• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • Quotation
    • अनुभव
    • अनुभव (Kavita)
    • गर्मियों में स्वस्थ कैसे रहें?
    • शान्त विचारों की शक्ति
    • आत्म ज्ञान की शिक्षा
    • Quotation
    • राष्ट्र निर्माण के लिए चरित्र बल चाहिए।
    • कर्त्तव्य और अधिकार
    • भारतीय संस्कृति में गुरु शिष्य परम्परा
    • उद्योगी ही सफल होते हैं।
    • आप भी डायरी लिखा कीजिए
    • पारिवारिक संगठन कैसे स्थिर रहे?
    • Quotation
    • कौन आपसे घृणा करता है? और क्यों?
    • आप अधिक क्यों खाया करते हैं?
    • चैत्र नवरात्रि का सफल आयोजन।
    • इस ग्रीष्म में आप भी तप कीजिए!
    • महायज्ञ में एक अनोखी आहुति
    • द्विधा जीवन
    • द्विधा जीवन (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • Quotation
    • अनुभव
    • अनुभव (Kavita)
    • गर्मियों में स्वस्थ कैसे रहें?
    • शान्त विचारों की शक्ति
    • आत्म ज्ञान की शिक्षा
    • Quotation
    • राष्ट्र निर्माण के लिए चरित्र बल चाहिए।
    • कर्त्तव्य और अधिकार
    • भारतीय संस्कृति में गुरु शिष्य परम्परा
    • उद्योगी ही सफल होते हैं।
    • आप भी डायरी लिखा कीजिए
    • पारिवारिक संगठन कैसे स्थिर रहे?
    • Quotation
    • कौन आपसे घृणा करता है? और क्यों?
    • आप अधिक क्यों खाया करते हैं?
    • चैत्र नवरात्रि का सफल आयोजन।
    • इस ग्रीष्म में आप भी तप कीजिए!
    • महायज्ञ में एक अनोखी आहुति
    • द्विधा जीवन
    • द्विधा जीवन (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1955 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


आत्म ज्ञान की शिक्षा

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 4 6 Last
(श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज)

हे सौम्य! हे सत्यकाम! “मैं कौन हूँ” यह मालूम कर। अपने भीतर टटोल। इस संसार व शरीर की वास्तविकता को बूझ। जैसे ही तू जाग जाता है तेरा स्वप्न झूँठा हो जाता है। इसी प्रकार जब तुझे आत्म−ज्ञान हो जायगा तब यह संसार असत्य हो जायगा—अदृश्य हो जायगा। संसार केवल मन की उपज है। इसका अस्तित्व केवल सम्बन्ध रखता हुआ, परिवर्तनशील एवं परतंत्र तथा दृष्टिविषय और निर्भर रहने वाला है। यह ब्रह्म से निकलता है, उसी में रहता है तथा अन्त में उसी में मिल जाता है।

हे सत्यकाम! तेरा प्रथम कर्त्तव्य अपनी आत्मा को पहचानना है। यह आत्मा अनन्त है तथा आत्म प्रकाश है। इस तुच्छ ‘अपनेपन’ को नष्ट कर दे और सच्चिदानन्द आत्मा से संपर्क रख। शरीर, स्त्री, सन्तान तथा धन में जो आसक्ति है उसका त्याग कर दे। इच्छाओं, स्वार्थ व ‘अपनेपन’ को तिलाँजलि दे दे तथा उस पूर्ण ज्ञान ‘निर्विकल्प समाधि’ को प्राप्त कर जिसमें न कोई विषय है न उद्देश्य, न प्रसन्नता है न दुःख, न सर्दी है न गर्मी, न भूख है न प्यास। तब तू सर्वश्रेष्ठ आनन्द, अनन्त शाँति, असीम ज्ञान तथा अमर गति का भोग करेगा।

तू अज्ञान के आवरण से कृत्रिम−निद्रा के वशीभूत है। तू आत्म−ज्ञान द्वारा कृत्रिम−निद्रा से जाग और ‘अमर गति’ जान। तू कब तक माया के फन्दे में फंसा रहना चाहता है! बहुत हो चुका अब तू इन बन्धनों को तोड़। अविद्या की जंजीर को तोड़ दे—उन पाँच पर्दों को फाड़ दे और इस हाड़−माँस के पिंजरे से विजयी होकर निकल आ। मेमने की भाँति ‘में में’ न कर, बल्कि ‘ओऽम् ओऽम् की गर्जना कर, ओऽम् ओऽम् का स्मरण कर।—स्वीकार कर, सिद्ध कर और पहचान। अपनी आत्मा को पहचान और इसी क्षण बन्धन से मुक्त हो जा। तू ही सम्राटों का सम्राट है—तू ही सर्वश्रेष्ठ है। उपनिषदों के अन्तिम शब्द ध्यान में ला! ‘तत् त्वं असि’—”तू’ ही “वह” है। मेरे प्रिय सत्य−काम! ‘उसे’ जान−’उसे’ जानना ही ‘वह’ बन जाना है।

अपने भीतर टटोल। अपने को समस्त विचारों से विमुक्त कर ले! विचार शून्य बन जा। सत्य और असत्य की पहचान कर। अनन्त और अदृश्य में भेद कर। इस बहते हुए मन को बार−बार केन्द्रित करने की चेष्टा कर। विपरीत की द्वन्द्वता से ऊपर उठ। ‘नेति नेति’ के पाठ का अध्ययन कर। धोखे के चक्रों का नाश कर दे। अपने को सर्वव्यापक आत्मा से मिला। आत्मज्ञान प्राप्त कर और उस सर्वश्रेष्ठ आनन्द का भोग कर।

धर्म की प्रथम घोषणा यही है कि आत्मा एक है। ‘एक’ ‘अनेक’ नहीं हो सकता। यह कैसे संभव है? एक अनेक के समान प्रतीत अवश्य होता है, जैसे रेगिस्तान में जल का आभास, किसी स्थिति विशेष में मनुष्य, आकाश में नीलिमा, सीप की चाँदी तथा रस्सी का साँप। इसे ‘अभ्यास’ कहते हैं। इस अभ्यास को ब्रह्म−चिन्तन अथवा ज्ञान−अभ्यास द्वारा नष्ट कर दे और ब्रह्मशक्ति द्वारा चमत्कृत हो। ब्रह्म−अवस्था को पुनः प्राप्त करने की चेष्टा करे। अपने सत्−चित आनन्द स्वरूप में रमण कर।

अज्ञान के कारण ही दुःख और क्लेश व्यापते हैं। अपनी वास्तविक प्रकृति को पहचान और अनुभव कर। वास्तव में अस्तित्व, ज्ञान और सुख सम्पूर्ण हैं। तू वास्तव में अमर है तथा सर्वव्यापक आत्मा है। उपनिषद् के इस उपदेश को स्मरण रख “जीव और ब्रह्म एक हैं”। ओऽम् के रहस्य पर विचार कर और अपने स्वरूप में स्थित हो। केवल आत्म−ज्ञान द्वारा ही अज्ञान तथा तीनों क्लेशों का नाश किया जा सकता है। आत्म−ज्ञान ही तुझे अमर गति, अनन्त सुख, चिरस्थायी शान्ति और सुख दे सकेगा।

चारों वेद एक स्वर से कहते हैं कि वास्तव में तू ही अविनाशी आत्मा अथवा अमर ब्रह्म है। शाँति तथा चतुराई से अपने ऊपर के एक−एक आवरण को तथा मन को इन्द्रिय−विषयों से हटा ले। एकान्तवास कर। इन्द्रिय विषयों को विष समझ। दूरदर्शिता एवं अनासक्ति द्वारा अपने मन को वश में कर। विवेक, वैराग्य, शत−सम्पत तथा मुमुक्षत्व को सर्वश्रेष्ठ श्रेणी तक बढ़ा। सर्वदा ध्यानस्थ रह। एक क्षण भी व्यर्थ न जाने दे।

आकाश सौम्य और सर्वव्यापक है, इसलिए ब्रह्म की उपमा आकाश से दी जाती है। प्रारम्भ में तू सौम्य ब्रह्म पर विचार सकता है। पहले आकाश पर विचार कर और फिर धीरे−धीरे ब्रह्म पर। इस प्रकार गूढ़ चिन्तन में लीन हो जा।

‘ओऽम्’ ब्रह्म का चिह्न है अर्थात् परमात्मा का चिन्ह है। ओऽम् पर विचार कर। जब तू ओऽम् का चिन्तन करेगा तब तुझे अवश्य ही ब्रह्म का ध्यान होगा क्योंकि जीवन को जैसा निर्माण करना चाहते हो उससे कुछ आगे का, उत्कृष्ट, सर्वोत्तम आदर्श अपने सम्मुख रखो और फिर सुई की तरह अपने आदर्श में गड़ जाओ।

अनेक व्यक्ति यों में अनेक प्रकार की योग्यताएँ और शक्तियाँ हैं, किन्तु उसका पूर्ण उद्भव एवं प्रकाश करने के लिए धैर्यपूर्वक काम करने की आवश्यकता होती है। जब तक मनुष्य धैर्यपूर्वक निरन्तर परिश्रम द्वारा प्रत्येक वस्तु को निरीक्षण नहीं करता तब तक वह उसके मूल तत्त्वों तक नहीं पहुँच सकता। हमारा शरीर एक बाग है और हमारी इच्छाशक्ति उसमें माली। यदि हम उसमें कुविचार के बबूल बोयेंगे तो काँटे ही उत्पन्न होंगे और यदि सुविचारों के आम बोयेंगे तो स्वादिष्ट फल प्राप्त होंगे। यदि हम अकर्मी एवं सुस्त होंगे तो उस उत्तम भूमि को खराब कर देंगे और यदि परिश्रमी होंगे तो उसमें खाद देकर उसे और उर्वरा बना लेंगे। ये सब बातें हमारी इच्छाशक्ति पर निर्भर हैं। सबसे दयनीय स्थिति तो उस व्यक्ति की है जो दूसरों के विचारों का दास है, जो दूसरों के कहे अनुसार जीवन को निकृष्ट समझता है, जिसने अपने जीवन की बागडोर दूसरों के हाथ में पकड़ा दी है और जो विचार परवशता द्वारा कठपुतली की तरह नृत्य किया करता है।

अपने विचारों को चुपचाप निरीक्षण करो! देखो दिन में कैसे−कैसे विचार तुम्हारे मस्तिष्क में चक्कर लगाते हैं, तुम्हें किस प्रकार घुमाते−फिराते हैं, हृदय में कैसी मनःस्थिति उत्पन्न करते हैं। कौन सा विचार तुम्हारी मनःशान्ति नष्ट करता है और तुम्हें क्षुब्ध बनाता है।

जब कभी तुम्हारे सामने कोई जटिल समस्या उपस्थित हो तो अपनी नीर−क्षीर−विवेक करने वाली शक्ति से प्रश्न करो। सुनो उसका क्या आदेश है? वह तुम्हें किस ओर निर्देश करती है? तुम्हारी आत्मा से बाहर कोई अन्य ऐसी शक्ति नहीं है जो तुम्हारी सहायता कर सकती हो या तुम्हारी हानि करने में समर्थ हो। तुम्हारी निजी इच्छाओं के अतिरिक्त संसार की ऐसी कोई ताकत नहीं जिसका वश तुम्हारे ऊपर चल सकता हो। यदि तुम दुःख देखते हो तो यह तुम्हारी आत्मा का कालुष्य ही है, यदि तुम सुख पाते हो यह वातावरण भी तुम्हारी आत्मा के दिव्य प्रकाश से हुआ है।

क्या तुमने कभी इस प्रश्न पर भी विचार किया है कि तुम्हारी शक्ति का केन्द्र कहाँ है? तुम्हारी आत्मा ही संसार की समग्र शक्तियों को आदि विकास स्थान है और इसी के वश समग्र संसार है। जिस जिज्ञासु को अपनी आत्मा की अद्भुत शक्ति यों का सम्यक् ज्ञान हो जाता है उसके ऊपर अन्य किसी सत्ता का प्रभाव नहीं पड़ सकता। ऐसा व्यक्ति अपने पथ से विचलित नहीं होता, मार्ग की कठिनाइयों को रौंदता चलता रहता है।

दूसरा व्यक्ति वह है जो समझता है कि बाह्य संसार में कोई ऐसी शक्ति है जो उसके जीवन से सम्बन्ध रखती है तथा उसे अस्त−व्यस्त किया करती है। वह यह मानता है कि शक्ति का केन्द्र हमारे बाहर स्थित है और उसी के अधीन होकर हमारा जीवन चलता है। वह नाना प्रकार की व्याधियाँ, यातनाएँ तथा कठिनाइयाँ सहा करता है और अपने का नितान्त असहाय समझता है। उसे ऐसा प्रतीत होता है, जैसे संसार के क्षुद्र पदार्थ ही उसे क्लान्त बनाये हुए हों। जो अविद्याग्रस्त व्यक्ति इस प्रकार की कमजोर मनोवृत्ति के शिकार रहते हैं वे कदापि कुछ नहीं कर पाते। वे स्वयं अपने हाथों अपना भाग्य घट फोड़ते हैं। उनका कल्याण इसी में है कि भौतिक संसार से अपनी वृत्तियाँ हटाकर सर्वशक्ति सम्पन्न आत्मा पर केन्द्रीभूत करें।

First 4 6 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • Quotation
  • अनुभव
  • अनुभव (Kavita)
  • गर्मियों में स्वस्थ कैसे रहें?
  • शान्त विचारों की शक्ति
  • आत्म ज्ञान की शिक्षा
  • Quotation
  • राष्ट्र निर्माण के लिए चरित्र बल चाहिए।
  • कर्त्तव्य और अधिकार
  • भारतीय संस्कृति में गुरु शिष्य परम्परा
  • उद्योगी ही सफल होते हैं।
  • आप भी डायरी लिखा कीजिए
  • पारिवारिक संगठन कैसे स्थिर रहे?
  • Quotation
  • कौन आपसे घृणा करता है? और क्यों?
  • आप अधिक क्यों खाया करते हैं?
  • चैत्र नवरात्रि का सफल आयोजन।
  • इस ग्रीष्म में आप भी तप कीजिए!
  • महायज्ञ में एक अनोखी आहुति
  • द्विधा जीवन
  • द्विधा जीवन (Kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj