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Magazine - Year 1990 - Version 2

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हम में से कोई सचमुच ही बुद्धिमान है क्या?

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सराहनीय बुद्धिमत्ता वह है, जो दूरदर्शी विवेकशील की पक्षधर हो। जिसके साथ मानवी गरिमा के अनुरूप मर्यादाओं का परिपालन और वर्जनाओं के संदर्भ में अनुशासन का परिपालन और जुड़ा हुआ हो। जो इन कसौटियों पर खरी न उतरे, उस दक्षता को धूर्तता का ही नाम दिया जा सकता हैं। इस दृष्टि से तो सियारों और लोमड़ियों को भी चिरकाल से ख्याति प्राप्त है। यदि वस्तुतः मनुष्य बुद्धिमान है तो उसे क्रिया की प्रतिक्रिया से परिचित होना चाहिए। नीति और अनीति के बीच अन्तर करना चाहिए और क्रिया की प्रतिक्रिया पर विश्वास करना चाहिए। वस्तुस्थिति समझने और उपलब्धियों का सदुपयोग कर सकने में भी उसे समर्थ होना चाहिए।

आश्चर्य इस बात का है कि बुद्धिमत्ता का विपुल वैभव उपलब्ध होने पर भी मनुष्य अपने हित-अनहित का सही मार्ग ढूँढ़ नहीं पाता, सीधी चाल चलने तक में आये दिन चूक करता रहता है। अपनी बहुमूल्य समझदारी को, क्षमता और दक्षता को उन कार्यों में खर्च करता देखा जाता हैं, जो भ्रान्तिवश लाभ जैसे प्रतीत होते हैं, पर वस्तुतः हानिकारक ही सिद्ध होते हैं।

खजांची की तिजोरी में भरी धन राशि इसलिए नहीं रखी रहती कि वह उसे अपनी निजी सम्पदा समझे और मनचाहे जैसे खर्च करे। सरकारी अफसरों को बड़े अधिकार और सशक्त साधन प्रदान किये जाते हैं। पर उनका प्रयोग सौंपे गये उत्तरदायित्वों की पूर्ति में ही हो सकता है। कोई उन्हें अपनी बपौती समझकर स्वार्थ सिद्धि के लिए मनचाहे ढंग से प्रयोग करने लगे, तो पदच्युत होगा और अनाचार के लिए दंड का भाजन भी बनेगा। सेनाध्यक्ष के तत्त्वावधान में विपुल शक्ति भण्डार केन्द्रित रहता है, पर वह है मात्र राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ही। निजी लाभ कि लिए उस व्यक्ति का उपयोग कर लेने वालों को कोर्टमार्शल उसे मृत्युदण्ड देकर उचित नसीहत देता है।

जो सुविधाएँ अन्य प्राणियों को उपलब्ध नहीं हैं, उसे मात्र मनुष्य को ही उपलब्ध कराने में स्रष्टा का पक्षपात एवं अन्याय प्रतीत होता है। पर वास्तविकता ऐसी है नहीं। यह सर्वोपरि कलाकृति जिन हाथों में सौंपी गई हैं, उनसे यह भी अपेक्षा रखी गई है कि वे उसे मात्र विश्व उद्यान को सुरम्य बनाने के लिए ही प्रयुक्त करें। अन्य प्राणियों के लिए निर्वाह ही इतना भारी पड़ता है कि उसे जुटाने में ही उन्हें अपनी समूची क्षमता खपानी पड़ती है, किन्तु मनुष्य के लिए मुट्ठी भर आटे की इतनी स्वल्प आवश्यकता हैं, जो कुछ ही समय के रम से भली-भाँति पूरी हो सकती है। इसके बाद जो कुछ समय, श्रम कौशल एवं साधन बचता हैं, वह मात्र इस प्रयोजन के लिए है कि उसका सदुपयोग करके आत्मपरिष्कार का स्वार्थ और लोकमंगल का परमार्थ, दुहरे लाभ के रूप में अर्जित कर लिया जाय।

सही राह पर सही रीति से चल पड़ने को ही दैवी परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ समझा जाता है और उसे नर-वानरों की पंक्ति से उठाकर महामानवों में, ऋषि मनीषियों में और देवदूतों में गिना जाने लगता है। इस स्थिति में जो अनुभूतियाँ होती रहती हैं, उन्हीं को स्वर्ग-मुक्ति के नाम से संबोधित किया गया है। जीवन को उत्कृष्ट आदर्शवादिता के साथ जोड़ लेने पर वह स्थिति बन जाती है, जिसमें कुशल मल्लाह की तरह स्वयं पार उतरने और अनेकों को अपनी नाव में बिठाकर पार करने का श्रेय सुनिश्चित रूप से मिल सके। यही तो जीवन लक्ष्य है, जिसे प्राप्त करने वाले ऋद्धि-सिद्धियों के अधिष्ठाता और लाभ भरी कृतार्थता अर्जित करने में सफल होते है यह तथ्य समझाते समझाते रहने पर भी अपनी दुराग्रही हेय गतिविधियों को ही अपनाये रहना ऐसा हैं, जिसे अत्यन्त कष्टकर प्रताड़ना के साथ वहन करना पड़ता हैं।

आप्तजनों ने सच ही कहा है कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। उसकी एक मुट्ठी में स्वर्ग और दूसरी में नरक सँजोया हुआ है। उत्थान और पतन में से किसी का भी चयन कर लेना उसकी अपनी मर्जी की बात है। खेद इस बात का है कि हित को अनहित और अनहित को हित समझकर वह किया जाने लगता है, जिसे उलटी दिशा में उलटे पैरों चलने का बीनापन ही कहा जा सकता है।

बुद्धिमत्ता यथार्थता समझने और दूरदर्शी विवेकशीलता से जुड़ी हुई होनी चाहिए। जहाँ वह वस्तुतः होगी, वहाँ सद्विचारों को अपनाये जाना सदाचार पर आरूढ़ होने और सद्व्यवहार के रूप में सेवा साधना के पथ पर अग्रसर होने का प्रमाण मिलना चाहिए। धर्म-धारणा का एक ही प्रमाण-परिचय है कि मनुष्य स्वयं को अपने प्रति कठोर और दूसरों के प्रति उदार बनाये, अपने को तपाये गलाए और देव मानवों के अनुरूप दृष्टिकोण और क्रिया-कलाप का उपक्रम बनाए। यदि वैसा कुछ न बन पड़े, तो समझना चाहिए कि लोभ मोह के भवबंधनों की हथकड़ी-बेड़ी जानबूझकर पहन ली गई हैं।

परमेश्वर का वरिष्ठ राजकुमार अपने पिता के आदर्शों अनुशासनों का निर्वाह करते हुए दीख पड़ना चाहिए। उसे सूर्य चन्द्र की तरह असंख्यों को प्रकाश प्रेरणा देते रहने में सतत् संलग्न रहना चाहिए। उसकी आभा और ऊर्जा से सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने में योगदान मिलना चाहिए। इसी भावना, मान्यता, विचारणा और क्रिया पद्धति अपनाने में उसका आत्मगौरव है। उसकी ओर से मुँह मोड़ने पर तो यही कहा जायेगा कि सिंहशावक ने भेड़ों के झुण्ड को अपना सदस्य मान लिया है और उन्हीं की तरह मिमियाना सीख लिया है। जब आत्म स्वरूप का बोध हो और दिशाधारा में कायाकल्प जैसा परिवर्तन प्रस्तुत हो, तभी समझना चाहिए कि मनुष्य को बुद्धिमान समझे जाने की बात अपने सही स्वरूप में उभर रही हैं।

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