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Magazine - Year 1968 - Version 2

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उठो, जागो, आत्मदर्शी बनो

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भारत में नदियों के मार्ग बदल गये, जंगलों के स्थान पर खेत बन गये, देश का स्वरूप बदल गया, शासन पद्धति बदल गई, जिस पर भी इस अस्थिर जगत में आप प्राचीन रीति-रिवाज को स्थिर करने में लगे हैं। अब जिस देश, काल और परिस्थितियों में रह रहे हैं, उनकी चिन्ता करें। यदि आप परिवर्तित परिस्थितियों में अपने आपको रहने योग्य नहीं बना लेते तो संसार से आपका नामो-निशान मिट सकता है। आप बहुत सोये हैं। अब उतना ही जागेंगे भी। अब सोने का युग बीत गया। अन्ध-विश्वास, पुराने रीति-रिवाज अब धीरे-धीरे दूर हो रहे हैं। बुद्धि और विवेक जाग रहे हैं। आलस्य उड़ता जा रहा है। आगे बढ़ने, सफलता पाने की क्रियाशीलता और चेतना के सभी ओर दर्शन होने लगे हैं।

यह आवश्यक है, बुराइयों के स्थान पर अच्छाइयों का बढ़ना मंगल भविष्य का प्रतीक है। किन्तु हम यह न भूलें कि सफलता का अर्थ केवल अर्थजन्य या बाह्य प्रगति ही नहीं है। हमारे भीतर एक दर्शन छुपा है, तत्व सन्निहित है, एक आत्मा निवास करता है वह, बहुत सूक्ष्म है, शाश्वत है इन्द्रियों से परे कल्पनातीत है, उसे साधना द्वारा जाना जा सकता है। अपने भीतर के इस तथ्य को जानने की जिज्ञासा जाग गई तो बाह्य जागृति का रंग सोने में सुहागे जैसा निखर उठेगा। परिवर्तन आत्मा की आकाँक्षा है उसे मूर्तरूप धारण करना चाहिये पर वह आत्मगत ही रहे।

-स्वामी रामतीर्थ

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