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Magazine - Year 1974 - Version 2

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ईश्वर का आह्वान और आमंत्रण स्वीकार करें

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परमात्मा हमें अपनी गोदी में लेने के लिए—छाती से लगाने के लिए दोनों भुजाएँ पसार कर खड़ा है। एक भुजा है पीड़ितों, पतितों और पिछड़े हुओं का क्रन्दन। दूसरी भुजा है—सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन की पुकार। यह निनाद दिशाओं के अन्तराल में गूँजता रहता है। बहरे कान उसे सुन नहीं पाते—जो इन निनादों को सुन सके समझना चाहिए, उसके कानों ने ईश्वर का सन्देश सुन लिया।

परमात्मा के पास एक ही सर्वोपरि उपहार था—मानव-शरीर। इससे बढ़कर र और कोई बड़ी सम्पदा उसके भंडार में है। नहीं। जिस प्राणी को यह उपहार मिला, समझना चाहिए वह कृतकृत्य हो गया। सृष्टि के किसी भी जीवधारी को जो सुविधाएँ उपलब्ध है, वे मनुष्य को मिली हैं। यह उसी का काम है कि इस विभूति का बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग करके उस उच्चस्तर तक जा पहुँचे जहाँ स्वयं परमात्मा विराजमान है। चेतना के साथ जुड़े हुए बहुमूल्य साधनों का मूल्याँकन न कर पाने और उनके सदुपयोग की व्यवस्था का मूल्याँकन न कर पाने और उनके सदुपयोग की व्यवस्था न बना पाने के कारण की हमें दुख—दैन्य की कटीली झाड़ियों में भटकना पड़ता है। जीवन-लक्ष्य को समझना और उसके लिए समुचित प्रयास करना यदि किसी के लिए संभव हो सके तो निश्चित रूप से उसे नर-पशु से आगे बढ़कर नर-देव की दिव्य भूमिका में प्रवेश करने का सुअवसर मिल सकता है।

मनुष्य शरीर का अनुपम उपहार देने के उपरान्त परमात्मा अपने अन्तिम अनुग्रह का एक और अनुदान देने का इच्छुक हैं। इसी के लिए वह अपने लाड़लों को पास बुलाना, चाहता है, गोदी में लेना चाहता है, छाती से लगाना चाहता है और उस अनुदान को देना चाहता है जिसे प्राप्त करने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता, इसी आमन्त्रण के लिए उसने अपनी भुजाएँ पसारी हुई हैं। जो उनमें आबद्ध हो सका वही प्रभु की समीपता और उसकी दुलार भरी मनुहार का अधिकारी बन सका।

पतन और पीड़ा से ग्रसित पिछड़े हुए मनुष्य भले ही अपने अकर्म या अज्ञान का फल भुगत रहे हों, पर वे हमारी दृष्टि में इसी उद्देश्य से आते हैं कि सहानुभूति और सेवा, सहयोग द्वारा उन्हें ऊँचा उठाने—सहारा देने—का प्रयास करते हुए अपनी बहुमूल्य आत्मिक चेतना को उभारें। दया, करुणा, उदारता, सेवा जैसी दिव्य संपदाओं में अपने को सुसज्जित करें। इस प्रकार के प्रयासों में जो समय, श्रम, मनोयोग एवं धन खर्च होता है उसकी तुलना में लाखों गुने मूल्य का आत्मबल और आत्म-सन्तोष मिलता है। व्यक्तित्व में देवत्व का उदय होता है। प्रयत्नों में हुए खर्च और परिणाम में मिले लाभ को यदि ठीक तरह तोला जा सके तो प्रतीत होगा कि जो खोया गया, उससे लाखों गुना पा लिया।

भगवान की पहली भुजा संसार में व्याप्त अधःपतन के प्रति अधिकाधिक सहृदय होने का आमंत्रण लेकर पसारी हुई है। दूसरी भुजा का आह्वान यह है कि इस विश्व वसुधा को सुन्दर समुन्नत बनाने वाली सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में योगदान दिया जाय। कोई व्यक्ति एकाकी सुख सम्पदा एकत्रित करके सुखी नहीं बन सकता। कुटुम्ब, परिवार को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हुए मनुष्य अपनी सुखानुभूति को कई गुना बढ़ाता है। यदि ऐसा न होता तो परिवार-पालन में तो कष्ट उठाना पड़ता है और त्याग करना पड़ता है उसके लिए कोई कदापि तैयार न हुआ होता। इस सुख का जितना अधिक विस्तार करना अभीष्ट हो उतना ही अधिक विस्तृत क्षेत्र में अपनी आत्मीयता को विस्तृत करना पड़ता है। यह आत्मविस्तार, सहज ही अधिक लोगों का अधिक सुख किस प्रकार संभव हो यही सोचता है और अपनी क्षमता का बड़ा भाग इसी के लिए नियोजित करता है। कहना न होगा कि सत्प्रवृत्तियों और सद्भावनाओं के अभिवर्धन से ही व्यक्ति और समाज की सर्वतोमुखी प्रगति का पथ-प्रशस्त होता है।

ईश्वर को पाने के लिए हमें अपनी ओर से कुछ नहीं करना है केवल उसकी पसारी हुई भुजाओं में प्रवेश करना है। उसके आह्वान को सुनना और उसके आमंत्रण को स्वीकार करना भर ईश्वर मिलन का प्रयोजन पूरा करने के लिए पर्याप्त है।

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