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Books - अणु में विभु-गागर में सागर

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शक्ति अर्थात् आत्म चेतना का विज्ञान

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प्राग (चेकोस्लोवाकिया) में एक ऐसी मशीन तैयार की गई है; जो धातु की पतली चादरों और जल्दी पिघलने वाली धातुओं को काटने या छेद करने के काम आती है। यह मशीन एक मिलीमीटर के सौवें भाग तक सही कटाई कर सकती है। इतनी सूक्ष्म और सही (एक्युरेट) किसी तेज अस्त्र, चाकू या आरी से नहीं की जाती। यह कार्य इलेक्ट्रानों की किरणें फेंककर किया जाता है। इलेक्ट्रान की एक किरण की विद्युत् क्षमता 60000 वोल्ट होती है। फिर यदि कई किरणों का समूह (बीम) प्रयुक्त किया जाये, तो उससे कितनी शक्ति प्रवाहित हो सकती है?—इसका सहज ही अनुमान किया जा सकता है। इलेक्ट्रान परमाणु का ऋण विद्युत आवेश मात्र है। वह .00000001 मिलीमीटर व्यास के अति सूक्ष्म परमाणु का एक अंश मात्र है। लेकिन परमाणु का स्वयं भी कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं। इलेक्ट्रानिक माइक्रोस्कोप से केवल इसका प्रभाव देखा जा सकता है। परमाणु का सबसे आश्चर्यजनक जगत् तो उसकी चेतना, केन्द्रक या नाभिक (न्यूक्लियस) में विद्यमान है। इस सम्बन्ध में हुई खोजें बड़ी महत्वपूर्ण हैं और नाभिकीय विद्या (न्यूक्लियर साइन्स) के नाम से जानी जाती है। उसका प्रारम्भ 1895 में प्रो. हेनरी बेक्वेरल ने किया और जेम्स चैडविक ने उसे विकसित किया।

नाभिक में प्रसुप्त शक्ति को खोजा प्रो. एनारेको फर्मी ने। उन्होंने न्यूट्रान के अनेक रहस्यों का पता लगाकर सारे विज्ञान जगत् में तहलका मचा कर रख दिया। नाभिकीय शक्ति का पता लगाकर प्रो. फर्मी को भी कहना पड़ा था—‘हम छोटी-छोटी वस्तुओं में उलझे पड़े हैं। वस्तुतः संसार में महान् शक्तियां भी हैं, जिनसे सम्बन्ध बनाकर हम अपने आप को शक्तिशाली तथा और अधिक प्रसन्न बना सकते हैं।’ प्रकृति के कण कण में अनन्त शक्ति भण्डार भरा पड़ा है। वस्तुतः यह समस्त जगत ही शक्ति रूप है। परब्रह्म की सहचरी प्रकृति ही यदि शक्ति रूप न हुई तो और कौन होगा? अपना सौर मण्डल और विश्व ब्रह्माण्ड जिस असीम विस्तार वैभव से भरे पूरे हैं उसी का प्रतिनिधित्व छोटे परमाणु करते हैं। बहुत समय पूर्व परमाणु को पदार्थ की सबसे छोटी इकाई माना जाता था। यह तो पीछे पता चला परमाणु भी एक सौरमण्डल है, जिसका एक मूल केन्द्र है नाभिक न्यूक्लियस। इसके इर्द गिर्द इलेक्ट्रोन ग्रहों की तरह परिक्रमा करते हैं। पीछे पता चला नाभिक भी एकाकी नहीं है। वह प्रोट्रॉन और न्यूट्रोन कणों से मिलकर बना है। बाद में यह भी पता चला कि वे भी दो नहीं रहे। परमाणु के भीतर 150 प्राथमिक कण गिने जा रहे हैं। इनके गुण, धर्म अभी बहुत स्वल्प मान में ही जाने जा सके हैं। ये भी चिर स्थायी नहीं है, जन्मते नई पीढ़ी उत्पन्न करते और मरते रहते हैं। इन कणों को विद्युत आवेश की दृष्टि से दो वर्गों में बांटा जा सकता है पोजिट्रोन अर्थात् धनावेशी कण। इलेक्ट्रोन अर्थात् ऋणावेशी कण। परमाणु भौतिकी में ऊर्जा की सबसे छोटी इकाई ‘इलेक्ट्रोन वोल्ट’ मानी जाती है। वह इतनी कम है जितनी किसी वस्तु को बहुत ही हलके हाथ से पेन्सिल की नोक छुटा देने भर से उत्पन्न होती है। प्राथमिक कण को इतनी ही ऊर्जा युक्त माना गया है। परमाणु का अस्तित्व इतना कम है कि उसे स्वाभाविक स्थिति में नहीं जाना जा सकता उसका परिचय तभी मिलता है जब उसे अतिरिक्त ऊर्जा देकर चंचल बनाया जाय।

ऐसी चंचलता 1000 से 10000 इलेक्ट्रोन वोल्ट को बढ़ाने पर ही हम उन्हें अपने किसी काम में ला सकते हैं। उसका नाभिक विचलित करने के लिये लाख से लगाकर 100 लाख तक इलेक्ट्रान वोल्ट ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। विभिन्न पदार्थों में पाये जाने वाले कणों की संरचना अलग-अलग प्रकार की है। हाइड्रोजन परमाणु के नाभिक में केवल एक प्रोटोन पाया जाता है जबकि अन्यों में अनेक। यूरेनियम के नाभिकों में तो 92 प्रोटोन पाये जाते हैं। भौतिकी का मोटा और सर्वमान्य नियम यह है कि समान आवेश वाले कण एक दूसरे को दूर धकेलते हैं और असमान आवेश वाले एक दूसरे को पास खींचते हैं। विद्युत और चुम्बक बल का आधार यही है। नाभिक में धनावेशी प्रोटोन होते हैं इसलिए स्वभावतः ऋणावेशी इलेक्ट्रोन उनका चक्कर काटेंगे। पर आश्चर्य यह है कि नाभिक के भीतर सभी प्रोटोन धनावेशी होते हैं और वे साथ-साथ निर्वाह करते हैं। इसमें तो भौतिकी का सर्वमान्य सिद्धान्त ही उलट जाता है। इस समस्या का समाधान करते हुए वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि नाभिक के क्षेत्र में विद्युत चुम्बकीय नियम निरस्त हो जाता है उसके स्थान पर एक अन्य बल काम करता है—जिसका नाम ‘नाभिकीय बल’ रखा गया है। यह विद्युत चुम्बकीय बल की तुलना में 100 गुना अधिक सशक्त माना गया है। इसका प्रभाव अपने छोटे क्षेत्र तक ही सीमित रहता है। प्राथमिक कण न केवल अपनी छोटी कक्षा में वरन् धुरी पर भी घूमते हैं।

अन्य ग्रहों की तरह ही उनका भी वही क्रम है। नाभिक को तोड़ने से प्रचण्ड ऊर्जा प्राप्त होती है। इसके लिये कणों को अतिरिक्त ऊर्जा देनी पड़ती है। इसके लिये बहुमूल्य संयम बनाये गये हैं जिन्हें साइक्लोट्रोन या सिकाटोन कहते हैं। अमेरिका के ब्रुक ‘हैवन’ क्षेत्र में बने संयम में 30 अरब इलेक्ट्रोन वाल्ट की क्षमता है। रूस के डुबना क्षेत्र में बने संयम में इससे भी ढाई गुनी अधिक क्षमता है। आइन्स्टाइन द्वारा प्रादुर्भूत शक्ति महासूत्रों के आधार पर यदि एक पौंड पदार्थ को पूर्णतया शक्ति रूप में बदला जाय तो उससे उतनी ऊर्जा प्राप्त होगी जितनी 1400000 टन कोयला जलाने से मिल सकती है। इसमें 25 हजार अश्व शक्ति का कोई इन्जन कई सप्ताह सतत कार्य करता रह सकता है। यह नई ‘अणु महाशक्ति’ निश्चय ही संसार की कायापलट करके रखेगी, इस तथ्य को सभी जानकार लोगों ने उसी समय जान लिया था। अमेरिका में ‘‘अणु-वैज्ञानिकों’’ के संघ ने, जिनकी खोजों के आधार पर अणु-बम बनाया जा सका था, एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसका शीर्षक था—‘‘अणु-बम के सच्चे अर्थ के सम्बन्ध में जनता के सामने एक वक्तव्य।’’ इसके मुख पृष्ठ पर मोटे अक्षरों में लिखा था—‘वन वर्ल्ड और न न।’ इसका आशय था कि या तो अब समस्त संसार एक बनकर रहेगा या संसार रहेगा ही नहीं। यह नई प्रलयकारिणी शक्ति, जो विधि के विधानवश स्वार्थी मनुष्य के हाथों में आ गई हैं कितनी भयंकर है, उसका कुछ अनुमान उस विवरणों से किया जा सकता है, जो समय-समय पर अमेरिका और योरोप के पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं। उससे विदित होता है कि दो करोड़ टी.एन.टी. (विस्फोटक) में जितनी शक्ति होती है उतनी ही शक्ति ‘यू 235’ (एटम बम में काम आने वाला ‘यूरेनियम’ नाम का पदार्थ) के एक किलोग्राम से पाई जाती है। एक किलोग्राम यूरेनियम में ‘थर्मोन्यूक्लियर’ 5 करोड़ 70 लाख टी.एन.टी. के समान स्फोट करने की प्रचण्ड शक्ति होती है।

आप इसका अनुमान इससे कर सकते हैं कि इसका प्रभाव उतना ही होगा जितना एक लाख तोप भयंकर गोलों का हो सकता है। जैसे-जैसे हाइड्रोजन बमों की भयंकरता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे ही उनको दूरदर्शी लक्ष्य पर कम-से-कम समय में फेंकने की विधि ढूंढ़ने में लोग अधिकाधिक प्रयत्नशील हो रहे हैं। अब से कुछ वर्ष पहले तक इस कार्य के मुख्य साधन जेट विमान थे, जो 400 से 1500 मील प्रति घन्टा तक चल सकते थे। यह गति आक्रमणकारियों को बहुत कम जान पड़ी। इस गति से अमरीका से रूस पहुंचने में कम-से-कम तीन घण्टा और चीन तक छह घण्टे का समय लग जायेगा। इसलिये बम ले जाने वाले ‘राकेट’ बनाये गये, जिनमें बहुत शक्तिशाली रासायनिक द्रव्य भरे गये। इनकी गति घण्टे में 15 से 25 हजार मील के लगभग है। पर इस अणु युग में लोगों को इससे भी सन्तोष नहीं हुआ और अणु-शक्ति की सामग्री द्वारा राकेट को चलाने की विधि सोची गई। अब ‘प्लास्मा’ और ‘प्रोटोन’ (अणु-शक्ति सम्पन्न पदार्थों) के प्रयोगों से यह गति एक घण्टे में 50 लाख मील तक बढ़ाली गई है। यह गति बिजली की गति से कुछ ही कम है। यह नहीं कहा जा सकता कि अभी यह सिद्धान्त की बात है अथवा व्यवहार में भी आ चुकी है, तो भी यह निश्चय है कि अमरीका और रूस ऐसे राकेट बना चुके हैं जो एक घण्टे से कम समय में संसार के किसी भी भाग में पहुंच सकते हैं। दूसरे महायुद्ध में हिटलर ने एक प्रकार के बी-1 बी-2 नामक स्थायी ‘राकेट’ बनाकर उनके द्वारा अपने देश से ही इंग्लैण्ड पर बम वर्षा की थी।

उससे 13 हजार व्यक्ति मरे और घायल हुये थे। इस अस्त्रों का निर्माता डा. बर्जर आज-कल अमरीका चला गया है। वहां वह अमरीका विरोधी साम्यवादी देशों को अणु-शक्ति द्वारा नष्ट करने की विधि परिपक्व करता रहता है। सन् 1961 में उसने परामर्श दिया था कि अन्तरिक्ष में उड़ने वाले यानों से सैकड़ों अणु-बम एक साथ छोड़ने की तैयारी करनी चाहिये। परमाणु के उपरोक्त अंग प्रत्यंगों में भी अब भेद उपभेद निकलते चले आ रहे हैं। हाइपेरान परिवार के लैक्वडा कण, ऐन्टा हाइपे रान, सिग्मा केस्केड, फोटान, न्यूट्रिनो आदि परमाणु के उपभेद इन दिनों विशेष शोध के विषय बने हुए हैं। इन मौलिक तत्वों के अतिरिक्त लगभग वैसी ही विशेषताओं से युक्त नये तत्व कणों का कृत्रिम सम्मिश्रण तैयार किया जा रहा है। इन सब एटामिक कणों की आकृति और प्रकृति में अति आश्चर्यजनक नवीनतायें प्रकट होती चली जा रही है। भावी शक्ति स्रोत के लिये इन दिनों परमाणु शक्ति पर निगाह लगी हुई है और उसका सुलभ उपयोग तलाश किया जा रहा है। आश्चर्य है कि परमाणु जैसी नगण्य इकाई—तुच्छ सी वस्तु किस प्रकार शक्ति का प्रचण्ड स्रोत बनकर मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति में महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादित कर सकेगी।

परमाणु में शक्ति उत्पन्न करने का क्रिया-कलाप है—अणु—विखण्डन। इसके लिए मूलतया यूरेनियम का प्रयोग किया जाता है। उस पर न्यूट्राणुओं का आघात करने से आसानी से टूट जाता है। उपलब्ध यूरेनियम का सर्वांश विखण्डन के योग्य नहीं होता। उसमें 0.71 प्रतिशत ही विखण्डनीय अंश है शेष तो अन्य वस्तुयें ही उसमें मिली हुई हैं—जिन्हें उर्वर कहा जा सकता है। प्रयत्न यह हो रहा है कि इस उर्वर अंश को भी विखण्डन से सहायता देने योग्य बनाया जाय। वैज्ञानिकों की भाषा में शुद्ध अंश को यूरेनियम—235 और अशुद्ध अंश को—238 कहा जाता है। इस 238 अंश पर न्यूट्राणुओं का आघात करके उसे भी एक नये पदार्थ—प्लूटोनियम—239 में परिणत कर लिया जाता है। इस प्रकार लगभग यह सारा ही मसाला घुमा फिरा कर परमाणु शक्ति उत्पन्न करने में प्रयुक्त हो सकने योग्य बना लिया जायेगा। इस अणु शक्ति का यदि सद्भावना पूर्वक सदुपयोग किया जा सके तो समृद्धि का असीम उत्पादन हो सकता है और उससे मानवी सुख-शान्ति में अनेक गुनी वृद्धि हो सकती है। अणु शक्ति के रचनात्मक प्रयोग सोचे गये हैं और वे सहज ही कार्यान्वित भी हो सकते हैं। पर यह सम्भव तभी है जब सद्भावना का उत्पादन अन्तःकरण की प्रयोगशालाओं में भी साथ-साथ होता चले। अणु आयुधों की भयंकरता और उनके उत्पादन की विपुलता को देखते हुये आज समस्त मानव जाति महामरण के त्रास से बुरी तरह संत्रस्त हो रही है। वस्तुतः वह त्रास अणु शक्ति का नहीं मानवी दुर्भावना का है जिसके आधार से अमृत भी विष बन जाता है। यदि पाशा पलट जाय, दुर्बुद्धि का स्थान सद्भावनायें लेलें और अणु शक्ति का उपयोग रचनात्मक कार्यों में होने लगे तो उसकी सुखद सम्भावनाओं का क्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक हो सकता है।

रेडियो सक्रियता को धातुओं में नियन्त्रित एवं व्यवस्थित क्रम से संजोकर आइस्टोप बनाये जाते हैं। इनका उपयोग चिकित्सा, उद्योग, हाइड्रोलाजी आदि में होता है। थाइराइड ग्रन्थियों की गड़बड़ी रोकने के लिये रेडियो डाइन आइस्टोपों का प्रयोग होता है। स्वर्ण निर्मित आस्टोप केन्सर की चिकित्सा में काम आते हैं। रक्त में बढ़े हुये श्वेत कणों की चिकित्सा फास्फोरस आइस्टोपों से होती है। फसल में लगे हुए कीड़े मारने, उत्पादन बढ़ाने, शरीर एवं जल परीक्षा जैसे कार्यों में इनका प्रयोग होता है। इनका निर्माण एक बन्द कैबिन में यन्त्रों की सहायता से किया जा सकता है। सस्ती और प्रचुर परिमाण में विद्युत शक्ति प्राप्त करने के लिये अब परमाणु शक्ति पर विज्ञान का ध्यान केन्द्रित है। समुद्री पानी को पीने योग्य बनाने के लिए इसी शक्ति का बड़े पैमाने पर प्रयोग करना पड़ेगा। पानी में पाई जाने वाली हाइड्रोजन गैस को बिजली में बदल देने का—जलयान, वायुयान चलाने में—ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी जमीनों को समतल बनाने में जितनी प्रचण्ड शक्ति का प्रयोग करना पड़ेगा उतनी मात्रा अणु शक्ति के अतिरिक्त और किसी माध्यम से नहीं मिल सकती। अणु ऊर्जा से बिजली पैदा करने का कार्य अब अनेक विकसित देशों में हो रहा है।

सन् 1971 में संसार भर से 120 अणु शक्ति से बिजली उत्पन्न करने वाले 102 रिएक्टर थे और 19 हजार मेगाटन बिजली उनसे पैदा हो रही थी अब यह वृद्धि द्रुतगति से हो रही है। अनुमान है कि 1980 में 3 लाख टन बिजली इसी आधार पर पैदा होने लगेगी जो संसार के समस्त विद्युत उत्पादन की 15 प्रतिशत होगी। सन् 2000 में आधी बिजली अणु शक्ति द्वारा उत्पन्न की गई ही होगी। इन दिनों बिजली, भाप, तेल, गैस, कोयला आदि के माध्यम से ईंधन की जरूरत पूरी की जाती है और उन्हीं से विविध-विधि प्रयोजन सिद्ध किये जाते हैं। भविष्य में शक्ति का स्रोत अणु ऊर्जा बन सकती है और उससे वे कार्य हो सकते हैं जो आज के साधनों से सम्भव नहीं। पर्वतों को चूर्ण-विचूर्ण करके भूमि को समतल, उपजाऊ और उपयोगी बनाया जा सकता है। समुद्र जल को मीठा किया जा सकता है। अणु शक्ति की तरह ही मनुष्य की चेतना शक्ति है जिसके अन्तर्गत मन, बुद्धि, चित्त, आत्मबोध को अन्तःकरण के रूप में जाना जाता है। लगन, तत्परता, एकाग्रता, तन्मयता, निष्ठा, दृढ़ता, हिम्मत जैसे मानसिक गुण ऐसे हैं जिनके आधार पर अणु शक्ति से भी करोड़ों गुनी अधिक प्रखर आत्मिक शक्ति को जगाया, बढ़ाया, रोका संभाला और प्रयुक्त किया जा सकता है। अणु विज्ञान से बढ़कर आत्म विज्ञान है। जड़ अणु में जब इतनी शक्ति विद्यमान है तो जड़ की तुलना में चेतन का जो अनुपात है उसी हिसाब से आत्म शक्ति की महत्त्व होनी चाहिये।

अणु विज्ञानी अपनी उपलब्धियों पर गर्वान्वित है और उस सामर्थ्य को युद्ध अस्त्र से लेकर बिजली की कमी को पूरा करने जैसी योजनाओं में प्रयुक्त करने के लिये प्रयत्नशील है। आत्म विज्ञानियों का कर्त्तव्य है कि वे उसी लगन और तत्परता के साथ आत्म शक्ति की महत्त्व और उपयोगिता को इस प्रकार प्रमाणित करें कि सर्व साधारण को उसकी गरिमा समझा सकना सम्भव हो सके। महा मानव वस्तुतः एक जीवन्त प्रयोग परीक्षण है जिन्हें आत्म शक्ति के संग्रह और सदुपयोग कर सकना आया और उस प्रयोग के द्वारा प्रगतिपथ पर बढ़ चलने का लाभ उठाया। ज्ञान शक्ति, इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति की त्रिवेणी को केन्द्रित कर उससे उत्पन्न सामर्थ्य को रचनात्मक दिशा में प्रयुक्त कर सकने की विधि व्यवस्था को अध्यात्म विज्ञान कहते हैं। मध्य काल में उसका स्वरूप अन्ध विश्वासी जनता और श्रद्धा शोषक साधना व्यवसायी लोगों द्वारा विकृत अवश्य हो गया और उससे अनास्था भी फैली, पर उससे मूल तथ्य पर कोई आंच नहीं आती। सत्य जहां था वहां का वहीं मौजूद है। अणु शक्ति की ऊर्जा बिखर जाने से हानि होती है। आत्म शक्ति का रावण, कुम्भकरण, भस्मासुर, हिरण्यकश्यपु की तरह दुरुपयोग होने का खतरा है। सिद्धि चमत्कारों के हास परिहास में उसे कौतुक कौतूहल के बाजारू स्तर पर रखकर उपहासास्पद भी बनाया जा सकता है, पर यदि उसे ठीक तरह समझा और संभाला जाय—वैयक्तिक विकास और सामाजिक उत्कर्ष में उसका सुविज्ञ व्यक्तियों द्वारा उपयोग किया जाय तो उसकी गरिमा अणु शक्ति की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है। आत्मिक प्रयोजनों के लिए भी इस सिद्धान्त को अपनाकर योगी सिद्ध, सन्तों ने अनेक लाभ उठाये हैं। स्वामी विवेकानन्द ने बनारस जिले में गुजी नामक स्थान के निकट पवाहारी बाबा के बारे में लिखा है कि वे स्थूल अन्न ग्रहण नहीं करते थे। पव अर्थात् वायु, आहारी अर्थात् ग्रहण करने वाला पवाहारी अर्थात् जो केवल वायु का ही आहार ग्रहण करता था।

वे काठियावाड़ के गिरनार पर्वत पर रहकर साधना करते थे। महीनों गुफा के अन्दर बन्द रहते थे। कई बार तो लोगों को सन्देह होता था कि वे मर गये। पर जब वे निकाले जाते थे, तो उनके शरीर-स्वास्थ्य में कोई अन्तर नहीं आता था। अमेरिकी डाक्टरों के एक दल ने एक बार उनकी जांच करके बताया था—‘आहार द्वारा जो तत्व शरीर ग्रहण करता है वह सब तत्व उनके शरीर में हैं।’ जबकि वे खाना खाते ही नहीं थे। श्री पवाहारी बाबा अपनी विचार व भावनाओं के चेतना-प्रवाह द्वारा हवा में पाये जाने वाले अन्न और खनिज के सभी तत्व खींच लेते थे और इसी का परिणाम था कि वे बिना खाये जीवित बने रहते थे। मानसिक चेतना द्वारा पदार्थों के हस्तान्तरण के ऐसे सैकड़ों उदाहरण और चमत्कार हिमालय में रहने वाले कई योगियों में आज भी देखे जा सकते हैं। यह सब अन्तःचेतना की शक्ति के ही विकास से ही सम्भव होता है। पदार्थ के नाभिक की शक्ति का साधारण अनुमान उसकी इलेक्ट्रानिक शक्ति से लगाते हैं, तो आत्म-चेतना की शक्ति का तो अनुमान ही नहीं किया जा सकता। ऊर्जा कोई स्थूल पदार्थ नहीं है। ताप, विद्युत् और प्रकाश के सम्मिलित रूप को ही ऊर्जा कहते हैं। प्रकृति का प्रत्येक कण इस तरह एक शक्ति है, जबकि आत्मा उससे भी सूक्ष्म और उस पर नियन्त्रण करने वाला है। इसलिये उसे ताप, विद्युत् या प्रकाश के लिये बाह्य साधन भी अपेक्षित नहीं। यदि हम आत्मा को प्राप्त कर सकें, तो इन तीनों आवश्यकताओं की पूर्ति हम अपने भीतर से ही कर सकते हैं। घोर अन्धकार में भी आत्मदर्शी निर्भय चला जाता है, क्योंकि उसका प्रकाश उसे साथ देता है। जिस तरह हम दिन के प्रकाश में चलते हैं। योगी घने अन्धकार में भी वैसे ही चलता है। विद्युत एक ऐसी शक्ति है, जिससे शेर-चीते भी बस में किये जा सकते हैं। वह मनुष्य के पास हो, तो वह हथियारों से लैस सेना से भी क्यों डरेगा? स्वामी रामतीर्थ हिमालय की तराइयों में घूमा करते थे, तब शेर-चीते भी उनके पास ऐसे आ जाते थे जैसे छोटे-छोटे बच्चे अपने पास खेला करते हैं।

उनके शरीर में उतनी शक्ति होती है, जिससे प्रकृति के किसी भी परिवर्तन को आसानी से सहन किया जा सके। सूर्य के मध्य भाग में 50000000 डिग्री ताप होता है, पर वह इस शक्ति का 200000 वां हिस्सा ही उपयोग में लेता है। हमारी सामान्य दीखने वाली शक्तियां भी संचित सूर्य की ताप-शक्ति के समान हैं। पर उन्हें न जानने के कारण हम दीन-हीन स्थिति में पड़े रहते हैं। एक पौण्ड यूरेनियम 235 को तोड़ा जाता है, तो उससे उतनी ऊर्जा प्राप्त होती है, जितनी 20000 टन टी.एन.टी के विस्फोट से। यह शक्ति इतनी अधिक होती है कि उससे 100 वाट पावर के दस हजार बल्ब पूरे वर्ष दिन-रात जलाये रखे जा सकते हैं। स्ट्रासमान ने सर्वप्रथम इसी शक्ति का उपयोग नागासाकी और हिरोशिमा को फूंकने में किया था। यह सब शक्ति तो आत्मिक चेतना या नाभिक के आश्रित कणों की शक्ति है। यदि नाभिक को तोड़ना किसी प्रकार सम्भव हो जाये, तो विश्व-प्रलय जैसी शक्ति उत्पन्न की जा सकती है—इसे आत्मदर्शी योगी जानते हैं। परमाणु का भार अचिन्त्य है और उसकी शक्ति अकूत। वैज्ञानिक बताते हैं कि यदि सारी पृथ्वी को पीटकर नाभिकीय घनत्व के बराबर लाया जाये, तो वह कुछ घन फुट में ही समा जायेगी। इसी से नाभिक की लघुता का अनुमान किया जा सकता है। किन्तु इस घनीभूत की गई पृथ्वी का एक अंगूर के बराबर टुकड़ा काटें, तो उसका भार साढ़े सात करोड़ टन होगा। ऐसी मजबूत चादरों के ऊपर यदि इस टुकड़े को रख दिया जाये, जिन्हें छेदना सम्भव न हो, तो यही टुकड़ा पृथ्वी को भगाकर अन्तरिक्ष में कहीं और लेकर भाग जायेगा। यदि उसे खुली मिट्टी पर रख दिया जाये, तो वह पृथ्वी को फाड़ता हुआ चला जायेगा और सम्भव है पृथ्वी को छेदकर वह स्वयं भी कहीं अन्तरिक्ष में जाकर भटक जाये। परमाणु के अन्दर इस नाभिक की शक्ति से वैज्ञानिक आश्चर्यचकित हैं। यह सूक्त बताते हैं कि भारतीय योगियों की सूक्ष्म दृष्टि भी वैज्ञानिकों की तरह ही रही है और उन्होंने चेतन सत्ता के नाभिक की जानकारी कर ली है।

पदार्थ का परमाणु हमें सूक्ष्म-से-सूक्ष्म सत्ता की शक्ति की अनुभूति तो कराता है, पर वह चेतन सत्ता की जानकारी नहीं देता। भारतीय तत्ववेत्ताओं ने भी ऐसे ही चेतन परमाणु और उसके विभु नाभिक का पता लगाया है। उसे चेतन सत्ता आत्मा या ईश्वरीय प्रकाश के रूप में माना है और उसकी विस्तृत खोज की है। उपलब्धियां दोनों की एक तरह की हैं। उपनिषद् उसे—‘अणोरणीयान्महतो महीयानात्मा’ (आत्मोपनिषद् 15।1) अणु से अणु और महान् से महान् बताती है। योग-वशिष्ठ में उसे इस प्रकार व्यक्त किया है— अतीतः सर्वभावेभ्यो बालाग्रादप्यहं तनुः । इति तृतीयी मोक्षाय निश्चयो जायते सताम् ।। —4।17।15 परोऽणु सकलातीत रूपोऽहं चेत्यहं कृतिः ।

 —5।73।10 सर्वस्माद्वयतिरिक्तोऽहं बालाग्र शतकल्पितः । —4।33।51 मुक्ति दिलाने वाला यह आत्मा बाल की नोंक के सौवें भाग से भी सूक्ष्म परमाणु और दृश्य पदार्थों से विलग रहने वाला है। उसे जानने वाला सब कुछ जानता है। देवी भागवत में आत्म-सत्ता की प्रार्थना—या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण तिष्ठति। ‘हे भगवती सम्पूर्ण भूत प्राणियों में शक्ति रूप से आप ही निवास करती हैं’—की गई है। उस शक्ति और आत्म-चेतना के विज्ञान को भारतीय आचार्यों ने इतना अधिक विकसित किया कि भौतिक उपलब्धियों से जब उसकी तुलना करने लगते हैं, तो लगता है कि आज के वैज्ञानिकों ने जो कुछ पाया है, वह उस अथाह ज्ञान-सागर का जल-बिन्दु मात्र है। ----***----
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21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
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The Absolute Law of Karma
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युगगीता (भाग-४)
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अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
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गहना कर्मणोगतिः
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Articles of Books

  • नदी नद सागर तालाब सब कुछ इस शरीर में
  • प्रत्यक्ष से भी अति समर्थ अप्रत्यक्ष
  • स्वरूप जितना महान आधार उतना ही सूक्ष्म
  • अति विलक्षण चेतना अर्थात् सूक्ष्म की सत्ता
  • शक्ति अर्थात् आत्म चेतना का विज्ञान
  • असीम अतल शक्ति सागर की एक बूंद
  • शरीर संस्थान में भी सूक्ष्म ही प्रखर
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Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

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