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Magazine - Year 1994 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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मानवी व्यक्तित्व के सूक्ष्मतम सूत्रधार

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First 16 18 Last
मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास-निर्माण में आमतौर से वातावरण और प्रयत्न-पुरुषार्थ का महत्व माना जाता है। यह मान्यता एक सीमा तक ही ठीक है। क्योंकि एक जैसी परिस्थितियों में जन्में और पले बालक आगे चलकर भारी भिन्नता युक्त देखे गये हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि संतान के व्यक्तित्व का ढाँचा बनाने में जो जीवन तत्व काम करते हैं, वे न जाने कितनी पीढ़ियों से चले आते हैं। मातृकुल और पितृकुल के सूक्ष्म उत्तराधिकारियों से वे बनते हैं। सम्मिश्रण की प्रक्रिया द्वारा वे परंपरागत स्थिरता ही नहीं बनाए रहते, वरन् विचित्र प्रकार से परिवर्तित होकर कुछ से कुछ बन जाते हैं।

मनुष्य ही नहीं, वरन् पृथ्वी पर पाए जाने वाले जितने भी प्रकार के वनस्पति एवं प्राणी समुदाय के जीव पाए जाते हैं, उन सबके जीवन का आधार वैज्ञानिकों ने खोज निकाला है। इस सदी के पूर्वार्द्ध के बाद इस संबंध में इतना अधिक अनुसंधान हुआ है कि इसके लिए नित नयी रिपोर्ट तैयार होती है। शोध की इतनी तीव्र गति होने का श्रेय इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप एवं ‘ साइवरनेटिक्स ‘ जैसी विधा को है, जिसमें वैज्ञानिक यंत्रों की सहायता से विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों की जानकारियों को समग्र रूप से प्रस्तुत किया जाता है।

छोटे से छोटे जीव अमीबा से लेकर जटिलतम संरचना वाले मानव शरीर की रचना एक ही प्रकार के जीवन रस से हुई मानी जाती है। विभिन्न प्रकार के जीवों की शरीर रचना बनाने के सूत्र संकेत अपने में समेटे हुए, पदार्थ को वैज्ञानिकों ने डी. एन. ए. डीआँक्सीराइबो न्यूक्लिक अम्ल नाम दिया है। यही डी. एन. ए. नामक जीवन रस वंशानुक्रम के सब रहस्यों को अपनी पिटारी में बन्द किये हुए रहता है। गुण सूत्रों पर चिपके हुए इस डी. एन. ए. में अनेकानेक अति सूक्ष्म नाजुक स्प्रिंग जैसे पदार्थ इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी यंत्र द्वारा देखे जा सकते हैं। जिन्हें ही “ जीन्स “ कहा जाता है। जीन्स में स्मृति कोष होते हैं और माइक्रोस्कोपिक कंप्यूटर में जैसे विभिन्न प्रकार के संकेत एवं विस्तृत सूचनायें निकलती रहती हैं, उसी प्रकार इनमें शरीर की रचना के बारे में जीव कोषों को निर्देश मिलते रहते हैं। जिससे शरीर के करोड़ों विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं में परस्पर समन्वय स्थापित होता है।

शरीर के लाल रक्त कणों एवं कुछ विषाणुओं को छोड़कर प्रत्येक जीव में डी. एन. ए. पाया जाता है। वयस्क मनुष्य के शरीर में डी. एन. ए. के 600 अरब ‘ ऊर्जा पैकेट्स ‘ पाए जाते हैं। इन सबकी रासायनिक संरचना समान एवं आकार-प्रकार एक सा होता है। केवल मनुष्य में ही नहीं, घास के पत्तों, कुत्ते, बिल्ली, चूहे आदि प्रत्येक जीवधारी शरीर रचना में डी. एन. ए. के पैकेट्स का आकार-प्रकार एवं रासायनिक संरचना एक सी होती है। जीवों में विभिन्नता लाने के

‘ कोड ‘ डी. एन. ए. में ही छिपे होते हैं जिसके फलस्वरूप ही चिड़ियां, मछलियाँ, वनस्पति, कीट पतंगों एवं विभिन्न प्राणियों की सृष्टि होती है। डा. हरगोविन्द खुराना नामक भारतीय वैज्ञानिक ने आर. एन. ए.-राइबो न्यूक्लिक एसिड की संरचना के बारे में विशेष शोध कार्य किया जिससे उन्हें सन् 1961 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

विभिन्न प्राणियों में जाति के अनुसार क्रोमोसोम्स-गुणसूत्रों की संख्या निर्धारित हुआ करती है। सबसे अधिक गुणसूत्रों की संख्या मनुष्य में पायी जाती है। मनुष्य में इनकी संख्या 46 अर्थात् 23 जोड़ी होती है। जीवन धारण के समय भ्रूण कलल में 23 गुणसूत्र माता से और 23 गुणसूत्र पिता से संयुक्त होते हैं। प्रत्येक मनुष्य का व्यक्तित्व, उसके स्वभाव की बनावट का आधार गुणसूत्रों की संरचना में सन्निहित होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के फेफड़े, हृदय, गुर्दे, रक्त का समूचा भंडार और 35 फुट लम्बी आंतें आदि की रचना का संकेत डी. एन. ए. में छिपा होता है। मानव शरीर के विभिन्न जीवकोषों की बाहरी संरचना रासायनिक रूप से एक सी होती है। शरीर के विभिन्न अंग-अवयवों को विभिन्न कार्य करने होते हैं। त्वचा, आँख, कान, नाक आदि की बनावट डी. एन. ए. के संकेत के अनुसार होती है। यह प्रक्रिया गर्भकाल में तो चलती ही रहती है, परन्तु मनुष्य के पूरे जीवन काल में निरंतर जीवकोषों का रद्दोबदल होता रहता है।

जीवकोष के केन्द्र में बैठा डी. एन. ए. पूर्व नियोजित संस्कारों के संकेत देता रहता है। उसी के फलस्वरूप पाचनक्रिया, दिल की धड़कन, विचार एवं संवेदनाएं होती हैं। डी. एन. ए. को आधुनिक वैज्ञानिकों ने बायोकैमिकल पैरामीटर्स एव बी-एम, आर-बेसिक मेटाबाँलिक रेट का संतुलन करने वाला बताया है। इसकी रचना के बारे में वैज्ञानिकों ने बताया है कि सूक्ष्मदर्शी यंत्र से देखने पर यह सर्पिलाकार टेप जैसी संरचना वाला होता है। डी. एन. ए. का अणु भार 3 लाख से अधिक होता है और यदि उसके अणु के टेप शृंखला को खोलकर एक सीध में रखा जाए तो उसकी लम्बाई 5 फुट हो जाएगी। हमारा शरीर चूंकि कोशिकाओं की ईंटों से बना हुआ होता है और एक युवक के शरीर में यह कोशिकायें 600 खरब तक होती हैं इसलिए यदि सम्पूर्ण शरीर के डी. एन. ए. को खींच कर रस्सी बनायी जाए तो वह इतनी बड़ी होगी, जिससे सारे ब्रह्माँड को नाप लिया जाना संभव हो जाएगा। इस संदर्भ में शिकागो युनिवर्सिटी के मूर्द्धन्य कोशिका विज्ञानी डा. जार्ज बीडल का कहना है कि इसके अणु की संरचना इतनी लंबी इसलिए होती है कि जीवन

काल की अवधि के सभी संकेत इसी के अणु इकाइयों में संग्रहित हुआ करते हैं।

डी. एन.ए. के अणु की रासायनिक संरचना में तीन प्रमुख रासायनिक पदार्थ पाए जाते है- सुगर, फास्फेट और नाइट्रोजन के यौगिक। इसकी रचना घुमावदार सीढ़ी जैसी होती है। सीढ़ी के एक ओर सुगर, दूसरी ओर फास्फेट और बीच में नाइट्रोजन यौगिकों की होती है। जीवन के सारे रहस्य इन नाइट्रोजन यौगिकों में छिपे हुए हैं, ऐसा वैज्ञानिकों का अनुमान है जिसके रहस्यमय संकेतों को समझने के लिए विशद अनुसंधान चल रहें हैं।

सन् 1900 के आरम्भ में सुप्रसिद्ध अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. सटन ने गुणसूत्रों (क्रोमोसोम्स) के बारे में विज्ञान जगत को बताया। उनके अनुसार हर जीवकोष में गुणसूत्र व जीन्स जोड़ बनाकर रहते हैं। प्रत्येक जोड़ का एक भाग माँ एवं एक भाग पिता से आता है। शुक्राणु में जोड़ का एक ही भाग विभाजित होकर आता है जो ‘Y’ (वाय) क्रोमोसोम कहलाता है। डिम्बाणु में जोड़ का दूसरा भाग होता है जिसे ‘X’ (एक्स) क्रोमोसोम कहते हैं। ‘XX’ मिलकर मादा व XY मिलकर नर बनाते हैं। मनुष्य में 23 जोड़ क्रोमोसोम-गुणसूत्र होते हैं जिनमें 22 जोड़ (44 कुल) ‘ ऑटोसोम्स ‘ कहलाते हैं। ये शरीर रचना से सम्बंध रखते हैं। एक जोड़ ‘ सेक्स क्रोमोसोम ‘ कहलाता है। इसी से लिंग (नर या मादा) का निर्धारण होता है। मादा में XX व नर में XY का जोड़ होता है। इन्हीं क्रोमोसोम्स में सूक्ष्म न्युक्लियो प्रोटीन के कण होते हैं, जिन्हें ‘जीन्स’ कहते हे अर्थात् जिस प्रकार एक डोरे में थोड़ी -थोड़ी दूर पर गांठें लगा देते हैं। इन गुणसूत्रों में भी गांठें लगी हुई होती हैं। इन गाँठो को ही ‘जीन्स’ कहते हैं। ये विशेष स्थानों पर स्थित होते हैं जिन्हें ‘लोकस’ कहते हैं और इसी आधार पर जीव की सारी विशेषताओं का निर्धारण होता है।

एक “जीन” हेरेडिटी अर्थात् आनुवाँशिकता की रासायनिक इकाई है जो नर-मादा के संयोग से बनने वाले भ्रूण कलल में पहुँच कर उसकी मूल संरचना एवं विभाजन द्वारा प्रत्येक कोष में पहुँच कर उनकी विभिन्न विशेषताओं का स्वरूप निर्धारित करता है। गुणसूत्रों में 50-60 प्रतिशत प्रोटीन, 25-48 प्रतिशत डी. एन. ए. एवं शेष आर. एन. ए. नामक जीवन तत्व होते हैं। सर्वप्रथम डॉ. जेम्स वाटसन एवं डॉ. फ्रांसीसी क्रिक नामक वैज्ञानिकों ने डी. एन. ए. की संरचना का मूल आधार बनाया और यह बताया कि विभिन्न गुणों का प्रतिनिधित्व किस प्रकार इसकी सर्पिल संरचना पर दर्शाया जा सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार हर जीव डी. एन. ए. के अणु पर एक सुनिश्चित स्थान पर स्थित होता है और आनुवाँशिक सूचनाएं आर. एन. ए. के अणु को पहुँचाता है। आर. एन. ए. केन्द्रक से मिल कर जीवकोष के साइटोप्लाज्म में जाता है जिससे संरचना से संबंधित संस्थानों को गुणों के विषय में निर्देश दिया जा सके।

पैतृक गुणों के निर्वाह के लिए ‘ जीन्स ‘ को ही उत्तरदायी माना जाता है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को गुणों का स्थानान्तरण ‘ आनुवाँशिकी ‘ (हेरेडिटी) कहा जाता है। इसका अर्थ है-शारीरिक-शरीर कार्य प्रणाली से संबंधित एवं मानसिक गुणों का सम्प्रेषण चाहे वे दृश्य हो या अगोचर। इसे पीढ़ी का सतत् निर्वाह या जीवन क्रम के विकास का मूल चरण माना जा सकता है। यद्यपि बच्चे अपने माता-पिता से मिलते-जुलते दीखते हैं, तथापि उनमें कुछ विभिन्नताएं होती हैं। इन्हें विज्ञान की भाषा में ‘ वेरिएन्स ‘ कहा जाता है। एक ही पिता की दो संतानों, एक ही जाति के विभिन्न जीवों एवं एक ही वंश परम्परा से अलग-अलग प्रकार की भिन्नताएं पायी जाती हैं। इस विज्ञान को जिसमें इन विभिन्नताओं के कारण उत्पन्न समानताओं एवं असमानताओं के मूल कारणों का विवेचन किया जाता है तथा संतान के व्यवहार, शरीरगत विशेषताओं एवं पिता की पीढ़ी से संतान की पीढ़ी तक उनके पहुँचने की विधि-व्यवस्था का अध्ययन किया जाता है-

‘जेनेटिक्स’ कहा जाता है। पर्यावरण अर्थात्- वातावरण, अनुभव एवं अभ्यास से होने वाले परिवर्तन जेनेटिक्स से कोई मतलब नहीं रखते।

‘ जेनेटिक्स ‘ अथवा जनन विज्ञान जीवविज्ञान की एक शाखा है जिसकी उपशाखा- ‘ यूजेनिक्स ‘ कहलाती है। हिन्दी में इसे ‘ सुप्रजनन ‘ अथवा ‘ नस्ल सुधार ‘ कहते हैं। मानवीय विकास के नये आधारों में इस विज्ञान का आश्रय लेने की बात अब गंभीरता पूर्वक सोची जा रही है। मनुष्यों की वर्तमान पीढ़ी की अपेक्षा उसके पूर्वज शारीरिक, मानसिक व दीर्घ जीवन की दृष्टि से बढ़-चढ़ थे। आज के मनुष्यों की इस कमी को पूरा करने तथा ‘ जीन्स ‘ के घटक डी. एन. ए. के साथ सीधे हस्तक्षेप करके नुकसान पहुँचाने वाले एवं वंश परम्परागत रोग उत्पन्न करने वाले तत्वों को हटाकर जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा उनके स्थान पर लाभदायक अर्थात् शरीरगत बलिष्ठता, मानसिक कुशाग्रता बढ़ने वाले जीन्स को बढ़ने का अनुसंधान प्रयास चल रहा है। विशेषज्ञों के इन प्रयासों को देखकर लगता है कि व्यापक जीवन तत्व की संरचना में वाँछित हेर-फेर किया जा सकेगा और ऐसे मनुष्य तैयार किये जा सकेंगे जो अपने पूर्वजों से अधिक विकसित, सशक्त, समर्थ, प्रतिभाशाली एवं दीर्घजीवी होंगे। इसी संभावना को देखते हुए डा. जेम्स वाटसन एवं डा. फ्राँसिस क्रिक ने सन् 1962 में इस क्षेत्र का सर्वोच्च सम्मान नोबुल पुरस्कार ग्रहण करते हुए कहा था- “ सूत्र हाथ में आ गया है “ सूत्रधार नहीं ; संभव है एक दिन वह भी हाथ लग जाएगा और तब आज जो मनुष्य प्रकृति के इशारे पर नाचता है, तब प्रकृति उसके इशारों पर चलने लगे। “

‘ जेनेटिक्स ‘ अथवा जनन विज्ञान जीवविज्ञान की एक शाखा है जिसकी उपशाखा- ‘ यूजेनिक्स ‘ कहलाती है। हिन्दी में इसे ‘ सुप्रजनन ‘ अथवा ‘ नस्ल सुधार ‘ कहते हैं। मानवीय विकास के नये आधारों में इस विज्ञान का आश्रय लेने की बात अब गंभीरता पूर्वक सोची जा रही है। मनुष्यों की वर्तमान पीढ़ी की अपेक्षा उसके पूर्वज शारीरिक, मानसिक व दीर्घ जीवन की दृष्टि से बढ़-चढ़ थे। आज के मनुष्यों की इस कमी को पूरा करने तथा ‘ जीन्स ‘ के घटक डी. एन. ए. के साथ सीधे हस्तक्षेप करके नुकसान पहुँचाने वाले एवं वंश परम्परागत रोग उत्पन्न करने वाले तत्वों को हटाकर जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा उनके स्थान पर लाभदायक अर्थात् शरीरगत बलिष्ठता, मानसिक कुशाग्रता बढ़ने वाले जीन्स को बढ़ने का अनुसंधान प्रयास चल रहा है। विशेषज्ञों के इन प्रयासों को देखकर लगता है कि व्यापक जीवन तत्व की संरचना में वाँछित हेर-फेर किया जा सकेगा और ऐसे मनुष्य तैयार किये जा सकेंगे जो अपने पूर्वजों से अधिक विकसित, सशक्त, समर्थ, प्रतिभाशाली एवं दीर्घजीवी होंगे। इसी संभावना को देखते हुए डा. जेम्स वाटसन एवं डा. फ्रांसीसी क्रिक ने सन् 1962 में इस क्षेत्र का सर्वोच्च सम्मान नोबुल पुरस्कार ग्रहण करते हुए कहा था- “ सूत्र हाथ में आ गया है “ सूत्रधार नहीं ; संभव है एक दिन वह भी हाथ लग जाएगा और तब आज जो मनुष्य प्रकृति के इशारे पर नाचता है, तब प्रकृति उसके इशारों पर चलने लगे। “

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