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Magazine - Year 1956 - Version 2

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गायत्री तपोभूमि की मधुर स्मृति

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(डा. रूपलाल बतरा देहली)

यज्ञ, दान और तप ही भारतीय संस्कृति की उज्ज्वल आधार शिला हैं। यद्यपि आज के युग में आध्यात्मिक विज्ञान के स्थान पर आधिभौतिक विज्ञान का राज्य है, किन्तु आज का विज्ञान शान्ति को नहीं अपितु क्रान्ति को एवरेस्ट के शिखर पर पहुँचाने जा रहा है। यदि ‘मनु’ की सन्तान वस्तुतः शान्ति चाहती है तो उसे अपने अतीत के आध्यात्मिक विज्ञान का सम्बल प्राप्त करना ही होगा। गायत्री तपोभूमि की इस अनुपम पाठशाला में हमारे परम पूज्य आचार्य जी समस्त प्राणिमात्र के कल्याणार्थ अपनी खोई हुई ‘निधियों’ को और चिरकाल से बिछुड़ी हुई शान्ति सहचरी को पुनः प्राप्त करने की शिक्षा दे रहे हैं। इस तपोभूमि में समस्त मानव के त्रिविध तापोद्धार के लिये ‘भागीरथ’ की तरह हमारे प्राचार्य जी ने गायत्री की निर्मल गंगा बहा दी है। विशद् गायत्री महायज्ञ की पूर्णाहुति के मंगलमय अवसर पर पहुँच कर अज्ञानान्ध सहस्रों नर−नारियों ने वस्तुतः एक दिव्य ज्योति प्राप्त की है, जिसे ‘अखण्ड ज्योति’ में सविस्तार व्यक्त करना मेरे लिये कठिन ही नहीं अपितु असम्भव है।

इस स्वर्ण अवसर पर ‘तपोभूमि’ के देदीप्यमान हवनकुण्डों में गायत्री महा-मन्त्र के द्वारा जिन्होंने आहुतियाँ दी हैं उन्होंने तो मानो ज्ञानाग्निकुण्ड में अपने चिरसञ्चित अज्ञान की ही आहुतियाँ ही हैं।

एक अकिञ्चन का इतना बड़ा आयोजन सूर्य देव की प्रचण्ड किरणों के समक्ष कितनी शान्ति और रीति से सम्पन्न हुआ, यह सोचकर आश्चर्य भी आश्चर्य से मुग्ध हो जाता है। ‘गायत्री तपोभूमि’ और ‘गायत्री नगर’ दोनों स्थानों पर ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्मयोग की त्रिवेणी बह रही थी। श्री गायत्री माता एवं पूज्य ‘आचार्य जी के प्रति अटूट श्रद्धा एवं विश्वास की झलक प्रत्येक व्यक्ति के मुख मण्डल पर विराजमान थी। आबाल वृद्ध पुरुष या स्त्री सभी भ्रातृत्व के स्नेह सूत्र में बँधे थे। ‘गायत्री नगर’ का एक-एक शिविर वस्तुतः ‘तपोवन’ बना हुआ था। सभी मनसा-वाचा-कर्मणा एक रंग में रंगे थे। क्षमा, नम्रता, सहिष्णुता, दया, कर्म परायणता आदि सभी अलौकिक गुणों से सब युक्त थे।

प्रतिदिन भारत की सच्ची संस्कृति और सभ्यता के विषय में वेद उपनिषद् स्मृति, पुराण आदि भारतीय सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थों के आधार पर जो हमें पूज्य आचार्य देव मधुर पाठ पढ़ाया करते थे, उन पाठों को खोई हुई निधि के समान प्राप्त कर मैं बड़े यत्न और स्नेह से अपने अन्तःकरण में छुपा लिया करता था और रात को सोते समय जब तक उन पाठों का अच्छी तरह मनन नहीं कर पाता था, नींद नहीं आती थी। वे दिन अब भी इन आँखों के सामने नाच रहे हैं। पूज्य आचार्य जी की वह सरल एवं वात्सल्य से ओतप्रोत मुखाकृति अनुक्षण सन्मार्ग पर मुझे अग्रसर कर रही है। मेरे पूज्य आचार्य जी 6 सहस्र नर नारियों को अपने पुत्र और पुत्रियों के रूप में देखा करते थे। आचार्य जी का यह हार्दिक वात्सल्य अन्तिम दिन रात को व्याख्यान के समय अच्छी तरह व्यक्त हो गया था। अपने आमन्त्रित बच्चों को विदा करते समय उनका कोमल हृदय पिघल गया था। गला रुंध गया था। आँखें डबडबा आई थीं। यही हाल उनके बच्चों का भी था। आज भी उन दिनों की स्मृतियाँ स्नेह सागर की ऊंची-ऊंची लहरें बन जाती हैं। प्रिय पाठक एक गूँगा व्यक्ति गुड़ की मिठास कैसे व्यक्त करे?

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