
मनुष्य देवता बन जायगा
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(श्री योगिराज अरविन्द की विचारधारा)
योगिराज श्री अरविन्द ने एक स्थान पर कहा है “कविगण मृत्यु और बाहरी कष्टों का वर्णन बढ़ा-चढ़ा कर करते हैं, पर सच पूछा जाए तो एक मात्र दुःखाँत नाटक हैं अन्तरात्मा की सफलता और एक मात्र महाकाव्य है, देवत्व की ओर मनुष्य का आरोहण” दूसरे शब्दों में मानव में छिपे दिव्य जीवन का प्रकटीकरण ही अन्तरात्मा का संतुलन है और इस संसार नाटक का अन्तिम सुन्दर दृश्य है।
श्री अरविन्द का सन्देश है कि मानव का विकास हो रहा है और उसका तब तक विकास होता रहेगा जब तक कि व्यष्टि एवं समष्टि रूप से वह पूर्ण नहीं हो जाता। वास्तव में मनुष्य का विकास जीवन और जगत के विकास का सबसे महान रहस्य है।
सृष्टि का उद्देश्य
श्री अरविन्द विकास में विश्वास रखते हैं। उनके अनुसार सृष्टि का एक ध्येय है और मानव एक उद्देश्य की ओर प्रगति कर रहा है। विकास की संक्षिप्त कहानी यों कही जा सकती है कि पहले सब जड़ था। एक स्थिति पर जड़ में जीवन आया। जो मृत दीख पड़ता था, वह जीवित हो गया। इस प्रकार वनस्पति जगत की सृष्टि हुई। जड़ जगत् में जीवन या प्राण आया, अथवा यह कहना अधिक उचित होगा कि जड़ में प्राण जागृत हुआ। जड़ जगत में प्राण, मन और आत्मा सुषुप्त अवस्था में रहते हैं।
कुछ काल और सृष्टि के गर्भ में बीता, और एक ‘प्रारम्भिक मन’ की उत्पत्ति हुई। पशु ने जन्म लिया। जब प्रारम्भिक मन का जागरण हुआ तो वनस्पति का पशु रूप हो गया। यहाँ बुद्धि भी है और उच्चकोटि के पशुओं के कुछ-कुछ विचार करने की शक्ति भी है। इन्द्रिय-ज्ञान की प्रवृत्ति ने वास्तविक मन को जन्म दिया अर्थात् मन का विकास हुआ। उसमें विचार और विवेक आया। तब मनुष्य ने जन्म लिया। मन विकसित होने पर पशु परिवर्तित हुआ और मनुष्य प्रकट हुआ। मनुष्य का मन पूर्णतया जाग्रत है और वह अपना विकास स्वयं कर सकता है। यही मानव की विशेषता है। विकास की इसी विशिष्ट स्थिति के कारण मानव कृष्ण, बुद्ध, ईसा जैसे गौरव के पद तक विकसित हुआ है और उसने जीवन का महान वास्तविक तत्त्व खोजा है।
श्री अरविन्द का कहना है कि जिस प्रकार मिट्टी और पत्थर में से पौधा उत्पन्न हुआ है, पौधे में से पशु और पशु में से मनुष्य प्रकट हुआ है, उसी प्रकार मानव में से भी एक दिन दिव्य मानव अवश्य प्रकट होगा। केवल वहीं वस्तु प्रकट हो सकती है, जो कि किसी रूप में पहले थी। केवल स्वरूप का रूपांतर हो जाता है। नास्ति में से कुछ नहीं हो सकता। मिट्टी में पौधा छिपा हुआ है, पौधे में पशु छिपा है और पशु में मनुष्य छिपा है, इसी प्रकार मनुष्य में भी दिव्य मानव छिपा है।
पशु से मानव का विकास होने में लाखों वर्ष लगे होंगे। पशु ने मानव होने के लिए कोई ज्ञानपूर्वक प्रयत्न नहीं किया था। पशु को यह ज्ञात भी नहीं था कि वह मानव होने जा रहा है। उसे अपने इस विकास का ज्ञान नहीं था। उसके अज्ञान में ही यह विकास हो गया। एक दिन आया और पशु ने अपने आप को मानव पाया।
सहस्रों शताब्दियों में वनस्पति में से पशु आया। वनस्पति को इस विकास का ज्ञान नहीं था। वनस्पति ने इस विकास के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया। इसी प्रकार जड़ मिट्टी में से वनस्पति अगणित वर्षों में उत्पन्न हुई। जड़ को इस परिवर्तन का ज्ञान नहीं था। जड़ ने इस परिवर्तन के लिए कोई प्रयत्न भी नहीं किया था।
देवत्व के लिए प्रयत्न
इस प्रकार अब तक परिवर्तन स्वयं हुआ था। प्रकृति ने ही इस परिवर्तन को किया था। उसने जड़ वस्तु, वनस्पति और पशु को इस विकास में सहायता दी थी क्योंकि वे अपना विकास स्वयं करने में असमर्थ थे किन्तु मानव की यह विशेषता है कि वह अपना विकास स्वयं कर सकता है। प्रकृति ने मानव को विकास का सामर्थ्य दिया हैं। अतएव अब विकास मनुष्य के प्रयत्न से होगा। मानव को स्वयं प्रयत्न करके दिव्य मानव बनना है। हाँ, प्रकृति इसमें सहायता अवश्य करेगी। पिछले परिवर्तन और इस परिवर्तन में यह महान अन्तर होगा।
दिव्य जीवन प्राप्त करना ही सृष्टि का उद्देश्य है। वर्तमान मानव और दिव्य मानव में बहुत अन्तर होगा। न्यूनाधिक रूप से उतना ही अन्तर समझा जा सकता है जितना पशु और मनुष्य में है। जिस प्रकार पशु यह अनुमान नहीं कर सकता था कि नवीन विकास अर्थात् मानव कैसा होगा, उसका कैसा ज्ञान होगा, कैसी शक्ति होगी, उसी प्रकार वर्तमान मानव भी दिव्य मानव के ज्ञान, उसकी योग्यता उसकी सामर्थ्य और उसकी शक्ति का उचित अनुमान नहीं कर सकता है। पशु में भी थोड़ा बहुत विचार और विवेक पाया जाता है, पर मानव में और उसमें बड़ा अन्तर है। उसी प्रकार मानव और दिव्य मानव में बड़ा अन्तर होगा।
प्रकृति स्वयं विकास में प्रयत्नशील है। सृष्टि का स्वयं विकास हो रहा है। मानव का भी विकास हो रहा है। विकास ही इस सृष्टि का विषय है, केवल हमें अपने प्रयत्नों द्वारा ईश्वर के उस महान कार्य में सहायता पहुँचानी है ताकि विकास शीघ्र हो जाये। अभी तक विकास पर्दे के भीतर हो रहा था, पर अब ज्ञानपूर्वक एवं प्रकट रूप से होगा। परिणाम यह होगा कि विकास का समय कम हो जायेगा। जो काम पहिले लाखों वर्षों में हुआ था, वह सदियों में ही हो जायेगा। मानव शनैः-शनैः विकास करके दिव्य जीवन की प्राप्ति करेगा। दिव्य-जीवन की प्राप्ति होने पर अज्ञान नष्ट हो जाता है, केवल प्रकाश और ज्ञान ही रहता है। दिव्य मानव प्रकाश में रहता है और प्रकाश से प्रकाश की ओर गति करता है। दिव्य जीवन की प्रगति के पश्चात् मनुष्य की प्रकृति बदल भी जायेगी, उसकी निम्न प्रवृत्तियाँ भी ऊर्ध्व प्रवृत्तियों में परिवर्तित हो जायेंगी। मनुष्य का मन, प्राण, शरीर, सब परिवर्तित हो जाएंगे। रोग व वृद्धावस्था के लिए स्थान न रहेगा, यहाँ तक कि मृत्यु पर भी नियन्त्रण हो जायेगा।
प्रश्न यह है कि हम इस पूर्ण विकास के पथिक बनने के लिए क्या करें। इसके लिए सबसे मुख्य बात तो यह है कि हम पूर्ण अभीप्सा तथा श्रद्धा के साथ दिव्य जीवन की कामना करें। अपनी निम्न प्रवृत्तियों को उच्च प्रवृत्तियों से स्थानान्तरित करने का प्रयास करते हुए भगवान के हाथों में अपने को सौंप दें। वह अवश्य हमें उच्च से उच्चतर स्थिति को ले जाता रहेगा।