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Magazine - Year 1996 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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अब यह मिलन होकर ही रहेगा।

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आम मान्यता यह है कि धर्म या अध्यात्म और विज्ञान परस्पर विरोधी हैं और उन्हें आपस में मिलाया नहीं जा सकता । किन्तु यहाँ यह तथ्य भुला ही दिया जाता है कि विज्ञान अर्थात् जड़ पदार्थ और मनुष्य की प्राण चेतना मिलजुल कर ही वह स्थिति उत्पन्न करते हैं जिससे मानवी ज्ञान और प्रकृतिगत साधनों का सदुपयोग हो सकता है दोनों का समन्वय ही है जिसने दुनिया को इतनी सुन्दरता और सुव्यवस्था प्रदान की हैं एक दूसरे के सहारे ही अपनी उपयोगिता सिद्ध करने का अवसर हमला है। इसलिए ज्ञान और विज्ञान अध्यात्मिक और भौतिकी के बीच घनिष्ठ सहयोग सहकार को स्वीकारना नितान्त आवश्यक ही नहीं उपयुक्त भी है।

समग्र ज्ञान को दो भागों में बाँटा जा सकता है एक को अंतर्बोध पर आधारित अध्यात्मिक अथवा धर्म और दूसरे तर्क, परीक्षण , अनुभव तथा बताये गये तथ्यों के आधार पर भौतिक जगत सम्बन्धी निष्कर्ष को विज्ञान कहते हैं मूर्धन्य विज्ञान वेत्ता भी इस वास्तविकता को अब समझने और स्वीकारने लगे हैं कि इन दोनों का स्वरूप तथा कार्य पृथक-पृथक न होकर एक दूसरे के पूरक हैं । समग्र प्रगति दोनों के समन्वय से ही सम्भव है।

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात तत्वविद् ब्रेन्ड रसेल ने अपनी कृति” रिलीजन एण्ड साइन्स” में विज्ञान और परम्परावादी धर्म के मध्य विगत चार शताब्दी से चल रहे विवाद की समीक्षा की है ओर वर्तमान काल के प्रगतिशील विज्ञान तथा आज के प्रचलित धर्म में आये परिवर्तन को उजागर करने का प्रयत्न किया है। इस संदर्भ में अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए उनने कहा है कि धर्म और विज्ञान के मध्य सदियों से चला आ रहा द्वन्द्व अब व्यावहारिक रूप से तो खत्म हो गया है।, यह अन्त नहीं हुआ है।

मध्यकालीन समय में जब विज्ञान का शैशव काल चल रहा था और धर्म सत्ता अपने कार्यक्षेत्र में उसके अनाधिकार हस्तक्षेप को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं थी, उसे यह प्रतीत हो रहा था कि जिस परम सत्ता के कथन को व सदियों से अकाट्य बताता आया था, उसे विज्ञान चुनौती दे रहा है। जिन दिनों योरोप में ईसाई धर्म सर्वोपरि था और पोप-धर्म गुरुओं की सत्ता राजा से भी बढ़-चढ़ कर थी उन्हीं दिनों स्वर्ग में निवास करने वाले ईश्वर-’गॉड’ के निवास स्थान ग्रह-नक्षत्रों के बारे में खगोल विज्ञान ने चुनौती दे डाली और यह रहस्योद्घाटन किया कि सभी नक्षत्र पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं। इसका प्रारंभ कोपरनिकस के इस कथन से हुआ कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है और वह ब्रह्माण्ड का केन्द्र नहीं, वरन् एक सृष्टि का एक सूक्ष्म पिण्ड मात्र है उनकी पुस्तक “ ऑन दि रिवोल्यूशन्स ऑफ दि हेवन बॉडीज ‘ का प्रकाशन उनकी मृत्यु से भी कुछ समय पूर्व ही हुआ था, इसलिए वे धर्म गुरुओं के कोप-भाजन से बच निकले, लेकिन उनके समर्थक एवं अन्वेषक ब्रूनों को जिन्दा जला दिया गया। इसी तरह गैलीनियो को तो प्रथम क्षमा माँगने के लिए बाध्य किया गया और दुबारा कैद में यंत्रणा देकर अंधा बना दिया गया और वहीं कालकोठरी में उनकी मृत्यु हो गयी ।तब विज्ञान ने धर्म को प्रतिगामी बना कर खूब कोसा था और धर्म ने विज्ञान को छिछोरा कर गालियाँ दी थीं। वही कारण था कि दोनों एक दूसरे से दूर हटते गये। दुखद बात यह रही कि धर्म का अर्थ साम्प्रदायिक परम्पराओं का निर्वाह भर ही माना गया। यदि कर्तव्यपालन का निर्वाह भी माना गया होता तो जीवन को सार्थक बनाने वाली सर्वोपरि उपलब्धि का विकास आबद्ध न होता।

बट्र्रेण्ड रसेल के अनुसार चार सौ वर्षों तक यही क्रम चलता रहा। परन्तु यहाँ इसके विस्तार में न जाकर इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि इस क्षेत्र में दूसरा वज्राघात डार्विन ने किया था और धर्म को विज्ञान का विरोधी बताया था। किन्तु वास्तविकता को देर तक पर्दे के पीछे छिपाकर नहीं रखा जा सकता। हुआ भी यही सन् 1893 में शिकागो धर्म सभा में स्वामी विवेकानन्द के विज्ञान सम्मत अध्यात्मिक प्रतिपादन के बाद काफी प्रयास चले। सन् 1930 में लन्दन में “ साइन्स एण्ड रिलीजन” पर एक सिम्पोजियम अर्थात् विज्ञान एवं धर्म पर एक परिसंवाद आयोजित किया गया जिसमें प्रो0 जूनियन हक्सले के नेतृत्व में अपने क्षेत्र के जाने माने प्रतिभाशाली मनीषियों ने भाग लिया। सभी मूर्धन्यों का एक ही निष्कर्ष था कि विज्ञान या धर्म अपने आप में अकेले पूर्ण नहीं है। दोनों का समन्वय ही पूर्णता प्रदान कर सकता है इस परिसंवाद को सुनने वालों ने तब कहा था कि लगता है अब विज्ञान और धर्म के बीच के विवाद का अन्त हो गया है। दोनों के मध्य की खाई पट गयी है।

गम्भीरता पूर्वक पर्यवेक्षण करने पर तथ्य की पुष्टि हो जाती है कि विज्ञान ने नैतिक मूल्यों के बारे में कभी हस्तक्षेप नहीं किया है। वह केवल यही बताता है कि मनुष्य की इच्छाओं की पूर्ति कैसे और किन साधनों से हो सकती है।, जबकि धर्म का विषय है- नैतिक मूल्य। यह अपने आप में बहुत बड़ा विषय है। आज विज्ञान ने पिछली शताब्दी की मान्यताओं में उसके गुण-दोष देखते हुए नये सिरे से विचार किया है और जो पिछले दिनों कहा जाता था, उसमें आमूल चूल परिवर्तन किया हैं विज्ञान के “इकॉलाजी” सिद्धान्त को ही लें तो उसका पर्यवेक्षण करने पर सृष्टि की व्यवस्था कितनी व्यवस्था पूर्ण है, यह सहज ही समझा जा सकता है इस तथ्य को दीखते हुए हर किसी की सहज मान्यता बनती है कि संसार का कोई बुद्धिमान स्रष्टा अवश्य होना चाहिए जो राह बताने और भूल सुधारने की योग्यता से सुसम्पन्न हैं विज्ञान ने अब तो मरणोत्तर जीवन के भी इतने अधिक प्रमाण ढूँढ़ निकाले हैं जिनसे इन तथ्यों की पुष्टि होती है कि आत्मा की अपनी स्वतंत्र सत्ता है और वह काया के न रहने पर भी किसी न किसी रूप में अपना अस्तित्व बनाये रखती हैं यह अधकचरी भूतकालीन मान्यताओं का खण्डन है।

इसी तरह पिछली पीढ़ियों पर जो साम्प्रदायिकता का प्रभाव था, धीरे-धीरे वह अब लुप्त हो रहा हैं इतने पर भी धर्म को अपनी खोई हुई पुरानी एवं वास्तविक शक्ति तभी प्राप्त हो सकती है जबकि विज्ञान की भाँति वह भी परिवर्तनों का सामना करने और तर्क तथ्य एवं प्रमाणों की कसौटी पर कसे जाने को तैयार हो। तब धर्म का लाभ परलोक में मिलेगा, इसकी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। धर्म-धारण जहाँ भी होगी विज्ञान के नकद लाभों की तरह उसके फलितार्थ भी आत्म संतोष, आत्मोल्लास की ऐसी शक्ति के रूप में विद्यमान रहेंगे जिसके सामने भौतिक दृष्टि से अभावग्रस्त समझा जाने वाला जीवन भी शांति और धैर्य पूर्वक सरल एवं सौम्य बनाया जा सकेगा।

लन्दन विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध भौतिक विज्ञान प्रो0 हर्बर्ट डिग्ले का कहना है कि विज्ञान की एक सीमित परिधि है। पदार्थ के स्वरूप एवं प्रयोग का विश्लेषण करना उसका काम है। पदार्थ किसने बनाया, किस प्रकार बनाया, आदि बातों का उत्तर दे सकना बहुत ऊँची कक्षा में प्रवेश करने पर ही सम्भव होगा। यह कक्षा लगभग उसी स्तर की होगी जैसी की अध्यात्मिक के तत्वांश को समझा जाता है इस संदर्भ में दार्शनिक रेनाल्ड की मान्यता है कि धर्मक्षेत्र को भी अपनी भावनात्मक मर्यादाओं में रहना चाहिए और व्यक्तिगत सदाचार एवं समाजगत सुव्यवस्था के लिए आचार व्यवहार की प्रक्रिया को परिष्कृत बनाये रखने में जुटे रहना चाहिये। यदि धर्मवेत्ता अपनी कल्पना के आधार पर भौतिक पदार्थों की रीति-नीति का निर्धारण करेंगे तो वे सत्य की सही अर्थों में कुसेवा ही करेंगे और ज्ञान के स्वरूप एवं विकास में बाधक बनेंगे। धर्म विज्ञान का वास्तविक मिलन दार्शनिक स्तर पर ही हो सकता है।

“हरमन डेस्टिनी” नामक अपनी पुस्तक में प्रख्यात वैज्ञानिक लेकोन्टे डुन्वे ने कहा है कि विज्ञान अभी अपने शैशवकाल में है और पालने में ही पल रहा है। वह वस्तुओं के गुण-धर्म पर बहुत प्रकाश डाल रहा है। पर यह नहीं बताता कि दूरदर्शी बुद्धिमत्ता की घटोत्तरी को कैसे पूरा किया जाय। धर्म या अध्यात्मिक में वे तत्व मौजूद हैं जिनके आधार पर चिंतन-चेतना में विवेकशीलता का अधिकाधिक समावेश हो सकता है दुर्भाग्य यहाँ भी जड़ जमा बैठा है कि उसमें दुराग्रहों की भरमार ने विवेकशील चिन्तन के द्वारा अवरुद्ध कर दिये है। विज्ञान की कुछ प्रगति अवश्य इसलिए हुई है कि उसने नये ज्ञान के प्रकाश के लिए अपने द्वारा खुले रखे हैं और अपनी भूलों को समझने तथा सुधारने के लिए निरन्तर प्रयत्न जारी रखा है। इस भिन्नता के कारण ही विज्ञान आगे निकल गया और धर्म पिछड़ गया दीखता है यदि शोध और सुधार का द्वार धर्म ने भी खुला रखने का शुभारंभ किया तो निःसंदेह धर्म को भी वैसी ही मान्यता मिलती जैसी की आज विज्ञान को मिली है।

वस्तुतः वैज्ञानिक और अध्यात्मवादी दोनों ही अन्तर्ज्ञान से प्रकाश की किरणें प्राप्त करते हैं। आइन्स्टीन वहाइजेनबर्ग से लेकर अनेकानेक महान वैज्ञानिकों आविष्कारों के उदाहरण इस तथ्य के प्रमाण हैं कि उन्हें अकारण ही ऐसी सूझ उठी जिसके सहारे वे अपनी खोज का आधार खड़ा कर सके। अंतःकरण से उठने वाला अनायास अन्तर्बोध यही सिद्ध करता है कि मानवी चेतना के पीछे कोई अलौकिक दिव्य चेतन प्रवाह काम करता रहा था जिसे अप्रकट को प्रकट करने की प्रधान धाराओं के आविष्कर्ता इस तथ्य से सहमत हैं। अभी भी अदृश्य चेतना की वह उमंग उठकर ठप्प नहीं हुई है वरन् उसमें एक के बाद एक कदम आगे बढ़ाने का सहारा देने का क्रम अनवरत रूप से चल रहा है और सूझबूझ की शृंखला की कड़ियाँ जुड़ती हुई चली जाती हैं।

ख्याति प्राप्त दार्शनिक रैक्वे का कथन है कि मनुष्य ने विज्ञान द्वारा प्रकृति के अन्तराल को समझा है और धर्म के द्वारा अपनी महानता का आभास पाया है। उनके अनुसार धर्म का लक्ष्य है अन्तराल में सन्निहित सत्प्रवृत्तियों को मनोविज्ञान सम्मत पद्धतियों से इतना समुन्नत बनाना कि वे व्यावहारिक जीवन में वैज्ञानिक उपलब्धियों की भाँति ओत-प्रोत हो सकें। विज्ञान का लक्ष्य है कि प्रकृतिगत शक्तियों तथा पदार्थों के स्वरूप तथा क्रियाकलाप की इतनी जानकारी देना कि उनका समुचित लाभ मानवी सुख-सुविधाओं की अभिवृद्धि के लिए किया जा सके। दोनों का कार्यक्षेत्र प्रत्यक्षतः अलग है, फिर भी वे एक दूसरे के पूरक है। क्योंकि जीवन आत्मिक एवं भौतिक चेतन और जड़-दोनों प्रकार के तत्वों से मिलकर बना हैं जड़-चेतन के समन्वय से ही जीवन का प्रत्यक्ष स्वरूप सामने आता है। इतने पर भी यह अन्तर रखना ही पड़ेगा कि हृदय और मस्तिष्क की तरह दोनों का कार्यक्षेत्र विभक्त हो। एक का कार्य दूसरे पर थोपने की गति न की जाय। भौतिक तथ्यों की जानकारी में पदार्थ विज्ञान को प्रामाणिक माना जाय और आत्मिक आन्तरिक चिन्तन एवं भावनात्मक प्रसंग में श्रद्धा की आत्मानुभूति को मान्यता दी जाय। अतः आवश्यकता इस बात की है कि जिस प्रकार योजनाबद्ध तरीके से वैज्ञानिक प्रगति के लिए कार्य व अनुसंधान हो रहा है उसी प्रकार धर्म और अध्यात्मिक क्षेत्र में भी चिन्तन चेतना को परिष्कृत करने के लिए योजनाबद्ध ढंग से शोध को प्रमुखता दी जाय। , तभी मानव-जाति की समग्र प्रगति व उत्थान हो सकता है विज्ञान वेत्ताओं की तुलना में दार्शनिकों एवं अध्यात्मवेत्ताओं का कार्यक्षेत्र एवं उत्तरदायित्व अधिक विस्तृत है।

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