‘विशुद्धि’ में प्रतिष्ठित कुण्डलिनी देती है अक्षय यौवन
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षट्चक्रों में विशुद्धिचक्र आज्ञाचक्र के बाद दूसरे क्रम पर है। यों सीधे क्रम से बढ़ने पर आज्ञाचक्र के बाद दूसरा स्थान मूलाधार का है, पर अवरोही क्रम में द्वितीय स्थान पर विशुद्धिचक्र ही आता है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इसका संबंध संतुलन-शुद्धिकरण से है, इसलिए इसे ‘शुद्धिकरण केंद्र’ भी कहते हैं। इसका एक नाम ‘अमृत तथा विष केन्द्र’ है, कारण कि यहाँ पर दोनों ही प्रकार के रस-स्राव बिन्दु-विसर्ग से झरते रहते हैं।
शरीर शास्त्र की दृष्टि से इसकी ठीक-ठीक अवस्थिति ग्रीवा के पीछे ‘सरवाइकल प्लेक्सस’ में है। इसका ‘क्षेत्र’ गले का सामने वाला हिस्सा या थाइराइड ग्रंथि को माना जा सकता है। कायिक स्तर पर विशुद्धि चक्र का संबंध ग्रसनी तथा स्वरयंत्र तंत्रिकाओं से है।
यह जागरण की एक ऐसी स्थिति है, जिसे जीवन को अनुभूतियाँ प्रदान करने वाला माध्यम माना जाता है। इससे साधक के ज्ञान में वृद्धि होती है। जीवन कष्टपूर्ण न रहकर आनंदमय बन जाता है। साधक जीवन को सहजतापूर्वक लेता है तथा घटनाओं के प्रति अनासक्त बना रहता है। संपूर्ण प्रकृति में शुभ-अशुभ विष तथा अमृत इन दोनों तत्वों का समावेश है। इनका अवशोषण विशुद्धिचक्र में होता रहता है। जीवन के द्वन्द्वों, प्रतिकूलताओं तथा अनुकूलताओं को समान रूप से अंगीकार किये जाने के कारण ज्ञान तथा विवेक का उदय होता है।
विशुद्धिचक्र का अधिक सूक्ष्म पहलू उसकी उच्च विवेक की क्षमता है। यहाँ पर टेलीपैथी संदेशों की सत्यता को सरलतापूर्वक परखा जा सकता है। यह एक उच्च चेतना केन्द्र है, इस कारण से यहाँ होने वाली वास्तविक अनुभूतियों तथा कल्पना एवं अचेतन मन के कारण होने वाली अवास्तविक अनुभूतियों का अंतर भी स्फुट समझ में आने लगता है।
कतिपय तंत्रग्रंथों में विशुद्धिचक्र को गहरे भूरे रंग वाले कमल चक्र के रूप में वर्णन किया गया है, लेकिन ‘साधना ग्रंथों’ में इसका रंग बैंगनी बताया गया है। इसके 16 पंखुड़ियाँ हैं। यह सभी यहाँ के नाड़ी-गुच्छक से संबद्ध हैं। इस षोडश दल कमल में एक वृत्त है, जो चंद्रमा की तरह धवल है। इसे आकाशतत्त्व का प्रतीक-प्रतिनिधि माना गया है।
“यह आत्मा न व्याख्यान से मिलती है, न बुद्धि से और न बहुत सुनने-पढ़ने से। यह आत्मा जिसे चुनती है, जिस पर अनुग्रह करती है, उसी को प्राप्त होती है। उसी कृपापात्र के सम्मुख यह अपने आपको प्रगट करती है।” -मुंडकोपनिषद् 3/2/2
इस वृत्त में सप्त सूँडों वाला एक श्वेतवर्णी हाथी है। यह भी आकाशतत्त्व को निरूपित करता है। इसे इस चक्र का वाहन कहते हैं।
यह वाहन वास्तव में और कुछ नहीं, वरन् उन-उन चक्रों में वायु या चेतना की गति है। प्रत्येक चक्र में वायु की चाल एक समान नहीं होती। जैसे वात, पित्त, कफ की नाड़ी, कपोत, मंडूक, सर्प कुक्कुट आदि की चाल से चलती है, उस चाल को पहचानकर वैद्य लोग अपना कार्य करते हैं, वैसे ही तत्वों के मिश्रण, टेढ़ा-मेढ़ा मार्ग, भँवर, बीज आदि के संयोग से प्रत्येक चक्र में रक्त संचरण और वायु अभिगमन के समन्वय से एक विशेष से एक विशेष चाल वहाँ परिलक्षित होती है। यह चाल किसी चक्र में हाथी के समान मंदगति, किसी में मगर की तरह डुबकी मारने वाली, किसी में हिरन की सी छलाँग मारने वाली, किसी में मेंढक की तरह फुदकने वाली होती है। इसलिए इन्हें चक्रों का वाहन कहते है।
इस चक्र का तत्व बीज ‘हं’ है। यह भी श्वेत है, जो आकाशतत्त्व के स्पंदन से उत्पन्न है। इसके देवता सदाशिव हैं। यह धवलवर्णी हैं। उनके तीन आँखें, पाँच मुख तथा दस भुजाएँ हैं। उनका परिधान व्याघ्र चर्म है। चक्र की देवी शाकिणी है। यह पीताम्बरधारी है। उनके चार हाथ हैं, जिनमें से प्रत्येक में आयुध हैं- एक में धनुष, एक में बाण, फंदा तथा अंकुश हैं।
विशुद्धिचक्र वास्तव में चेतना का पंचम आयाम है। इसका संबंध पाँचवें लोक ‘जनः’ से है। इसमें व्याप्त वायु उदान है, जिसका प्रवाह ऊर्ध्वगामी है। इसकी तन्मात्रा ‘शब्द’ है, ज्ञानेन्द्रिय ‘कर्ण’ तथा कर्मेन्द्रिय ‘पाद’ है।
तंत्रशास्त्र में ऐसा उल्लेख आता है कि कपाल के पीछे के हिस्से में बिन्दुविसर्ग स्थित चंद्रमा से अमृत झरता रहता है। इससे आत्मसत्ता और परमात्मसत्ता का मिलन-समागम सहस्रार में होता है। इसलिए साधना विज्ञान में इस द्रव को बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है तथा इसे चेतना के शुद्धिकरण और ऊर्ध्वीकरण में अत्यंत सहयोगी बताया गया है।
इस दिव्यरस को कितने ही नामों से पुकारा जाता है। अंग्रेजी में इसको ‘एम्ब्रोसिया- दि नेक्टर ऑफ दि गॉड’ कहते हैं। वेदों में यही ‘सोम’ और तंत्र में मद्य के नाम से अभिहित है। सूफी समुदाय में इसे ‘मीठी शराब’ कहा गया है। यह संज्ञा अकारण नहीं है। यह रस जब बिन्दु से स्रवित होता है, साधक में ऐसा दिव्य नशा छा जाता है, जिसकी तुलना मदोन्मत्त व्यक्ति से की जा सकती है। अंतर इतना है कि शराब साधारण स्तर का द्रव है और उससे उत्पन्न मादकता शरीरस्तर तक सीमित होती है, जबकि साधकों की आनन्दानुभूति चेतनास्तर की होती है, जिसे साधारण नहीं, दिव्य कहना चाहिए।
साधनाशास्त्र के मर्मज्ञों का कथन है कि बिन्दु और विशुद्धिचक्र के मध्य एक अन्य छोटा चेतना केन्द्र है। साधना-विज्ञान में इसे ‘ललना चक्र’ कहा गया है। विशुद्धिचक्र से इसका अत्यंत निकट का संबंध है। विशेषज्ञ बताते हैं कि जब अमृत बिन्दु-विसर्ग से निकलना प्रारंभ करता है, तो इसका एकत्रीकरण ललना में होता है। यह अवयव नासा-ग्रन्थी (नेजो फैरिंक्स) के पीछे तालू के ऊपरी भाग के आँतरिक गड्ढे में वहाँ स्थित है, जहाँ नासिका द्वार आकर खुलता है। खेचरी मुद्रा का वास्तविक उद्देश्य इसी केन्द्र को उत्तेजित करना होता है।
यों तो इसे अमृत कहकर पुकारा गया है पर यह कई दशाओं में विष का-सा व्यवहार करता है। जब तक यह ललना में संगृहीत रहता है, तब तक उसकी स्थिति में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन उत्पन्न कर पाना शक्य नहीं होता। विशुद्धिचक्र की निष्क्रियता की अवस्था में यह द्रव सीधे मणिपुर चक्र तक पहुँच जाता है, जहाँ उसे उक्त चक्र द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। यह स्थिति साधक के लिए ठीक नहीं कही जा सकती, कारण कि विशुद्धिचक्र से नीचे उतरने पर यह ऊतकों को हानि पहुँचाना आरंभ करता है। इसी कारण से इसका अधःपतन विषतुल्य माना गया है।
कुछ योगाभ्यासी इस अमृत को साधना-उपचारों के माध्यम से ललना चक्र से विशुद्धिचक्र तक लाने में सफल हो जाते हैं। जब ऐसा होता है, तो इसका उपयोग वहीं कर लिया जाता है। इस स्थिति में यह चिरयौवन प्रदान करने वाले अमृत की तरह बर्ताव करता है, किंतु यह तभी संभव है, जब विशुद्धिचक्र पूर्णरूपेण जाग्रत हो। उसकी सुप्तावस्था में इस दिव्यरस का वहाँ उपयोग नहीं हो पाता, इसलिए योगमार्ग के पथिकों के लिए बिंदु-विसर्ग (जहाँ से अमृत झरता है) की साधना प्रारंभ करने से पूर्व विशुद्धिचक्र का जागरण अनिवार्य होता है।
आर्ष आख्यान के समुद्र मंथन की संगति यहाँ विशुद्धि चक्र के विष-अमृत वाले प्रसंग से ठीक-ठीक बैठ जाती है। वास्तव में यह किसी मंदराचल पर्वत द्वारा किसी जलीय समुद्र का मंथन नहीं था। यह तो आलंकारिक वर्णन है। यथार्थ में जब साधना-रई आरा प्राण रूपी समुद्र को मथा जाता है, तो कितने ही प्रकार के बहुमूल्य ऐश्वर्य प्रकट होते हैं। उपयोग-भेद के आधार पर यह अमृत तुल्य अनमोल और उपयोगी हो सकते हैं और विषतुल्य घातक भी। यह तो साधक पर निर्भर है कि वह अमृत को उसी रूप में आत्मसात् कर ले, अन्यथा अमृत का विष में परिवर्तन और विष का अमृत में रूपांतरण संभव है। समुद्र-मंथन से उत्पन्न अमृत को विष्णु ने देवताओं को दे दिया था, जबकि विष शिव जी ने गले में धारण कर लिया, क्योंकि उसे कहीं फेंकना विनाश का कारण बन सकता था।
यहाँ अमृत श्रेष्ठता का, उच्चता का, दिव्यता का प्रतीक है। जिसका व्यक्तित्व ऐसा देवोपम होगा, वह विष को भी उपयोगी अमृत बना सकता है। ‘शिव’ का अर्थ ही ‘कल्याण’ होता है। ऐसा व्यक्ति ही गरल को पचाकर स्वयं अपना और दूसरों का कल्याण कर सकता है।
उपर्युक्त तथ्य इस बात पर प्रकाश डालता है कि विशुद्धिचक्र का जागरण होने पर विष को भी आत्मसात् किया जा सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि सजगता के उच्च स्तर पर विशुद्धि तथा उससे उच्च चक्रों में होने पर विषैले तथा नकारात्मक पक्ष हमारे संपूर्ण अस्तित्व के उपयोगी भाग बन जाते हैं तथा उनका रूपांतरण आनंदमय स्थिति में हो जाता है। इसे विशुद्धिचक्र की विशेषता कहनी चाहिए कि यह न केवल आँतरिक, वरन् बाहरी जहर को भी ग्रहण-धारण कर उसे निष्प्रभावी बना देता है। यह इस चक्र की सिद्धि है और इस प्रकार के चमत्कार इसे जाग्रत कर लेने वाले योगीजन अक्सर दिखाते पाये जाते हैं।
नादयोग योग-विज्ञान की एक शाखा है। यह ध्वनि के स्पंदन से संबंधित है। चक्र साधना में विशुद्धि और मूलाधार स्पन्दनों के दो आधारभूत केन्द्र माने गए हैं। नादयोग में चक्रों के माध्यम से चेतना के ऊर्ध्वीकरण का संबंध संगीत के स्वरों से है। हर एक स्वर का तादात्म्य किसी चक्र विशेष की चेतना के स्पंदन स्तर से होता है। अक्सर ये स्वर जो मंत्र, भजन तथा कीर्तन के माध्यम से उच्चरित किए जाते हैं, विभिन्न चक्रों के जागरण के शक्तिशाली आधार हैं।
मूलाधार सरगम की ध्वनि तरंगों का प्रथम आयाम तथा विशुद्धि पंचम स्तर है। यहाँ से निःसृत ध्वनियाँ ही चक्रों का संगीत हैं। यह ध्वनियाँ या मंत्राक्षर जो यंत्र के सोलह दलों में अंकित हैं, आधारभूत ध्वनियाँ हैं। ये विशुद्धिचक्र से आरंभ होती हैं एवं इनका सीधा संबंध मस्तिष्क से है।
विशुद्धि चक्र वह संस्थान है, जहाँ सामने वाले व्यक्ति के मन में उठने वाली विचार-तरंगों को ग्रहण-धारण किया जाता है, तत्पश्चात् उन्हें मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों (जो अन्य चक्रों से संबंधित हैं) में भेजा जाता है। इस प्रकार उनकी अभिव्यक्ति वैयक्तिक सजगता एवं जागरूकता के रूप में सामने आती है। दूसरे शब्दों में, यह कह सकते हैं कि सामने वाले के मन में क्या ऊहापोह चल रही है- इसे जानने का यह एक सूक्ष्म संस्थान है। यों दूसरों की विचार-तरंगों को मणिपूरितचक्र पर भी अनुभव किया जा सकता है, पर विशुद्धिचक्र में इसकी अनुभूति का निमित्त एक अन्य उपकेन्द्र है, जिसका विशुद्धि से गहन संबंध है।
विशुद्धि से ही संबंधित एक नाड़ी है, जो ‘कूर्म नाड़ी’ कहलाती है। चक्र जागरण के क्रम में जब यह जाग्रत होती है, तो साधक अपनी भूख-प्यास पर विजय प्राप्त कर लेता है अर्थात् उसकी क्षुधा-तृषा एकदम समाप्त हो जाती है।
ऐसा देखा गया है कि योगीजन आयु पर अधिकार कर लेते और चिरयुवा बने रहते हैं। ऐसा विशुद्धि चक्र पर नियमन नियंत्रण के कारण होता है। योगविद्या विशारदों का कथन है कि जब कुण्डलिनी विशुद्धि में प्रतिष्ठित है, तो अक्षुण्ण यौवन प्राप्त होता है। ऊतकों, अवयवों तथा शारीरिक संस्थानों में विशुद्धिचक्र के कारण होने वाला कायाकल्प मनुष्य की सामान्य ह्रास प्रक्रिया के विपरीत है।
विशुद्धिचक्र पर ध्यान करने से मन आकाश की तरह शुद्ध हो जाता है। इसके अतिरिक्त चित्त शाँति, त्रिकालदर्शी, दीर्घजीवन, तेजस्विता, नीरोगता, वक्तृता, सर्वहित परायणता, शास्त्र ज्ञान जैसी कितनी ही विशेषताएँ प्रकट-प्रत्यक्ष होने लगती हैं, साधक की श्रवणशक्ति अत्यंत तीव्र हो जाती है। इसका कारण मन होता है, श्रवणेन्द्रियों में कोई शारीरिक परिवर्तन नहीं।
विशुद्धिचक्र को जगाने के लिए जालंधर वध और ध्यान-साधना यह दो सरल उपाय बताये गए हैं। स्वस्थ चित्त से सावधान होकर एक मास तक इस चक्र की साधना करने से वह प्रस्फुटित हो जाता है। ध्यान में उसके लक्षण अधिक स्पष्ट होने लगते हैं और चक्र के स्थान पर उससे संबंधित मातृकाओं, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों में अचानक कंपन, रोमांच, स्फुरण, उत्तेजना, दाद, खुजली जैसे अनुभव होते हैं। यह इस बात के चिह्न हैं कि चक्र का जागरण हो रहा है। एक मास या न्यूनाधिक काल में इस प्रकार के लक्षण प्रकट होने लगें, ध्यान में चक्र का रूप स्पष्ट होने लगे, तो उससे आगे बढ़कर इससे नीचे की ओर दूसरे चक्र में प्रवेश करना चाहिए।

