय ही परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।

ऋषि गणों ने सूतजी से संसार बन्धन छूटने का उपाय पूछा। उत्तर श्री सूतजी देते हैं:—

सर्वबाधा निवृत्यर्थं सर्वान् देवान यजेत् बुधः॥

ज्वरादि ग्रन्थि रोगाश्च बाधाह्यात्मिकी मता॥100॥

पिशाच जम्बुकादीनां बाल्मीकाद्युद्भवे तथा॥

अकस्मादेव गोधादि जन्तूमां पतनेऽपिच॥101॥

गृहे कच्छप सर्प स्त्री दुर्जना दर्शनेऽपिच॥

वृक्ष नारी गवादीनां प्रसूति विषयेऽपिच॥102॥

भावि दुखं समायाति तस्मात्ते भौतिका मताः॥

अमेध्या शनि पातश्च महामारी तथैव च॥103॥

ज्वरमारी विषूचिश्च गोमारी च मसूरिका।।

जन्मर्क्ष ग्रह संक्राति ग्रहयोगाःस्वराशि के।।204।।

दुःस्वप्न दर्शनाद्याश्च मता वै ह्याधिदैविका॥

शव चाण्डाल पतित स्पर्शा दंतर्गृहे गते॥105॥

एतादृशे समुत्पन्ने भावि दुःखस्य सूचके॥

शान्ति यज्ञ तु मतिमान्कुर्यात्तद्दोष शान्तये॥106॥

—शिव महापुराण, अ. 18

अर्थ:—सभी बाधाओं की निवृत्ति के लिये, बुद्धिमान पुरुषों को, सभी देवताओं का यज्ञ—हवन के द्वारा पूजा करनी चाहिए। ज्वर आदि ग्रन्थि रोग, आध्यात्मिक बाधा, पिशाच एवं शृंगालों के उपद्रव, दीमक की उत्पत्ति, अकस्मात् यदि गोधा (गोह) का पतन हो जाय, घर में कच्छप साँप का निवास होने से, दुराचारी स्त्री−पुरुष के दर्शन से, वृक्षों के फलने तथा गौ तथा नारी के प्रसव काल में कोई संकट उपस्थित होने से, भावी भौतिक दुखों का विनाश करने के लिये, अपवित्र वस्तु का स्पर्श होने पर शनि आदि ग्रहों के प्रकोप होने पर, महामारी, विसूचिका, गौमारी, आदि आधिदैविक संकट, जन्म, नक्षत्र, ग्रह, संक्राति, योग, राशि आदि के कारण उपस्थित विपत्तियाँ, दुःस्वप्न−दर्शन, शव, चाण्डाल एवं पतितों के स्पर्श से यदि अन्तः पुर का भवन अशुद्ध हो जाय, किसी भावी संकटों की सम्भावना हो, तो शान्ति यज्ञ करके बुद्धिमान पुरुष, उन दोषों को शान्त कर देते हैं।

अग्नि यज्ञ, देव यज्ञ आदि के सम्बन्ध में जिज्ञासा करने पर सूतजी कहते है:—

सम्पतकरी तथा ज्ञेया सायमग्न्याहुतीर्द्विजाः॥

आयुष्यकरीति विज्ञेया प्रातः सूर्य्याहुतिस्तथा॥7॥

—शिवपुराण

अर्थ—सन्ध्या काल में अग्नि में आहुति देने से वह सम्पत्ति देने वाली है और सूर्योदय के समय की आहुति, आयु को बढ़ाने वाली होती है।

हवन—यज्ञ करने वाले मनुष्य को माया नहीं सता पाती। वह माया के कुचक्र में नहीं बँधता और बन्धन मुक्त होकर, परम शान्ति को प्राप्त करता है। ब्रह्माजी ने महामाया को आदेश दिया है कि वह अपना कुचक्र, यज्ञ करने वाले पर न चलावें।

महायज्ञ परान्विपान्दूरतः परिवर्ज्जय।

ये यजन्ति जपैर्होमैर्देवदेवं महेश्वरम्॥

कूर्म पुराण 2।16

अर्थ:—श्री ब्रह्माजी, महामाया से कहते हैं कि हे देवि! जो कोई यज्ञ के द्वारा महेश्वर की अर्चना करते हैं, उन्हें तुम दूर से ही त्याग दो। ऐसे व्यक्ति पर तुम अपना प्रभाव मत डालो।

आयुष्यञ्चापि भक्तानां त्रयाणाँ विधि पूर्वकम्।

यजेत जुहुयाग्नौ जपद्यद्याज्जितेन्द्रिय॥109॥

—कूर्म पुराण, अध्याय 3

अर्थ—जो भक्त जितेन्द्रिय रह कर जप और यज्ञ करते हैं, उनकी आयु बढ़ती है।

First 15 17 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • यज्ञ—भारतीय संस्कृति का आदि प्रतीक
  • दिव्य ज्ञान की बाती!
  • दिव्य ज्ञान की बाती (Kavita)
  • हिंदू धर्म में यज्ञों का स्थान तथा प्रयोजन
  • गीता में यज्ञ की महिमा
  • उपनिषदों में यज्ञ—रहस्य का वर्णन
  • रामायण में यज्ञ—चर्चा
  • भूपति मन मांही (Kavita)
  • हमरे वैरी विबुध वरुथा (Kavita)
  • यज्ञ में असुर
  • तेजस्वी इंद्रजीत
  • प्रेम भाव
  • वेदों में यज्ञाग्नि की प्रार्थना
  • यज्ञ द्वारा देव शक्तियों की तुष्टि−पुष्टि
  • पुराणों में यज्ञ महात्म्य के कुछ प्रसंग
  • यज्ञ द्वारा अनन्त सुख शान्ति
  • यज्ञ से सुसन्तति की प्राप्ति
  • शत्रु संहार में यज्ञ का उपयोग
  • यज्ञ द्वारा पापों का प्रायश्चित
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj