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Magazine - Year 1991 - Version 2

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प्रवचन सार्थक हो जाए (Kahani)

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परम पूज्य गुरुदेव अपने “ढाई” मित्रों की चर्चा अक्सर किया करते थे। आगरा से मथुरा आने पर उनने जो मित्र बनाए उनकी सबकी गिनती इन्हीं में होती थी। इनमें एक वकील साहब थे जिनसे पहली बार मुलाकात 1940 में पत्रिका का डिक्लेरेशन फार्म भरवाने के दौरान हुई थी। संबंध ऐसे प्रगाढ़ हुए कि वे घर जैसे हो गए। दैवयोग से उन्हें पंद्रह वर्ष बाद क्षयरोग हो गया। घर के सभी अंतरंग परिजन कहे जाने वाले रिश्तेदारों से भी इन्हें ऐसे समय उपेक्षा मिली। छूत के डर से कोई साथ रहने व सेवा करने को तैयार न था।

परम पूज्य गुरुदेव उन्हें अपने साथ तपोभूमि ले आए। नित्य अग्निहोत्र में अपने साथ बिठाते। अंकुरित अन्न व तुलसी दल अपने हाथों से उन्हें देते। प्राणायाम कैसे किया जाय, यह शिक्षण सतत देते। मात्र दो माह में ही वे स्वस्थ हो पुनः काम पर लग गए। जिनका कोई भी न हो, उनके स्वयं भगवान सखा होते हैं, यह उक्ति अक्षरशः सत्य हुई।

मेरी उपासना की प्रक्रिया इसी प्रकार चलती हुई चली गयी। लम्बे जीवन भर में गायत्री मंत्र का जप करता रहा, स्थूल उपासना भी करता रहा, पूजा-प्रार्थना भी करता रहा। लेकिन अपने अन्तरंग में गायत्री की उन तीन धाराओं को, जिन्हें मैं सूक्ष्म धाराएँ कहता हूँ, उनको भी अपने जीवन में धारण करने की कोशिश मैं करता रहा। अब जब कि मथुरा के मेरे जीवन का अन्तिम गायत्री जयन्ती का अवसर है, तब मैं आपको अपने जीवन के अनुभव न सुनाऊँ तो यह उचित न होगा। इस अन्तिम अवसर पर अपने सारे जीवन, साठ वर्ष के निष्कर्ष जिसको आप चाहें तो गायत्री चमत्कार का मूल आधार कह सकते हैं, बता रहा हूँ। मेरे व्यक्तित्व में महानता आप समझते हों, गायत्री मंत्र की महत्ता के द्वारा आदमी को कुछ परिणाम मिल सकते हैं अगर ऐसी आपकी मान्यता हो तो उस मान्यता के साथ एक और मान्यता जोड़ लेने की मेरी प्रार्थना है कि गायत्री ध्यान करने के लिए वास्तव में कोई महिला नहीं, विवेकशीलता और विचारशीलता की धारा के प्रवाह का नाम है जो इस विश्व में प्रवाहित है, जो मनुष्य के मस्तिष्क को, क्रियाकलाप को और अन्तरात्मा को छूता है। ध्यान के समय आप हंस पर सवार हुई गायत्री का ध्यान करें बेशक, लेकिन यह भी ध्यान करें कि गायत्री माता सिर्फ हंस पर सवार होंगी, बगुले पर नहीं। हंस वह जो नीर-क्षीर का भेद जानता हो। दूध पी लेता हो, पानी को फेंक देता हो। इस दुनिया में पाप और पुण्य, अनुचित और उचित दोनों मिले हुए है। अंतरात्मा जिसे अनुचित कहे, उसे हम ठुकराएँ। जिसे उचित कहे उसी को स्वीकार करें, यह है हंसवृत्ति। यह है हंस पर सवार भगवान हम पर सवारी करें इसलिए हमको हंस बनना चाहिए, सफेद बनना चाहिए।

यदि यह विवेकशीलता हमारे भीतर आ जाए तो हमारे जीवन की दिशाएँ बदल जाएँ। इस विवेकशीलता को मैं ऋतम्भरा प्रज्ञा कहता हूँ, गायत्री कहता हूँ । अगर यह हमारे अन्तरंग में आ जाए तो हमारे जीवन का कायाकल्प हो जाए, हमारे काम करने और इच्छा करने के ढंग बदल जाएँ। तब हम भगवान बन जायँ, हमारे पास न लक्ष्मी की कमी रहे, न विभूतियों की।

मैंने गायत्री उपासना को ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में समझने की कोशिश की और समझाने की भी। लेकिन लोगों ने उसके बाह्य कलेवर को जो सुगम था और ऐसा मालूम पड़ता था कि हमारी कामनाओं और इच्छाओं को पूरा करने में सहायक है, उतने वाले हिस्से को पकड़ लिया और बाकी वाले हिस्से को भूल गया। असंयमी रोगी के लिए अच्छा हकीम कौन? वह जो मनमर्जी का भोजन करने दे। सबसे अच्छी देवी कौन? जो हमारी कामनाओं को पूरा करे। वही देवी है गायत्री। अपनी इच्छा के अनुरूप हमने देवता ढालने की कोशिश की इसीलिये देवता की समीपता से पूर्णतया वंचित रहे और वंचित ही रहेंगे। जिनने भगवान की इच्छा के अनुरूप स्वयं को ढालने की कोशिश की, वे भगवान के कृपापात्र बन गए और सारे माहात्म्य गायत्री के प्राप्त कर सके। मैंने ऐसा ही जीवन जिया, इसी रूप में गायत्री मंत्र को समझा, उपासना की, जप किया और जप के साथ भावनाओं को हृदयंगम किया।

जब मैं चला जाऊँ और जब आप लोग यह विचार करें कि क्या गायत्री मंत्र सामर्थ्यवान है तब आपको यह कहना चाहिए और समझना चाहिए कि हाँ-गायत्री मंत्र सामर्थ्यवान है। अगर आप उसकी भावना की अन्तरंग में प्रवेश करा सकें तो आपको यह मानकर चलना चाहिए कि सारी की सारी जो सामर्थ्य भगवान में है, वो सब की सब भक्त में हो सकती हैं तो वह दुनिया को लाभ दे सकता है और अपना कल्याण कर सकता है।

आप अपनी मान्यताओं में यदि यह एक अध्याय और जोड़ लें तो मैं समझूँ कि मथुरा में गायत्री जयन्ती का मेरा यह अन्तिम प्रवचन सार्थक हो जाए। गायत्री मंत्र और गायत्री विद्या का आविष्कार जिन महामानवों ने किया था, उनका उद्देश्य और प्रयोजन पूरा हो जाए।

इन शब्दों के साथ मैं अपनी बात समाप्त करता हूँ। ॐ शान्ति।

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