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Magazine - Year 1990 - Version 2

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जब मनुष्य नितान्त एकाकी होता है, उसके पास, आस-पास कोई भी नहीं होता तब कोई पा करने में जो भय लगता है, एक आशंका बनी रहती है, वह किसी कारण होती? बार-बार ऐसा क्यों लगता कि कोई अदृश्य आंखें उसके दुष्कर्म को देख रही हैं? क्यों पूरे उत्साह के साथ उसका मन पापकर्म में नियोजित नहीं हो पाता? क्या कभी कोई इस पर विचार करता है कि जब कोई उसके पाप को देखने वाला प्रत्यक्ष मौजूद नहीं, तब उसे भय किसका है, व किस से डर रहा है? वह कौन है जो उसके मन, प्राण व काया में कम्पन्न उत्पन्न कर देता है?

निस्संदेह यह उसका अपना अन्तःकरण ही है, जो उसे पापकर्म से विरत करने के सतत् प्रयासों द्वारा विविध प्रकार की शंकाओं, संदेहों व भय की कल्पना जैसे अनुभवों से वैसा न करने का संकेत देता रहता है। जो मनुष्य अपने अन्दर बैठे चित्रगुप्त के इन संकेतों की उपेक्षा नहीं करता, वह पापकर्म से बच जाता है। जो मनुष्य अवहेलना करता है व ऐसा कर बैठता है, उसका अंतःकरण एक न एक दिन उसकी गवाही देकर उसे दण्ड का भागी बनाता है। यह संभव है कि किसी का दुष्कर्म दुनिया से छिपा रहे किंतु उसके अपने अंतःकरण से कदापि नहीं छिप सकता। ऐसे व्यक्ति की एक-एक क्रिया और विचार उसके अंतःकरण से साक्षी रूप में अभिव्यक्ति देते हैं। यदि किसी कारणवश मनुष्य को अपने पाप का दण्ड नहीं मिला पाता तो समय आने पर अन्तःकरण स्वयं उसे दण्डित करता है। उचित यही है कि हम अन्तःकरण में विद्यमान परमात्मा की पुकार सुनें, उसका अनुसरण करें।

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