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Magazine - Year 1995 - Version 2

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अपनों से अपनी बात- - अनुयाज क्रम में हमें अब यह करना है

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पुनर्गठन-अनुयाज यही अब आँवलखेड़ा कार्यक्रम के बाद चलेगा और कहीं भी बड़े भव्य आयोजन नहीं होंगे,” यह जानकारी परिजनों को विगत वसंत पर्व (जनवरी 1995 की अखण्ड-ज्योति से बराबर दी जा रही हैं किसी को असमंजस हो सकता है कि इतने बड़े कार्यक्रम से उत्पन्न ऊर्जा को आप बेकार क्यों जाने दे रहे हैं? क्यों नहीं आप पुनः बड़े आश्वमेधिक कार्यक्रम कर रहे है? क्या आपका संकल्प इतने तक का ही था? क्या परिस्थितियों ने थका डाला या केन्द्रीय तंत्र इस स्थिति में नहीं है कि अब बड़े कार्यक्रम कर सकें? इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर है कि निश्चित ही बड़े-बड़े कार्यक्रम-भव्यतम् स्तर के कार्यक्रम और अधिक भीड़ के साथ सम्पन्न होते रह सकते थे किन्तु उससे पूज्य गुरुदेव के बताए मूल उद्देश्यों के अनुरूप न चलकर हम गड़बड़ा जाते। कार्यकर्ता को कार्य क्षेत्र में उत्पन्न ऊर्जा का सुनियोजन करना है- सृजनात्मक बड़े आयोजनों में अपनी शक्ति गँवाना है। यही सोचकर अभी अक्टूबर ९६ तक के समय को अनुयाज-पुनर्गठन वर्ष घोषित कर विभिन्न कार्यक्रम उसके लिए बनाकर प्रस्तुत ही नहीं किए गए, उनका बार-बार स्पष्टीकरण इस पूर्णाहुति समारोह में देवमंच व ज्ञानमंच से किया जाता रहा।

“पुनर्गठन” शब्द से भी पाठक चौंक सकते है। पुनर्गठन किसलिए, किसका। क्या अभी तक जो गायत्री परिवार विनिर्मित हुआ था, उसमें गलत आदमी घुस गए हैं जो पुनर्गठित कर आप उनकी छँटनी करना चाहते हैं? जिन्हें गुरुदेव-माताजी ने जोड़ा था उनकी छँटनी का वर्तमान तंत्र को क्या अधिकार है? यह बात भी किसी के मन में आ सकती है। “पुनर्गठन” से एक ही आराम है सुव्यवस्थित संगठित गायत्री परिवार। मात्र नारा लगाने से-जय-जयकार करने से तो युग निर्माण होगा नहीं। युगऋषि ने महाकाल की सत्ता ने जो भी कुछ कहा है-वह सब होकर रहा है। इसी प्रकार युग परिवर्तन भी सुनिश्चित है। वह कार्य निर्माण स्तर का है जिसमें न जाने कितने बुलडोजर, इरेक्शन करने वाले उपकरण आदि एवं विश्वेश्वरैया स्तर की प्रतिभाओं का नियोजन होना है। प्रतिभा यदि मात्र प्रचारात्मक कार्य में लगी रही तो उसकी शक्ति का सही उपयोग न होकर बिखराव ही बिखराव होगा। इसीलिए पुनर्गठन के माध्यम से नवसृजन के निमित्त एकत्र हुए प्रतिभाशीलों को सुनियोजित कार्य क्रम देकर उनके द्वारा एक नीति के अंतर्गत योजनाबद्ध व्यवस्था बनाई गई। यह कहा गया कि अब सब अपने-अपने क्षेत्र जिम्मेदारी संभालने अपने-अपने महकमों वालों पर प्रभाव डालकर उन्हें परिवर्तन हेतु सहमत करने की व्यवस्था बनाएँ। नारों को क्रिया में बदलने के लिए धर्मतंत्र के माध्यम से एकत्र हुए भावनाशीलों के एक सैलाब को यूनिफार्म पहने सैनिकों की सुव्यवस्थित परेड वाला स्वरूप देने के लिए इतना तो समय अपेक्षित ही था जितना एक वर्ष के लिए सोचा गया है।

कोई यह भी मन में विचार न करे कि इसके बाद अश्वमेध यज्ञ पुनः आरम्भ हो जाएँगे व हम भी बड़े-बड़े अश्वमेध करेंगे, भले ही एक वर्ष बाद ही सही। सभी जानते हैं कि यह मिशन दैवी शक्ति द्वार संचालित है। ऋषियों की चेतना हिमालय में बैठी इसका संचालन कर रही है एवं पूज्यवर एवं मातृश्री की सूक्ष्म-कारण सत्ता सब पर सतत् निगाह रख इस युग परिवर्तन प्रक्रिया की “मानिटरिंग” कर रही है। जैसे-जैसे संदेश वसंत पर्व पर सूक्ष्म जगत से आते रहे हैं, वैसे-वैसे निर्धारण समय-समय पर होते रहे हैं। परमपूज्य गुरुदेव वसंत पर्व की वेला में ही सारी घोषणाएँ करते रहे हैं। अब भी उनकी प्रेरणा से ही आगामी वसंत पर्व पर जो सन्देश सूक्ष्म निर्देश प्राप्त होंगे, उनके अनुसार ही अक्टूबर ९६ के बाद के कार्यक्रमों का स्वरूप बनेगा। हो सकता है अश्वमेध से भी बड़े स्तर के सम्मेलन स्तर के बड़े आयोजनों की कोई रूपरेखा बने हो सकता है छोटे-छोटे दीपयज्ञों द्वारा घर-घर देव संस्कृति का आलोक फैलाने की भूमिका बने, संस्कारों के माध्यम से जनचेतना को आंदोलित करने का स्वरूप बने अथवा सर्व-धर्म समभाव परक साँस्कृतिक मेलों या यात्राओं जैसा कोई कार्यक्रम बन जाए। क्या निर्धारण होता है, यह भविष्य के गर्भ में पक रहा है एवं गुरु सत्ता जैसा चाहेगी, वैसा ही होगा। किन्तु एक तथ्य सुनिश्चित रूप से याद रख लिया जाना चाहिए कि कोई व्यक्ति अकेला या समूह अपने निर्देशों से न तो उस मिशन को चला रहा है, न चला सकता है। यह तो शक्ति का खेल है। क्रीड़ा कल्लोल है।

किसी को इसमें निराश होने की भी जरूरत नहीं है। मात्र यही भाव मन में रखना चाहिए कि जब देव शक्तियों ने कठपुतली बनाकर हम सबसे उतना सब कुछ करा लिया है कि आज हमारी अंतर्राष्ट्रीय पहचान है, जनता का ही नहीं गुरुकृपा से अविश्वास भरे वातावरण में गायत्री परिवार को प्रशासन, प्रतिभाओं के तंत्र, धन सम्पन्ने सभी का विश्वास प्राप्त हो एक श्रेय प्राप्त हो चुका है, तब उसी समर्पण भाव को बनाए रख इस विराट जन शक्ति के सहारे हम क्या-क्या नहीं कर सकते। परमपूज्य गुरुदेव बार-बार कहते थे कि “यह तुम सबका सौभाग्य है कि युगसंधि की इस वेला में तुम सब एकत्र हुए एक परिवार के रूप में सारे मोती पिरोकर हमने एक माला बना दी अब न जाने कितने मोती इसमें और पिरोते चले जाएँगे व युग परिवर्तन की वेला में इस माला को भगवान के गले में डालेंगे। यह सौभाग्य इसी परिवार गायत्री परिवार को मिला है, नवयुग की अगवानी करने का, उसको लाने के निमित्त कुछ कुरबानी देने का इसके लिए हर स्तर पर प्राणवानों के संगठनों की तैयारी तुम्हें रखनी चाहिए। कहीं भी कोई कच्चा न निकल जाए-हरेक को पक्का ही होना चाहिए हर कसौटी पर कसा जा सके-ऐसा मजबूत।”

अब यह हम पर है कि घर आए श्रेय सौभाग्य को परे हटा दें, अथवा नवसृजन की इस वेला में अपनी डोर को ऋषि चेतना के हाथों सौंपकर जैसा वे बताएँ चलते चले जाएँ। न इतराएँ, न रूठें न भटकें। जो ऐसा करेंगे उनका ही अहित होगा, यह सोच कर उन्हें देखकर उनका अनुकरण करने की न सोचकर यदि सभी ऋषि प्रवाह में बहेंगे तो अभी प्रतिकूलताओं से भरे आगामी छह वर्ष के समय में और भी परीक्षाओं को पास कर अनेकों गोल्ड मेडल प्राप्त करने का सौभाग्य भी प्राप्त करेंगे, यह विश्वास मन में दृढ़ बनाए रखना चाहिए।

तो फिर क्या करें? अपने व्यक्तित्व का परिमार्जन ही छँटनी अभियान है, अपनी सामर्थ्य का सुनियोजन ही पुनर्गठन है यह मानते हुए सभी को पहले स्वयं को श्रेष्ठ साधक के रूप में विनिर्मित करने की मनःस्थिति बनानी होगी। यदि हमने समझदारी के साथ अवसर को पहचाना है, ईमानदारी वे साथ अपने उत्तरदायित्वों को स्वीकारा है तो हमें जिम्मेदारी के साथ उन्हें पूरा करने का संकल्प लेना होगा एवं बहादुरी के साथ सारी बाधाएँ चीरते हुए अवरोधों से जूझते हुए आगे बढ़ते चलने का साहस जुटाना होगा। प्राणवान परिजनों को संगठित कर अब हम सभी को लोकनायक स्तर की भूमिका निभाने आगे आना है। अपने क्षेत्र के एक-एक हिस्से का सर्वेक्षण कर निर्धारित करना है कि हम निम्नलिखित कार्यक्रमों में से प्रथम दो को अनिवार्य मानकर शेष में से किन-किन को सक्रिय रूप दे सकते हैं। यही हमारा अनुयाज है जो इस गीता जयंती से आरम्भ होकर आगामी शरदपूर्णिमा तक चलना चाहिए। ये कार्यक्रम जो आँवलखेड़ा में बताए गए इस प्रकार है।

(1) आध्यात्मिक पुनर्जागरण (2) नारी जागरण परिवार निर्माण (3) पर्यावरण संतुलन हरीतिमा विस्तार (4) वेद स्थापना आस्था जागरण (5) लोक रंजन से लोक मंगल कलामंच का दिशा निर्धारण एवं (6) ग्राम्य स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम-संवेदना विस्तार।

इनमें से प्रथम कार्यक्रम तो विशुद्धतः व्यक्ति निर्माण से आरम्भ होकर अपने घर को एक प्राणवान संस्कारों से अनुप्रमाणित मन्दिर बनाने का आस्तिकता के जागरण का कार्यक्रम है। यह दैनिक गायत्री उपासना से लेकर आस्तिकता संवर्धन के अनेकानेक प्रयोगों यथा मंत्रलेखन, नियमित स्वाध्याय, परिवार गोष्ठी एवं युगसंधि महापुरश्चरण की द्वितीय चरण में भागीदारी से सम्बन्धित हैं यह सभी के लिए अनिवार्यतः अपनाने योग्य है। इस प्रक्रिया को जितने घरों तक पहुँचा जा सके, घर मन्दिर, संस्कार मन्दिर, ज्ञान मन्दिर राष्ट्र सेवा मन्दिर स्थापना क्रम द्वारा फैलाया जा सके उतना ही पुण्य व श्रेय के अधिकारी हम बनेंगे।

दूसरों कार्यक्रम की शुरुआत काफी पूर्व हो चुकी है किन्तु अब नारी शक्ति को पौरोहित्य क्रम में जहाँ आँवलखेड़ा में शीर्ष स्थान मिला, वहाँ अब समाज के हर क्षेत्र में उसके लिए अवसर प्रदत्त किये जाने की योजनाएँ बननी चाहिए। सदियों से बेड़ियों में जकड़ी नारी शक्ति को पूज्यवर ने आगे लाकर खड़ा कर दिया किन्तु अभी भी नारी का अपमान भिन्न-भिन्न रूपों में बराबर हो रहा है। चाहे वे चलचित्र हों, चाहे विज्ञापन हों, चाहे टेलीविजन के धारावाहिक हों, नारी अभी भी उपभोक्ता बनी है, उपभोग करने वाला पुरुष वर्ग है। क्या उस सत्ता को जो संस्कार देकर परिवार में नूतन प्राण संचार करती है राष्ट्र को एक नागरिक देती है-हम उस शिकंजे से निकाल सकते हैं जहाँ आज के समाज ने उसे लाकर खड़ा कर दिया है? क्या अभी भी अविवाहित विकसित लड़कियों के कारण माता-पिता हृदय घात से या आत्मघात कर मौत को प्राप्त होते रहेंगे? क्या दहेज का दानव इसी प्रकार नारियों को अग्नि में जलाता रहेगा व हम मूक देखते रहेंगे? जवाब सभी को देना है क्योंकि हम अब सबके लिए जवाब देह हो गए हैं? नारी जागरण का नारा अब व्यवहारिक परिप्रेक्ष्य में लागू होकर परिवार संस्था के मूल्यों की पुनर्स्थापना तक गुँजायमान होना चाहिए, यही समय की माँग हे। इसके लिए हमें विधिवत् योजना बनानी है।

तीसरा कार्यक्रम पर्यावरण संतुलन संरक्षण का है जो परमपूज्य गुरुदेव की दस-सूत्री योजना का एक अनिवार्य अंग है एवं मिशन की राष्ट्रीय जलागम विकास परियोजना में भागीदारी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। बिना हरियाली का कवच बढ़ाए भूमिका जल स्तर ऊँचा नहीं किया जा सकता है। ऐसे वृक्ष अधिक से अधिक संख्या में लगें, जिनसे भूमि का जल स्तर ऊँचा उठे, अधिक बरसात हो व उस जल का संरक्षण किया जा सके, इस कार्य को मिशन पहले ही विज्ञान सम्मत विधि से सम्पन्न कर रहा है। हमारे परिजनों को तो अब बड़ी जिम्मेदारी से इस कार्य को व्यापक रूप देना है ताकि सरकार का मुँह देखे बिना एक समानान्तर तंत्र हमारे माध्यम से ही विनिर्मित हो सके। जड़ी-बूटी पौधशाला, 5-5 एकड़ के वनौषधि उपवन एवं उनसे जुड़े छोटे लघु उद्योग भी इसी योजना में आते हैं। स्वास्थ्य संरक्षक योजना भी इसी से जुड़ी है जिसका त्रैमासिक प्रशिक्षण प्रारंभिक प्रारूप पूरा होते ही सम्भवतः जून ९६ से शान्तिकुञ्ज में आरम्भ होने की सम्भावना हैं।

वेदस्थापना का चौथा कार्यक्रम देव संस्कृति के प्रति आस्था जागरण का एक महत्वपूर्ण सोपान हैं गायत्री परिवार कटिबद्ध है हर घर में वेदों को अपनी संस्कृति की मूल थाती के रूप में पहुँचाने को। हमारे आदि ग्रन्थ हैं वेद। इन्हें केवल पुस्तक या ऋचाओं का संग्रह नहीं मानते अपितु वेद भगवान कहा जाता है, पूजन कर इनका-पठन पाठन किया जाता है। हमें इन्हें वही स्तर दिलाना चाहते हैं जो प्रत्येक संप्रदाय के उनके मूल आदि ग्रन्थ को प्राप्त है, हम काल प्रभाव के कारण उस गरिमा को भुला बैठे हैं। शान्तिकुञ्ज द्वारा अब उपनिषद् एवं गीता विश्व कोश पर भी कार्य आरम्भ हो चुका है। प्रयास यही है कि आर्ष साहित्य का पूज्यवर के निर्देशानुसार पुनः प्रकाशन कर उन्हें घर-घर पहुँचा देना ताकि आज के परिप्रेक्ष्य में युगधर्म को समझते हुए सभी इन से मार्ग दर्शन पा सकें।

जहाँ वेदों को लोग घरों पर ले गए हैं, वहाँ शान्तिकुञ्ज से आने वाली टोलियों द्वारा उनका पूजन कर उन्हें विधिवत् प्रतिष्ठित करा दिया जाएगा, ऐसी योजना बनी है। वेद अब आठों जिल्दों में शान्तिकुञ्ज से उपलब्ध हैं। इसी के साथ सम्भव हो तो परमपूज्य गुरुदेव के वाङ्मय को भी कम से कम प्रत्येक शक्तिपीठ, समर्थ प्रज्ञा मण्डल अथवा 5 से लेकर 10 व्यक्तियों को समूह द्वारा समग्र रूप में स्थापित करने के महत्व को अब सबको समझना है इस वाङ्मय में पूज्यवर का सारा चिन्तन एक स्थान पर आ गया है। अभी सत्तर खण्ड प्रस्तावित हैं। इन्हीं को सात हजार रुपये मूल्य में अखण्ड-ज्योति संस्थान द्वारा दिया जा रहा है। इसके लिए हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लिए टोलियाँ अखण्ड-ज्योति संस्थान को वाङ्मय लेकर केन्द्र की ओर से भेजी गयी है। इस स्थापना को भी उतना ही महत्वपूर्ण माना जाय जितना हमने वैदिक वाङ्मय को माना हैं।

पाँचवाँ कार्यक्रम लोककला को नयी दिशा देने लोक-मंगल परक मोड़ देने का है। अभी-अभी सभी परिजनों ने आँवलखेड़ा में कलामंच के माध्यम से प्रगतिशील लोककला का लोकरंजन परक स्वरूप देखा है। आज के टी.वी. मीडिया से आ रहे निषेधात्मक जहरीले प्रभाव को निरस्त करने के लिए गाँव-गाँव घर-घर लोककला को माध्यम बनाते हुए हमें पूज्यवर की आकांक्षाओं को पूरा करते हुए इस पूरे तंत्र का परिष्कार करना है। आँवलखेड़ा से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर एक परिपूर्ण योजना इस क्षेत्र में बनायी जा रही है। अभिनय-कला एक्शन नुक्कड़ नाटक छोटे-छोटे धारावाहिकों के निर्माण की बात सोची जा रही हैं।

ग्राम्य स्वास्थ्य सेवा विस्तार जो कि छठा व अंतिम कार्यक्रम है, का प्रथम चरण आँवलखेड़ा से ही आरम्भ किया गया हैं जहाँ माता भगवती देवी चिकित्सालय इसी प्रथम पूर्णाहुति के अनुयाज क्रम में आरम्भ होने जा रहा है। हर ग्राम को आदर्श ग्राम बनाना है तो उसमें स्वास्थ्य सेवा का विस्तार करना होगा, चिकित्सकों का समयदान माँगना होगा तथा ऐसे कैम्प सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में आयोजित करना है जहाँ इन सुविधाओं का नितान्त अभाव है। हम हर ग्राम में वैसा चिकित्सालय तो नहीं बना सकते जैसा कि आँवलखेड़ा में बनने जा रहा है। किन्तु यह तो कर सकते है कि हमारे जाग्रत प्राणवान परिजनों के माध्यम से न्यूनतम चिकित्सा सुविधाएँ उनको उपलब्ध हो सकें जिन्हें सरकारी तंत्र के माध्यम से उनके पूरा होने की बात मात्र एक दिवास्वप्न ही है व आने वाले पचास वर्षों में भी सम्भवतः पूरी न हों। भारतीय चिकित्सा पद्धति का अनिवार्य ज्ञान देकर स्वास्थ्य संरक्षक योजना से भी उसे करने की योजना है किंतु वह कार्य समय साध्य है अभी तो उपलब्ध उदारमना चिकित्सकों के समयदान को ही सुनियोजित कर दें तो देखते-देखते हम एक वर्ष में एक लाख गाँवों में तो संपूर्ण स्वास्थ्य का लक्ष्य पूरा कर ही सकते हैं।

ऊपर बताई सभी योजनाएँ उन प्रामाणिक सुव्यवस्थित सशक्त इकाइयों द्वारा सम्पन्न होती रह सकती है जिन्हें प्रज्ञामण्डल शाखा संगठन काम दिया गया था। अब पंचायत राज्य व्यवस्था पूरे देश में लागू हो गयी है। हम आदर्श ग्रामों के निर्माण से लेकर सभी प्रगतिशील योजनाओं को क्रियान्वित करने का तंत्र स्थापित करने में समर्थ हैं, यह विश्वास शासन तंत्र को भी है। ऋषियों के तंत्र ने इसीलिए इस मिशन के प्राणवान परिजनों ने बड़ी-बड़ी उपेक्षाएँ रख इतना बड़ा कार्य सौंपा है जो देखने में अभी छोटा लगता है किन्तु जैसे-जैसे अनुयाज क्रम पूरी स्वरूप लेगा-यह एक सुव्यवस्थित राष्ट्र निर्माण तंत्र के रूप में दिखाई देने लगेगा।

राष्ट्र के हर जिम्मे में एक ब्लॉक गोद लेकर उसे एक आदर्श गाँवों के समुच्चय के रूप में विकसित करने का दायित्व यदि हम पूरा कर सकने की स्थिति में हों तो इसे प्रशासकीय सूझ-बूझ के साथ अपने अपने क्षेत्र को भौगोलिक-सामाजिक स्थिति का गहरा अध्ययन करते हुए ग्राम पंचायतों से लेकर स्थानीय निकायों तक सूत्र इस प्रकार बिठाने होंगे कि सारी प्रगतिशील योजनाओं की कुँजी हमारे परिजनों के पास आ जाय। हम उन्हें मात्र जन-जागरण द्वारा हर ग्रामवासी तक पहुँचा भर दें। शेष कार्य स्वतः होता चला जाएगा।

अनुयाज-पुनर्गठन की व्यूह रचना को परिजन भली भाँति समझे, पढ़े और तदनुसार ही अपनी क्रिया पद्धति का निर्धारण करें तो आज से एक वर्ष बाद हम एक बड़ा सशक्त स्थिति में खड़े हो धर्मतंत्र से राष्ट्र के पुनर्गठन-नवनिर्माण की प्रक्रिया सम्पन्न कर रहे होंगे।

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