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Magazine - Year 1972 - Version 2

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शारीरिक विद्युत और उसका अद्भुत उपयोग

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नृतत्व विज्ञानियों को यह बात बहुत दिन से मालूम थी कि शरीर में जाल की तरह फैले हुए ज्ञान तन्तु मस्तिष्क तक कायगत जानकारियाँ पहुँचाते हैं और मस्तिष्क स्थिति को बेहतर बनाने के लिए आवश्यक निर्देश देता है तदनुसार अवयव अपना-अपना काम करते हैं। पर यह सब होता किस पद्धति से है इस रहस्य पर पर्दा ही पड़ा हुआ था। ज्ञान तन्तु का स्पर्शानुभव के क्षणभर में मस्तिष्क तक पहुँचना किस आधार पर सम्भव होता है इसका कुछ पता नहीं चल पा रहा था।

पिछले 40 साल से इस संदर्भ में बहुत प्रयोग चल रहे थे। बीस वर्ष से तो जीव भौतिकी की इस शाखा पर और भी अधिक ध्यान दिया गया। अन्त में बहुत लम्बे प्रयोग परीक्षणों के उपरान्त इस रहस्य पर से पर्दा उठाने में तीन वैज्ञानिक सफल हो गये और उन्हें इस शोध के उपलक्ष में चिकित्सा शास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला, इन तीनों के नाम हैं (1) हाजकिन (2) हक्सले (3) एकल्स।

इस त्रिगुट ने ज्ञान तन्तुओं में एक विद्युत आवेग (इंपल्स) की खोज की है और बताया कि यह बिजली किस तरह तन्तुओं और मस्तिष्कीय कोषों के बीच दौड़ती है और टेलीफोन की तरह स्थिति का संवाद संकेत पहुँचाती-लाती है। ज्ञान तन्तु एक प्रकार के बिजली के तार हैं जिन पर विद्युत आवेगों के साथ सन्देश दौड़ते हैं। एक-एक तन्तु की लम्बाई कई-कई फुट होती है। सब मिलाकर पूरे शरीर में इनकी लम्बाई एक लाख मील से भी अधिक होती है। इनकी मोटाई एक इंच के सौवें भाग से भी कम होती है।

हमारे मस्तिष्क में लगभग 10 अरब नस कोष्ट (न्यूरान) हैं। उनमें से हर एक का संपर्क लगभग 25 हजार अन्य नस कोष्ठों के साथ रहता है। इतनी छोटी सी खोपड़ी में इतना बड़ा कारखाना किस प्रकार सँजोया जमाया हुआ है इसे देखकर बनाने वाले की कारीगरी पर चकित रह जाना पड़ता है। यदि मनुष्य इतना साधन सम्पन्न इलेक्ट्रानिक मस्तिष्क बनाकर खड़ा करना चाहे तो प्रस्तुत विद्युत उपकरणों के आधार पर इस कारखाने के लिए इस धरती जितनी जगह घेरने की आवश्यकता पड़ेगी।

ज्ञान तन्तुओं से प्रवाहित होने वाले विद्युत आवेग एक सैकिण्ड में 300 फुट सैकिण्ड के हिसाब से दौड़ते हैं। यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस मानवीय विद्युत की चाल इतनी कम क्यों है जब कि टेलीफोन व्यवस्था के अनुसार शुद्ध बिजली प्रति सैकिण्ड 1,86,000 मील के हिसाब से दौड़ती है। इसका उत्तर यह है कि टेलीफोन में विशुद्ध बिजली रहती है जबकि ज्ञान तन्तुओं में एकाकी विद्युत संचार नहीं-उसके साथ रासायनिक क्रिया-कलाप भी जुड़ा रहता है।

आवेग नस संपर्क (साइनेप्स) अगले कोष्ठीय भाग के बीच की खाली जगह को लाँघकर सामने के कोष्ठीय भाग तक-आवेग उत्तेजन के क्रम से आगे बढ़ता है। इन आवेग अवरोधों को अन्तर्वाधन (इह्निविशन) कहते हैं। नस रेशों के अन्दर ऋण विद्युत रहती है उसके बाहर योग विद्युत है। इनमें सोडियम और पोटेशियम की विद्यमान मात्रा रासायनिक उपयुक्तता बनाये रहती है। इसी प्रक्रिया से संबद्ध एक ऐसा रासायनिक पदार्थ है-ट्राँसमिशन सब्स्टेंस। विद्युत कणों और रासायनिक पदार्थों की सम्मिश्रित प्रक्रिया ही इस कायगत सञ्चार व्यवस्था को गतिशील बनाये हुए हैं। इस तथ्य के रहस्योद्घाटन से वैज्ञानिकों की कैथोड के-आसिलोग्राफ-आइसोटोप टेक्निक तथा अन्य कतिपय प्रक्रियाओं को अपनाना पड़ा। अब ज्ञान तन्तुओं से प्रवाहित विद्युत आवेगों की यथार्थता और उनकी गति-विधियों के बारे में इतनी जानकारी उपलब्ध है जिसे शंका का समाधान कहकर सन्तोष किया जा सके। निस्सन्देह मनुष्य एक जीता-जागता बिजली घर है। झटका मारने वाली और बत्ती जलाने वाली स्थूल बिजली की अपेक्षा वह असंख्य गुनी परिष्कृत और संवेदनशील है। जड़ और चेतन बिजली का भावनाओं से कोई संबंध नहीं वह कसाई और सन्त का भेद नहीं करती, जो भी उससे काम ले सके उसकी विधि व्यवस्था पूरी कर सके उसका उत्तेजन पूरा करने लगती है। उचित अनुचित का भेदभाव कर सकने लायक सम्वेदना उसमें हैं ही नहीं।

मानव शरीर में संव्याप्त विद्युत में चेतना और सम्वेदना के दोनों तत्व विद्यमान हैं। इसलिए उसे मात्र नाड़ी जाल समुत्पन्न या संव्याप्त ही कहकर सीमित नहीं कर सकते। भले ही वह ज्ञान तन्तुओं के माध्यम से समस्त शरीर पर शासन करती हो, भले ही उसका प्रत्यक्ष केन्द्र मस्तिष्क में अवस्थित प्रतीत होता है पर सही बात यह कि वह आत्मा की प्राण प्रतिभा है और उसकी भावनात्मक स्थिति से प्रभावित होती है। मनुष्य का अन्तरंग जैसा भी कुछ होता है उसके अनुरूप इस चेतन विद्युत की दुर्बलता-सशक्तता दृष्टिगोचर होती है।

किसी के शरीर को छूने से प्रत्यक्ष झटका लगे इस स्तर का अनुभव इस कायिक विद्युत का नहीं होता, इसलिए मोटे विद्युत उपकरणों से वह देखी समझी नहीं जाती उसका भौतिक स्वरूप जानना हो तो उन उपकरणों की आवश्यकता पड़ेगी जो नोबेल पुरस्कार विजेता हाजकिन प्रभृति वैज्ञानिकों ने इस संदर्भ में प्रयुक्त किये थे। पर भावनात्मक स्पर्श से इसका प्रभाव दूसरे लोग भी अनुभव कर सकते हैं। किसी उच्च मनोभूमि के व्यक्ति के पास बैठने से अपनी मनोभूमि में उसी तरह की हलचल उत्पन्न होती है और दुष्ट दुराचारियों की संगति में मन, बुद्धि तथा इन्द्रिय संवेदनाओं में उसी प्रकार का उत्तेजन आरम्भ हो जाता है। व्यभिचारियों के सान्निध्य में बैठने से अकारण ही दुराचार का आकर्षण मन में उठने लगता है। सत्संग की महत्ता को जो प्रतिपादन अध्यात्म शास्त्र में किया गया है उसका कारण मात्र शिक्षा प्राप्ति नहीं है, वरन् यह भी है कि उन महापुरुषों के शरीर से निकलने वाले और समीपवर्ती क्षेत्र में फैलने वाले विद्युत प्रवाह की ऊर्जा से लाभ उठाया जाय।

चरण स्पर्श करने की प्रथा के पीछे यही रहस्य है कि तेजस्वी व्यक्तियों के शरीर को स्पर्श करके उनके विद्युत का एक अंश ग्रहण किया जाय। ताप का मोटा नियम यह है कि अधिक ताप अपने संस्पर्श में आने वाले न्यून ताप उपकरण की ओर दौड़ जाता है। एक गरम एक ठण्डा लौह खण्ड सटा दिया जाय तो ठण्डा गरम होने लगेगा और गरम ठण्डा। वे परस्पर अपने शीत ताप का आदान-प्रदान करने लगेंगे। ऐसा ही लाभ चरण स्पर्श से होता है। अधिक सामर्थ्यवानों का लाभ स्वल्प सामर्थ्यवानों को मिलने में शरीर स्पर्श की प्रक्रिया बहुत कारगर होती है।

गुरुजनों का स्नेह से छोटों के सिर पर हाथ फिराना पीठ थपथपाना जैसा वात्सल्य प्रदर्शन यों भावनात्मक ही दीखता है पर इसमें भी वह विद्युत सञ्चार की क्रिया-प्रक्रिया सम्मिलित है। इस प्रकार बड़े अपने से छोटों को एक महत्वपूर्ण अनुदान देते रहते हैं।

चिड़िया अपने अण्डे को छाती के नीचे रख कर सेती है। उसमें केवल गर्मी पहुँचाना ही नहीं-परम्परागत प्रवृत्तियां उत्पन्न करना भी एक प्रयोजन है। चिड़िया की शारीरिक विद्युत अण्डे बच्चों में जाकर उन्हें पैतृक संस्कारों से युक्त करती है। मशीन से अण्डे गरम करके भी उसमें से बच्चा निकल सकता है, पर उसमें कितनी ही संस्कारजन्य कमियाँ रह जाती है। जिन बच्चों को धाय पालती और दूध पिलाती है, माता का दूध, लाड़, दुलार, गोदी में खिलाना, पास सुलाना जैसा अनुदान नहीं मिलता वे बालक भी मानसिक दृष्टि से बहुत त्रुटि पूर्ण रह जाते हैं। समर्थ विद्युत भी दुर्बल क्षमता वालों का बहुत कुछ पोषण करती है।

साधनाकाल में रह रहे साधक अपना चरण स्पर्श किसी को नहीं करने देते, वे आशीर्वाद रूप से किसी के सिर पर हाथ भी नहीं रखते। इससे उनकी स्वल्प शक्ति का एक अंश दूसरों के पास चले जाने और अपने लिए घाटा पड़ने वाली आशंका ही सन्निहित है।

ब्रह्मचर्य, पतिव्रत, पत्नीव्रत आदि के पीछे सामाजिक, पारिवारिक कारणों के अतिरिक्त आध्यात्मिक कारण भी है। शारीरिक विद्युत आवेग नेत्रों में-वाणी में, हाथ की उँगलियों में अधिक पाया जाता है और वहाँ से वह बाहर फैलता है। सूक्ष्म रूप से मस्तिष्क में और स्थूल रूप से यह विद्युत जननेन्द्रिय में अत्यधिक मात्रा में पाई जाती है। मस्तिष्क में सन्निहित बिजली तो अध्ययन, चिन्तन, ध्यान आदि मनोयोग सम्बन्धित कार्यों में लगती है, पर जननेन्द्रिय विद्युत तो स्पर्श के माध्यम से बहिर्गमन के लिए व्याकुल रहती है। यही कामोत्तेजना का वैज्ञानिक स्वरूप है।

महापुरुष ब्रह्मचर्य का अत्यधिक ध्यान इसलिए रखते हैं कि वे कामोपभोग जैसे क्षणिक सुख में अपने महत्वपूर्ण उपार्जन को खो न बैठे। इससे दुर्बल पक्ष लाभान्वित हो सकता है। पर सबल पक्ष की हानि तो प्रत्यक्ष है। तपस्या के अनेक विघ्नों में एक बड़ा विघ्न यह है कि मानवी अथवा दैवी ‘रयि तत्व’ जननेन्द्रिय के माध्यम से उनकी शक्ति का लाभ लेने की चेष्टा करता है। विश्वामित्र, पाराशर, व्यास आदि की तप साधना के बीच काम स्खलन इसी खींच-तान का प्रमाण है। भगवान बुद्ध के चित्रों में ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में अनेक अप्सरायें उनके समीप नृत्य, परिहास करती दिखाई जाती हैं। इसके पीछे यही संकेत है। आत्म विद्युत सम्पन्न पति पत्नी अति उच्च कोटि की सन्तान उत्पन्न कर सकते हैं। भगवान कृष्ण ने रुक्मिणी सहित तीव्र तप बद्रीनारायण में करने के उपरान्त एक ही पुत्र पैदा किया था-प्रद्युम्न जो कृष्ण के समान ही रूप, गुण आदि विशेषताओं से सम्पन्न था। लोग पहचान तक न पाते थे कि इनमें कौन सा कृष्ण है। तपस्वियों की ऋषि सन्तानें अपने जनक-जननी के समतुल्य ही प्रभावशाली होते रहे है।

महापुरुष इस सञ्चित विद्युत भण्डार को काम कौतुक में खर्च करने की अपेक्षा उस क्षमता को मस्तिष्क तथा अन्य ज्ञानेन्द्रिय द्वारा असंख्य व्यक्तियों की सेवा करने में बुद्धिमत्ता अनुभव करते हैं और ब्रह्मचारी रहते हैं। यही बात महिलाओं के संबंध में है तेजस्वी और मनस्वी बनने के लिए उन्हें भी ब्रह्मचर्य द्वारा शक्ति सञ्चय के मार्ग पर चलना होता है।

कायिक विद्युत दूसरों का हित साधन करती है, अपना भी। प्रश्न सदुपयोग की सूझ-बूझ और योग्यता का है। यह बिजली यों ही शरीर और मन से खर्च होती रहती है और अस्त-व्यस्त बिखरती रहती है। यदि इसे केन्द्रित कर लिया जाय और शारीरिक-मानसिक एवं आत्मिक उत्कर्ष के लिए प्रयुक्त किया जाय तो हर क्षेत्र में आशाजनक प्रगति हो सकती है। बिजली घर में विद्युत उत्पादन का समुचित लाभ उसे किसी प्रयोजन के लिए नियोजित करके ही उठाया जा सकता है। साधारणतया यह कायिक विद्युत भण्डार दैनिक जीवन यापन में ही थोड़ा बहुत काम आता है और शेष ऐसे ही बिखर जाता है। साधना विज्ञान के आधार पर यदि उसका सदुपयोग सीखा जाय और अभीष्ट प्रयोजन के लिए उसे नियोजित करने का क्रिया-कलाप समझा जाय, तो अपने निज के इस सम्पत्ति कोष से मनुष्य सर्वांगीण समृद्धि से सुसम्पन्न हो सकता है। सफल जीवन जी सकता है।

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