अपनों से अपनी बात - देवत्व के अवतरण की प्रयोगशाला हेतु भावनाशीलों का आह्वान
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वसुधैव कुटुम्बकम् का छोटा सा मॉडल होगी यह स्थापना
आज जिन समस्याओं से हम घिरे पड़े हैं, वे जानी-पहचानी है। समाधान भी प्रायः सभी विचारवानों को विदित है। बार-बार आप्तवचनों के माध्यम से उन पर अधिक ध्यान देने के लिए इसलिए कहा जाता है जिस हलके ढंग से इन तथ्यों पर विचार किया जाता रहता है, वह पर्याप्त नहीं। ढर्रे का आवरण उठाकर वास्तविकता को देखा जाना चाहिए। यही तत्त्वदर्शन या ईश्वरदर्शन है। इसी को आत्मसाक्षात्कार या ब्रह्मनिर्वाण कहा गया है। ढर्रे का अभ्यास ही भवबंधन है। माया जिसे कहा गया है, वह अवास्तविकता की खुमारी है। इसे हटाया एवं यह तथ्य अपनाया जा सके कि क्या किया जाना है तो समझना चाहिए कि जीवन-मुक्ति के मार्ग का अवरोध मिट गया।
प्रस्तुत भूमा जीवन विद्या के आलोक केंद्र देवसंस्कृति विश्वविद्यालय की स्थापना के साथ उस कार्य में खपने वाली प्राणवान जागृतात्माओं की भूमिका के संदर्भ में दी जा रही हैं। यह पारंपरिक विश्वविद्यालय नहीं, तीर्थ, आरण्यक और गुरुकुल का समन्वित संस्करण स्थापित किया जा रहा है। भाव−संपन्नों को दिशाधारा दे सकने योग्य वातावरण बनाने, जीवन विद्या के प्रशिक्षण का केन्द्र स्थापित करने तथा ‘वसुधैव कुटुँबकम्‘ का एक छोटा मॉडल स्थापित करने की दृष्टि से यह स्थापना की जा रही है। जहाँ प्रशिक्षण देने वाले अपने आचरण से शिक्षण पहले देंगे, वाणी व अन्य दृश्य-श्रव्य साधनों से बाद में, ऐसी कुछ विलक्षण संरचना है यह। निश्चित ही पढ़ने वाले तो बाद में आएंगे, पढ़ाने वाले, यहाँ निवास करने वाले, सभी तरह के कामों में स्वयंसेवक की तरह खपने वालों में यदि न्यूनाधिक भी कमी रही तो वह प्रारंभिक निर्धारण को, मूलभूत योजना को ही समाप्त कर देगी।
मनुष्य-जीवन ईश्वर का बहुमूल्य वरदान है। इसे इनाम नहीं, अमानत माना जाना चाहिए। भवबंधनों के कुचक्रों से निवृत्ति, पूर्णता की प्राप्ति जैसी महान् सफलताएँ इस एक ही तथ्य पर निर्भर हैं कि यथार्थता को हृदयंगम किया या नहीं? कहने-सुनने को तो आदर्शवादी बकवासें आए दिन कान्फ्रैन्स, वर्कशॉप, गोष्ठियों, प्रवचनों, कथाओं, नेताओं के भाषणों के रूप में चलती रहती हैं, पर वस्तुतः उनमें कोई सार नहीं। अध्यात्म का लाभ एवं चमत्कार मात्र उन्हीं को मिलता है, जो इसे कल्पनालोक की उड़ान न मानकर जीवन-दर्शन के रूप में मान्यता देते हैं, तदनुरूप ही दिशाधारा का निर्धारण करते हैं।
हम युगसंधि की ब्रह्मवेला में से गुजर रहे हैं। कुछ ही वर्षों में युगपरिवर्तन का सरंजाम पूर्णता पर पहुँचने को है। ऐसे में जागृतात्माओं का आत्मचिंतन जीवनदर्शन की यथार्थता के साथ जुड़ सके तो ही काम चलेगा। थोड़ी दूरदर्शिता और थोड़ी साहसिकता अपनाने पर उन तथाकथित परिस्थितियों का स्वरूप ही बदल जाता है, जो लक्ष्यपथ पर चल सकने की असमर्थता-विवशता बनकर सामने आती रहती है। मकड़ी अपना जाला आप बुनती है और उसमें फँसकर छटपटाती और जिस-तिस को दोष देती है, किंतु जब अपना चिंतन उलटती है तो अपने बुने जाले के धागे को समेटती-निगलती चली जाती है। निविड़ दीखने वाले बंधन देखते-देखते साँझ के रंगीन बादलों की तरह अदृश्य होने लगते हैं।
मानव-जीवन की गरिमा का समुचित उपयोग विश्वउद्यान को सुरम्य बनाने में योगदान देकर इस दुर्लभ सुअवसर को सार्थक बनाने में ही है। पेट-प्रजनन तक सीमित रहना अन्यान्य प्राणियों को शोभा देता है, मनुष्य को नहीं। मनुष्य तो स्रष्टा का युवराज है। उसे इतना मिला है कि अपनी विशेषताओं के सहारे तनिक-सा श्रम, मनोयोग लगाकर चुटकी बजाते वह उपार्जित कर सकता है और शेष विभूतियों से आत्मकल्याण और लोककल्याण जैसे उच्च उद्देश्यों की पूर्ति कर सकता है।
यदि विलासी लिप्सा और संग्रह की तृष्णा को हलका किया जा सके, तो औसत भारतीय जैसा नैतिक निर्वाह आसानी से उपार्जित हो सकता है। यदि परिवार को बढ़ाने की मूर्खता न की जाए, जो अब तक का है, उसे स्वावलंबी-सुसंस्कारी बनाना भर कर्त्तव्य माना जाए तो उस परिपोषण के लिए सामान्य प्रयास से ही काम चल सकता है। बोझिल जीवन तो उनका होता है, जो अमीरी के सपने देखते और उत्तराधिकारियों को वैभव से लादने की ललक सँजोए रहते हैं। बोझ इस दुष्ट−चिंतन भर का है। न किसी के लिए पेट भारी पड़ता है और न परिवार। बोझिल तो वह मूर्खता है, जो लिप्सा-तृष्णा के रूप में जोंक की तरह शिराओं में दाँत गड़ाए खून चूसती रहती है।
जीवन का ऐसा सुनियोजन करने का जो अवसर अब परिजनों को, प्रबुद्धों को, भावनाशील जागृतात्माओं को देवसंस्कृति विश्वविद्यालय में कार्य करने के गौरव भरे क्षणों के रूप में उपलब्ध होने जा रहा है, उसमें इन सभी बातों को ध्यान में रखा जाना है। अपनी सारी शक्ति चुक जाए एवं नस-नाड़ियाँ क्षीण-जर्जर हो जाएँ तब “कुछ नहीं तो यही सही” के क्रम में कोई यहाँ आने का मन बना रहा हो तो उसे हम स्पष्ट बता देना चाहेंगे कि यहाँ वृद्धाश्रम नहीं स्थापित होने जा रहा। हाँ, जो जीवन की मध्यावस्था में हैं, कुछ कर गुजरने की उत्कंठा उनमें है, राष्ट्र, संस्कृति के लिए खपने की कोशिश जिनके अन्दर है, उन्हें अब अपने उत्तरकाल के लिए अपनी प्रतिभा के नियोजन हेतु इस अवसर को न गँवाने की सलाह जरूर दी जाएगी। न यहाँ आकर्षक वेतनमान है, न रहने के लिए बड़े-बड़े बँगले पर जो भी कुछ है वह मन को शाँति, संतोष, उल्लास देने वाला तथा औसत भारतीय के जीवन में निर्वाह कर दिखाने वाला है। जिन्हें संग्रह-भोग-विलास, आज के अमीरी के साधनों की ललक हो, उनके लिए यह विश्वविद्यालय नहीं है। जो संस्कृति के लिए कुछ कर गुजरना चाहते हों, स्वयं भी अपने जीवन में जीकर ऋषिकालीन स्वर्णिम भारत का संस्करण दर्शाने की इच्छा रखते हों, उनका यहाँ स्वागत है। जहाँ डेढ़ सौ करोड़ रुपयों की राशि से निर्माण होने जा रहा हो, जिसकी व्यवस्था बनाए रखने में प्रतिवर्ष प्रायः उसकी पाँच से दस प्रतिशत राशि लगने की संभावना हो, फिर भी किसी प्रकार की फीस न ली जाने का फैसला लिया गया हो तो यही माना जाना चाहिए कि इसका संचालन ऋषिसत्ताओं के हाथ में है। वे ही सारी व्यवस्था बनाएँगे, पर संचालन तंत्र के आचरण-व्यवहार, किफायती जीवनशैली को सतत देखते रहेंगे। यह तभी संभव होगा जब मात्र कुलपति, उपकुलपति या संचालन मंडल ही नहीं, सभी विधाओं के प्रमुख व कार्य करने वाले शिक्षक, पढ़ने वाले छात्र ऋषिकालीन आश्रमों, नालंदा-तक्षशिला के गौरवमय अतीत को ध्यान में रखें। इतना विश्वास दिलाया जा रहा है कि जो भी कुछ होने जा रहा है, वह अपने आप में अद्भुत-विस्मयकारी एवं भारत को महानायक, विश्व का सिरमौर बनाने में प्रमुख भूमिका निभाने वाला दैवी पुरुषार्थ है। इसमें भागीदारी, समयदान, अंश या साधन किसी के लिए भी घाटे का सौदा नहीं होने जा रहा।
आज से सौ एक वर्ष पूर्व काँगड़ी गाँव में गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी। आज वह शताब्दी वर्ष मनाकर अपने शीर्ष पर है। स्वामी श्रद्धानंद जी की मूलभूत स्थापना की आज क्या स्थिति है, क्या उनके स्वप्न पूरे हो सके, यह तर्क का विषय को सकता है, पर पब्लिक स्कूल संस्कृति की भीड़ में एक लैपपोस्ट के रूप में प्रकाश-अवतरण करने वाले केंद्र के रूप में वह आज भी देखा जाता है। यह उत्तराँचल ही नहीं, पूरे राष्ट्र का गौरव है। यहाँ से निकले स्नातक-विद्यावाचस्पति में सारे विश्व में मिले हैं एवं वे साँस्कृतिक गौरव-गरिमा का यथासंभव विस्तार कर रहे हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय आज किस स्थिति में है, इस विवाद में न पड़कर मूलभूत स्थापना के पुरुषार्थ को, लक्ष्य को एवं प्रतिकूलताओं-गुलामी के माहौल में एक स्वाभिमानी ऋषि महामना के त्याग व तप को कभी नहीं भुलाया जा सकता। काश इन दो संस्थाओं को वैसे उत्तराधिकारी भी मिले होते तो परंपरागत विश्वविद्यालयों की विकृतियाँ इनमें न आतीं। हमारा कार्य तो इन दो मूलभूत विश्वविद्यालय रूपी स्थापनाओं को आगे बढ़ाना , आगे इनसे सहयोग करके इन्हें भी गति देने का है। काशी विद्यापीठ एवं प्रेम महाविद्यालय ने अपने जमाने में भारत के लिए मर-मिटने वाले राष्ट्रभक्तों के निर्माण का दायित्व खूब सँभाला था। यदि शिक्षण संस्था प्राणवानों-जाग्रत जीवनदानियों के द्वारा चलती है एवं साथ-ही-साथ उत्तराधिकारियों के निर्माण का कार्य भी चलता रहता है, तो कहीं-कोई अड़चन उसके कई शतकों तक चलने में आनी नहीं चाहिए। इसीलिए परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने भवनों के निर्माण से अधिक छोटे-मध्यम वर्ग के, किंतु भावनासंपन्न समयदानी-जीवनदानी कार्यकर्त्ताओं के मनों को बनाने पर सर्वाधिक ध्यान दिया। यदि यह कार्य अनवरत चलता रहे तो संस्थाएँ चलती रहती हैं एवं आगे बढ़ती रहती हैं।
यहाँ हमें परमपूज्य गुरुदेव द्वारा दिए गए उद्बोधन (1 जून 1980) से कुछ उद्धृत करने का मन है।यह उद्बोधन गायत्री विद्यापीठ गुरुकुल के शुभारंभ-अवसर पर उद्घाटन समारोह में बालकों, शिक्षकों के संस्कार से पूर्व दिया गया था। पूज्यवर कहते है, “भारतीय संस्कृति का शिक्षण करने वाला एक विश्वविद्यालय स्तर का तंत्र हम खड़ा करेंगे। कब करेंगे? आप देखिएगा, हम हो न हो, पर बीज बो रहे हैं। हमारे उत्तराधिकारी आने वाले दस-पंद्रह वर्षों में यह समग्र तंत्र तैयार कर देंगे। आपको इस संबंध में आशावादी होना चाहिए।” आगे वे कहते हैं, “आज हमें आई. ए. एस. की नहीं समाज को सुधारने वाले लोकसेवियों की जरूरत है। समाज को शानदार मनुष्यों की जरूरत हैं। स्वस्थ चिंतन करने वाले युवा रक्त की जरूरत है। इसीलिए स्कूलों-कॉलेजों की शिक्षण पद्धति में व्यापक क्राँति पैदा करने के लिए यहीं से वातावरण बनाते है।” (गुरुवार की धरोहर-भाग 2, पृष्ठ 80)
परिजन ध्यान दें। पूज्यवर के इस उद्बोधन में हममें से अधिकाँश थे, पर कभी सोचा भी न था कि उनका बोला ब्रह्मवाक्य इस तरह साकार होता चला जाएगा। जिन्हें विश्वास था, वे प्रतीक्षारत थे। जो काम की धकापेल में भूल गए थे, उन्हें ऋषिचेतना ने प्रेरित किया, उलाहना दिया, बेचैन कर दिया और अंततः इस निर्माण का एक ढाँचा थोड़ा विलंब से ही सही (पूज्यवर ने दस-पंद्रह वर्ष कहा था) आँवलखेड़ा की पूर्णाहुति 1995 के बाद बना, लगभग तीस एकड़ भूमि क्रय की गई एवं फिर 1999 में उन प्राणवान परिजनों के मध्य, संतों की उपस्थिति में भूमिपूजन (23 मई) हुआ। निर्माण आरंभ हुआ और क्रमशः एक महाविद्यालय सन् 21 में आरंभ कर दिया गया। सन् 2001 आते-आते दिसंबर के मध्य में एक अध्यादेश द्वारा उत्तराँचल सरकार ने इसे डीम्ड यूनिवर्सिटी का पद दे दिया। निर्माण अभी भी चालू है। प्रायः पंद्रह करोड़ रुपये खरच हो चुके, अभी इससे दस गुना और खर्च होना है। दो वर्षों में यह क्रमशः पूरा हो जाएगा। सारे भारत व विश्वभर के प्राणवानों-विद्वत्जनों, भावनाशीलों पर दृष्टि डाली जा रही है कि इस शुभारंभ के लिए कहाँ से व्यक्ति, कार्यकर्त्ता आएंगे। जीवन विद्या का प्रशिक्षण देना, संस्कृति के विज्ञानसम्मत पुनर्जीवन, शोध-अध्ययन का ढाँचा खड़ा करना कोई आसान कार्य नहीं। आज जब चिंतकों-मनीषियों, भावनाशील समर्पितों का अभाव चारों ओर दिखाई देता है, हमें ऋषिसत्ता पर विश्वास है। निश्चित ही प्रगतिशील चिंतन करने वाले दूरदर्शी इस आपत्तिकाल में कहीं-न-कहीं होंगे। वे आएँगे और गुरुकुल विद्यापीठ को एक आदर्श विद्यालय, इंटर कॉलेज, महाविद्यालय एवं हमारे अभी के महाविद्यालय को विश्वविद्यालय बनाने हेतु खप जाएँगे। सारे भारत के चार हजार शक्तिपीठों, प्रज्ञासंस्थानों में से हमने लगभग पाँच सौ चिह्नित कर लिए हैं, जिन्हें महाविद्यालय के रूप में विकसित किया जाएगा व इस विश्वविद्यालय से संबद्ध किया जाएगा। संस्कार देने वाली अनौपचारिक, किंतु सर्वांगपूर्ण शोधप्रधान, पर स्वावलंबी बना देने वाली, मात्र डिग्रीधारी नहीं, शिक्षण प्रक्रिया भी यहाँ से एक वर्ष में आरंभ हो जाएगी। ब्राह्मणोचित जीवन जीने वालों को एक ही सलाह दी जा रही है कि बेटों को बैरिस्टर बनाने और लड़की को कुबेर के घर भेजने का नशा हलका कर लें और औसत नागरिक की तरह निर्वाह कर अपना जीवन धन्य बनाने, अपनी संतानों को भी यहीं इसी विश्वविद्यालय का स्नातक बनाने में गौरव का अनुभव करें।
किसी के मन में यह संदेह हो कि कार्य तो आदर्श है, पर धन की पूर्ति बिना तो कार्य रुकेगा। यह स्पष्ट को जाना चाहिए कि आदर्शवाद को अपनाने वाले कभी घाटे में नहीं रहते। जिस प्रेरक शक्ति ने आज तक इस संस्था को पोषण दिया है, इसकी दैनंदिन आवश्यकता की पूर्ति की है, वही सत्ता श्रीमंतों को जगाएगी, उनके अधिकाधिक अंशदान दिलवाएगी, उन्हें प्रेरित करेगी कि वे समय नहीं दे सकते तो अपनी समृद्धि का एक अंश युगधर्म निर्वाह हेतु दें। लाखों भावनाशील परिजन अभी से अपनी कमाई का एक दिन का हिस्सा इस पुण्य प्रयोजन के लिए निकालने में लग गए हैं। प्रसन्नता का विषय है कि आयकर विभाग के प्रमुख तंत्र ने इस निमित्त दिए गए अनुदान पर सौ प्रतिशत छूट देने पर विचार किया है एवं पूरी संभावना है कि यह सारी प्रक्रिया अगला अंक आने तक पूरी हो जाए। गुरुवर कहा करते थे कि आसमान फाड़कर भी वह कार्य होकर रहेगा। किसी को भी इसमें संदेह नहीं करना चाहिए।
युगसंधि की पुनीत वेला में आपाद् धर्म से मुँह न मोड़कर, ऐसे विशेष समय को, जब देवता भी मनुष्यों से याचना करते हैं, पहचानकर सौभाग्यशाली आएँगे एवं युग के नवनिर्माण हेतु की जा रही इस स्थापना के नींव के पत्थर बनेंगे, यही आशा-अपेक्षा है।

