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Magazine - Year 1988 - Version 2

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प्रज्ञा के अवलम्बन से महानता के पथ पर अग्रगमन

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महामानवों की यशोगाथा के मूल में तथ्य क्या है? इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि बुद्ध, गान्धी, ईसा लिंकन, ताओ आदि की उपलब्धियाँ आत्मिक क्षेत्र की कही जा सकती हैं, पर साथ ही इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि उनके क्रिया-कलापों से लोकहित के अनेकानेक सत्कार्य भी जुड़े हुए थे जिन्हें भौतिक उपलब्धियाँ ही कहा जायेगा।

प्रयोजन कहने का यह है कि सफलताएँ चाहे किसी भी क्षेत्र की क्यों न हो, व्यक्ति के अपने अन्तराल पर निर्भर हैं। उसी से सत्प्रवृत्तियाँ पनपती है। उन्हें जड़ भी कहा जा सकता है। तना, टहनी, पत्र, पुष्प फल उसी जड़ की उपलब्धियाँ है, जिसने आत्मिक क्षेत्र चुना तो उसने उसमें जटिलताएँ पाई। कदाचित उसने भौतिक क्षेत्र चुना होता तो अपनी आत्मिक विशेषताओं के आधार पर उनमें भी सफल होकर रहा गया होता।

तथ्यतः दोनों ही क्षेत्रों को अलग मानना ही गलती है। ऋद्धि के साथ सिद्धि जुड़ी है और सिद्धि के साथ ऋद्धि। आन्तरिक विशिष्टता ही आत्मिक क्षेत्र की प्रगति बनती है। फिर भी अराधे अध्यात्मक से कहीं सफलता नहीं मिलती। आत्म-परिष्कार और लोकमंगल के दोनों ही प्रयोजन व्यक्तित्व की, आन्तरिक विशिष्टता की अपेक्षा करते हैं। साथ ही वे दोनों ही क्षेत्र में सहगमन करते हुए आगे बढ़ते है। विवाद तो सदुपयोग का पृथक फलितार्थ उत्पन्न करता है।

आत्मिक प्रगति के साथ भौतिक अभ्युदय यदि खरा है तो उसमें आत्मिक गुणों का गहरा पुट होना ही चाहिए। दोनों प्रगतियाँ साथ-साथ चलती है। बुद्ध, गाँधी अध्यात्मिक व्यक्ति थे, फिर भी उनके साथ लोकमंगल के सुविस्तृत साधन जुड़े रहे। उनसे लोक-कल्याण का कार्य भी बहुत हुआ और उन कार्यों के लिए जितने साधनों की, जितने सहयोग की आवश्यकता थी, उसमें भी कमी नहीं रही। इसी को कहते हैं अन्योन्याश्रय सम्बन्ध। महा-मानवों की सफलताओं के मूल में भले ही देवी-देवता का नाम दिया जाए। वरदान, आशीर्वाद समझा जाए अथवा अन्तराल के क्षेत्र में की गई कृषि का सौ-गुना होकर लौटने वाला प्रतिफल।

महा-मानवों के जीवन को एक प्रयोगशाला समझा जा सकता है, जिसमें आन्तरिक विभूतियों के उत्पादन का भाव-भरा प्रयास प्राण-पण से चलता है। उसमें जब जितनी प्रखरता पनपती है उसी अनुपात से अन्तःक्षेत्र में विभूतियाँ भी प्रस्फुटित होती गई और उसी आधार पर वे सफलताएं भी हस्तगत हो जाती है, जिसे भौतिक प्रगति समझा जाता है। यह बात दूसरी है कि उन उपलब्धियों का उपयोग स्वार्थ के लिए नहीं, वे परमार्थ के लिए करते हैं। यह बताना जरूरी है कि किसी को वास्तविक सफलता अभीप्सित तो उसे क्या करना चाहिए? इसी प्रकार सर्व-प्रथम अपने अन्तराल में मुँह डालकर अपना आन्तरिक परिमार्जन और परिष्कार करना चाहिए। यह जिससे जितना बन पड़ेगा, उसको उतनी ही महत्वपूर्ण सफलताओं का श्रेय मिलेगा।

इस संदर्भ में इस भ्रम जंजाल से छुटकारा पाया जाना चाहिए कि कोई मात्र साधनों के सहारे, चतुरता के बलबूते, या उपचारों को आगे रख कर किसी ठोस प्रगति का अधिकारी बन सकता है। ऐसा न भौतिक क्षेत्र में न अध्यात्मिक क्षेत्र में संभव है। सर्वतोमुखी उत्कर्ष मनुष्य के दृष्टिकोण, स्वभाव, चिन्तन एवं चरित्र पर निर्भर है। शक्तियों का उद्गम स्रोत वहीं है।

बहिर्मुखी लोक-व्यवहार को अन्तर्मुखी आत्म-विकास में जो संलग्न करता है, उसे परिष्कृत दृष्टिकोण के नाम से जाना जा सकता है। आर्ष साहित्य में उसका उल्लेख ‘प्रज्ञा’ के रूप में हुआ है। प्रज्ञा को देवदृष्टि भी कहते है उसी को ज्ञान-चक्षु भी कहते हैं। साधनाओं के माध्यम से उसी का उन्नयन किया जाता है। देवताओं के माध्यम से उसी का उन्नयन किया जाता है। देवताओं की प्रतिमाओं में कई बार उनके तीन नेत्र दिखाये जाते है। शिव और शक्ति की प्रतिमाओं में यह अंकन विशेष रूप से होना है। शिव द्वारा तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को जला देने की कथा प्रसिद्ध है। संजय को दिव्यदृष्टि प्राप्त थी, उनने घर बैठे ही महाभारत का दृश्य देखा और धृतराष्ट्र को उसका विवरण सुनाया था। दिव्य-दर्शियों के द्वारा घटिया हुई यह घटनाएं तथ्य का संकेत करती है कि वह शक्ति सामान्य नहीं, असामान्य है। उसमें कितनी ही त्रुटि सिद्धि-सिद्धियाँ भी जुड़ी हुई है।

दिव्य दृष्टि ही प्रज्ञा है। उसकी विशेषता एक एक ही है कि जहाँ-साधारण को स्वार्थ ही सब कुछ दीखता है। शरीरगत सुविधाओं का संचय और उपभोग ही सब कुछ लगता है, वहाँ प्रज्ञावान को आत्मा के दर्शन होते हैं, परमात्मा के आह्वान मार्ग वाले संकेत मिलते है। विश्व के महामानव उसे अपने इर्द-गिर्द विचरते दीखते हैं, वे अनुभव करते हैं कि परमार्थ क्षेत्र में प्रवेश करके उनने कुछ भी गलती नहीं की। लिप्सा-लालसाओं के दलदल में कीचड़ खाकर जीने वालों की तुलना में वे अपनी राह बदलने में सफल हुए। फलतः जीवन भर आत्म-सन्तोष और आन्तरिक उल्लास का लाभ लेते रहे। जन साधारण की दृष्टि में उनका स्थान ऊंचा और सम्मानजनक रहा। सत्पुरुषों का सहयोग अनुग्रह बरसा, जिसके सहारे ऐसे प्रयोजन पूरे करते रहते ही सुविधा मिलती चली गई। दिवंगत अदृश्य महा-पुरुष उन्हें अपनी जीवन गाथा फिल्म चित्र की तरह दिखाते हुए यह भी बताते रहते हैं कि परमार्थ पक्ष अपना कर हमने खोया कम और पाया ज्यादा। दूसरे लोग शरीर समाप्त होने के साथ ही अपनी सत्ता का समापन कर देते है, पर महापुरुष है जो यश शरीर से जीवित रहते हैं और अनेकों का अद्यावधि मार्ग दर्शन करते हैं, भविष्य में भी करते रहेंगे। अमर स्तर की पट्टी से इसी कारण प्राप्त करते हैं।

यह अदृश्य दर्शन उन्हें प्रज्ञा के सहारे ही मिलता है। चार चालाकों को दुनिया सामने रहने पर भी उद्देश्य जैसी लगती रही। सतयुगी वातावरण आँखों के आगे तैरता रहता है। भले ही उसे बीते कितना ही लम्बा समय गुजर गया हो पर दिव्य-दृष्टि यही दिखाती रहती है कि उसी युग में हम रह रहे है। वैसा ही वातावरण अपने इर्द-गिर्द है। वैसा ही अपने लिए भी विद्यमान है। भले ही वह औरों के लिए अतीत की बात बन गई हो। इस उपलब्धि को प्रज्ञा का ही चमत्कार कह सकते हैं।

भ्रांतियों से यह संसार और जीवन भरा पड़ा है दिशा भूल करा देने वाली भूल-भुलैयों की कमी नहीं। अनेकानेक गोरखधंधे ऐसे है, जिसमें चिन्तन उलझ कर रह जाता है और कही से कही जा पहुँचता है। इस भ्रम की अनुभूति इसलिए नहीं होती है कि संपर्क क्षेत्र के अन्य लोग भी तो उसी प्रकार सोचते रहते और चलते दिखाई देते है। इन सबसे अपने को अलग छाँट लेना असामान्य बुद्धि का ही काम है। इसी को शास्त्रकारों ने प्रज्ञा कहा है।

इस चिंतन-क्षेत्र की विभूति को उच्चस्तरीय देवी-वरदान माना गया है। भगवान किसी पर वस्तुतः प्रसन्न होते है तो उसे यही वरदान प्रदान करते है। सामान्य अनुदान तो मनुष्य जीवन है। उसकी संरचना समस्त प्राणियों को मिले काय कलेवर की तुलना में अद्भुत और अनुपम है। अन्य हेय प्राणी तो अपनी काया से जीवन निर्वाह भर कर पाते हैं, पर मनुष्य पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। अपने योगदान से विश्व वसुधा को सुरम्य एवं समुन्नत बना सकता है। यह मौलिक अन्तर प्रज्ञा के भाव और अभाव से ही आरम्भ होता है। अन्यथा मनुष्य शरीर में भी कितने ही नर-वानर विचरते देखे जाते है।

प्रज्ञा नीर-क्षीर विवेक का उपक्रम आरंभ करती है। साथ ही इतना साहब भी प्रदान करती है कि उत्कृष्टता के उच्च शिखर पर अकेला चढ़-दौड़ने का बल और साहब प्रदान कर सके। दुनिया एक ओर और प्रज्ञावान एक और होने पर भी वह अपना मार्ग नया बना सकता है और बिना किसी के समर्थन सहयोग की आशा किये अपना मार्ग स्वयं ही बन सकता है और उस पर चल भी सकता है। अदृश्य जगत की इस उपलब्धि को एक महान वरदान कहा जा सकता है क्योंकि इस प्रकार की मनःस्थिति बनने के उपरान्त ही उस प्रकार के संकल्प उठते और प्रयास चलते है जिन्हें अपनाते पर महानता की दिशा अपनाना और उस पर चलते हुए लक्ष्य तक पहुँचना संभव हो।

प्रज्ञा के अभाव में व्यक्ति के पास मन और बुद्धि ही शेष रह जाते हैं। वे दोनों ही दर्पण की तरह है। उन पर सामने प्रस्तुत दृश्य ही प्रतिबिंबित होते हैं। सामने जो कुछ है सो प्रत्यक्ष है। वासना विलासिता, अहिंसा, संकीर्ण स्वार्थपरता जैसी हेय प्रवृत्तियाँ ही सब लोग अपनाये हुए दीखते हैं, उन्हीं का ‘अक्स’ मन पर उतरता है। वह मनचली कुकल्पनाओं में विचरने लगता है। आकाँक्षाएं भड़कती है। बुद्धि भी वाहन की तरह उन्हीं का समर्थन करने लगती है। फलतः क्रिया-कृत्यों की योजनाएं बनती हैं और उनके कार्यान्वित होने का क्रम चल पड़ता है। बहुमत का दबाव अल्पमत को अपनी ओर घसीट ले जाता है। फलतः उसी प्रकार का जीवन क्रम बन पड़ता है जैसा कि नर-वानरों का समुदाय अपनी उचक-मचक में निरत रहता है।

बहाव की दिशा में तिनके, पत्ते से लेकर टूट पेड़ और मरे हुए हाथी तक बहते चले जाते हैं। उस प्रतिरोध रहित समूह का अन्ततः खारे समुद्र के ऐसे गर्त में गिरना पड़ता है जिसमें जाकर सड़, गल जाने और समाप्त होने के अतिरिक्त और कोई नियति नहीं।

इस स्थिति से उबारने में मात्र प्रज्ञा ही सहायता करती है। वह मछली जैसा शौर्य, पराक्रम प्रदान करती है जो धारा के विपरीत दिशा में छरछराती हुई उलटी तैर सके। संकीर्ण स्वार्थपरता के प्रवाह में बहने से अपने को बचा लेना आत्मक्षेत्र का परम पुरुषार्थ माना गया है। इसका महात्म्य सुनकर कई व्यक्ति पूजा पाठ कर और गृहत्यागी तो बनते देखे गए हैं, पर उनका मन तो प्रलोभनों में ही रमता रहता है। अहंता की पूर्ति के लिए देखते-देखते आत्मिक गरिमा समाप्त हो जाती है और भीतर कुछ बाहर कुछ का उपहासास्पद प्रपंच रच कर खड़ा हो जाता है। इस जाल-जंजाल में उलझने पर माया मिली न राम वाली उक्ति चरितार्थ होती है।

प्रज्ञा आन्तरिक दुर्बलताओं से जूझती है। संचित कुसंस्कारी दबाव से लड़ती है। वातावरण के गुरुत्वाकर्षण द्वारा अधोगमन के संकट से उबारती है। साथ ही आदर्शवादी संकटाकीर्ण मार्ग पर अनवरत गति से चलते रहने का साहस प्रदान करती है। आत्मापमानों और आघातों को आघातों को सहन करते जाने, उन्हें अपनी शालीनता पर न हावी होने देना यह भी अपने आप में अलौकिक कार्य है। प्रज्ञा ही है जो इन सबके लिए आवश्यक सरंजाम जुटाती है।

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