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Books - सुनसान के सहचर

Media: TEXT
Language: HINDI
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हिमालय में प्रवेश

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मृत्यु भी भयानक सकड़ी पगडंडी—आज बहुत दूर तक विकट रास्ते से चलना पड़ा। नीचे गंगा बह रही थी ऊपर पहाड़ खड़ा था। पहाड़ के निचले भाग में होकर चलने की संकड़ी सी पगडंडी थी। उसकी चौड़ाई मुश्किल से तीन फुट कहीं होगी। उसी पर होकर चलना था एक पैर भी इधर उधर हो जाय तो नीचे गरजती हुई गंगा के गर्भ में जल समाधि लेने में कुछ भी देर न थी। जरा बच कर चलें तो दूसरी ओर सैकड़ों फुट ऊंचा पर्वत सीधा तना खड़ा था यह एक इंच भी अपनी जगह से हटने को तैयार न था। संकड़ी सी पगडंडी पर संभाल-संभाल कर एक एक कदम रखना पड़ता था। क्योंकि जीवन और मृत्यु के बीच एक डेढ़ फुट का अन्तर था।
मृत्यु का डर कैसा होता है उसका अनुभव जीवन में पहली बार हुआ। एक पौराणिक कथा सुनी थी की राजा जनक ने शुकदेवजी को अपने कर्मयोगी होने की स्थिति समझाने के लिए तेल का भरा कटोरा हाथ में देकर नगर के चारों ओर भ्रमण करते हुए वापिस आने को कहा और साथ ही कह दिया था कि यदि एक बूंद भी तेल फैला तो वहीं गरदन काट दी जायगी। शुकदेव जी मृत्यु के डर से कटोरे से तेल न फैलने की सावधानी करते हुए चले। सारा भ्रमण कर लिया पर उन्हें तेल के अतिरिक्त और कुछ न दीखा। जनक ने तब उनसे कहा कि जिस प्रकार मृत्यु के भय से तेल की बूंद भी न फैलने दी और सारा ध्यान कटोरे पर ही रखा। उसी प्रकार मैं भी मृत्यु भय को सदा ध्यान में रखता हूं जिससे किसी कर्तव्य कर्म में न तो प्रमाद होता है और न मन व्यर्थ की बातों में भटक कर चंचल होता है।
इस कथा का स्पष्ट और व्यक्तिगत अनुभव आज उस संकड़े विकट रास्ते को पार करते हुए किया। हम लोग कई पथिक साथ थे। वैसे रास्ते में खूब हंसते बोलते चलते थे पर जहां वह संकड़ी पगडंडी आई कि सभी चुप हो गये। बात-चीत के सभी विषय समाप्त थे, न किसी को घर की याद आ रही थी और न किसी अन्य विषय पर ध्यान था चित्त पूर्ण एकाग्र था और केवल यही एक प्रश्न पूरे मनोयोग के साथ चल रहा था कि अगला पैर ठीक जगह पर पड़े। एक हाथ से हम लोग पहाड़ को भी पकड़ते चलते थे। यद्यपि उसमें पकड़ने जैसी कोई चीज नहीं थी तो भी इस आशा से कि यदि शरीर की झोंक गंगा की तरह झुकी तो उस सन्तुलन को ठीक रखने में पहाड़ को पकड़-पकड़ कर चलने का उपक्रम कुछ न कुछ सहायक होगा। इस प्रकार डेढ़-दो मीन की यह यात्रा बड़ी कठिनाई
के साथ पूरी की। दिल हर घड़ी धड़कता रहा। जीवन को बचाने के लिए कितनी सावधानी की आवश्यकता है, यह पाठ क्रियात्मक रूप से आज ही पढ़ा।
यह विकट यात्रा पूरी हो गई, पर अब जी में कई विचार उसके स्मरण के साथ-साथ उठ रहे हैं। सोचता हूं यदि हम सदा मृत्यु को निकट ही देखते रहें तो व्यर्थ की बातों पर मन दौड़ाने वाली मृग तृष्णाओं से बच सकते हैं। जीवन लक्ष की यात्रा भी हमारी आज की यात्रा के समान ही है। जिसमें हर कदम साध-साध कर रखा जाना जरूरी है। यदि एक भी कदम गलत या गफलत भरा उठ जाय तो मानव जीवन के महान् लक्ष से पतित होकर हम एक अथाह गर्त में गिर सकते हैं। जीवन हमें प्यारा है तो उस प्यार को चरितार्थ करने का एक ही तरीका है कि सही तरीके से अपने को चलाते हुए इस संकड़ी पगडण्डी से पार ले चलें जहां से शान्ति पूर्ण यात्रा पर चल पड़ेगा। मनुष्य जीवन ऐसा ही उत्तरदायित्व पूर्ण है जैसा उस गंगा तट की संकड़ी पगडण्डी पर चलने वालों का। उसे ठीक तरह निवाह देने पर ही सन्तोष की सांस ले सके और यह आशा कर सके कि उस अभीष्ट तीर्थ के दर्शन कर सकेंगे। कर्तव्य पालन की पगडण्डी ऐसी ही संकड़ी है। उसमें लापरवाही बरतने पर जीवन लक्ष के प्राप्त होने की आशा कौन कर सकता है। धर्म को पहाड़ की दीवार की तरह पकड़ कर चलने पर हम अपना वह सन्तुलन बनाये रह सकते जिससे खतरे की ओर झुक पड़ने का भय कम हो जाय। आदि वक्त में इस दीवार का सहारा ही हमारे लिये बहुत कुछ है। धर्म की आस्था भी जीवन लक्ष की मंजिल को ठीक तरह पार कराने में बहुत कुछ मानी जायगी।
चांदी के पहाड़
आज सुक्की चट्टी पर धर्मशाला के ऊपर मंजिल की कोठरी में ठहरे थे, सामने ही बर्फ से ढकी पर्वत की चोटी दिखाई पर रही थी। बर्फ से पिघल कर धीरे-धीरे पानी का रूप धारण कर रही थी। वह एक झरने के रूप में नीचे की तरफ बह रहा था। कुछ बर्फ पूरी तरह गलने से पहले ही पानी के साथ मिलकर बहने लगती थी इसलिए दूर से झरना ऐसा लगता था मानो फेनदार दूध ही ऊपर बहता चला आ रहा हो। दृश्य बहुत ही शोभायमान था, उसे देख-देखकर आंखें ठण्डी हो रही थी।
जिस कोठरी में अपना ठहरना था उससे तीसरी कोठरी में अन्य यात्री ठहरे हुए थे। उनमें दो बच्चे भी थे एक लड़की दूसरा लड़का। दोनों की उम्र 11-12 वर्ष के लगभग रही होगी, उनके माता—पिता यात्रा पर थे। इन बच्चों को कुलियों के पीठ पर इस प्रान्त में चलने वाली ‘कण्डी’ सवारी में बिठाकर लाये थे। बच्चे बहुत हंसमुख और बातून थे।
दोनों में बहस हो रही थी कि यह सफेद चमकता हुआ पहाड़ किस चीज का है। उनने कहीं सुन रखा था कि धातुओं की खानें पहाड़ों में होती हैं। बच्चे ने संगति मिलाई कि पहाड़ चांदी का है। लड़की को इसमें सन्देह हुआ, वह यह तो नहीं सोच सकी कि चांदी का न होगा तो और किस चीज का होगा। पर यह जरूर सोचा कि इतनी चांदी इस प्रकार खुली पड़ी होती तो कोई न कोई उसे उठा ले जाने की कोशिश जरूर करता। वह लड़के की बात से सहमत नहीं हुई। बहस और जिद्दा जिद्दी चल पड़ी।
मुझे विवाद मनोरंजन लगा, बच्चे भी प्यारे लगे। दोनों को बुलाया और समझाया कि यह पहाड़ तो पत्थर का है पर ऊंचा होने के कारण बर्फ जम गई है। गर्मी पड़ने पर यह बर्फ पिघल जाती है और सर्दी पड़ने पर जमने लगती हैं। वह बर्फ ही चमकने पर चांदी जैसी लगती है। बच्चों का एक समाधान तो हो गया पर वे उसी सिलसिले में और ढेरों प्रश्न पूछते गये मैं भी उनके ज्ञान-वृद्धि की दृष्टि से पर्वतीय जानकारी से सम्बन्धित बहुत सी बातें उन्हें बताता रहा।
सोचता हूं बचपन में मनुष्य की बुद्धि कितनी अविकसित होती है कि वह बर्फ जैसी मामूली चीज को चांदी जैसी मूल्यवान समझता है। बड़े आदमी की सूझ-बूझ ऐसी नहीं होती वह वस्तु स्थिति को गहराई से सोच और समझ सकता है। यदि छोटेपन में ही इतनी समझ आ जाय तो बच्चों की भी यथार्थता के पहचानने में कितनी सुविधा हो।
पर मेरा यह सोचना भी गलत ही है। क्योंकि बड़े होने पर भी मनुष्य समझदार कहां हो पाता है। जैसे ही दोनों बच्चे बर्फ को चांदी समझ रहे थे उसी प्रकार चांदी-तांबे के टुकड़ों को, इन्द्रिय छेदों पर मचने वाली खुजली को, नगण्य अहंकार को, तुच्छ शरीर को बड़ी आयु का मनुष्य भी न जाने कितना अधिक महत्व दें डालता है और उनकी ओर इतना आकर्षित होता है कि जीवन लक्ष को भुलाकर भविष्य को अन्धकारमय बना लेने की परवा नहीं करता।
सांसारिक क्षणिक और सारहीन आकर्षणों में हमारा मन उनसे भी अधिक तल्लीन हो जाता है जितना कि छोटे बच्चों का मिट्टी के खिलौने के साथ खेलने में, कागज की नाव बहाने में लगता है। पढ़ना-लिखना, खाना-पीना छोड़कर पतंग उड़ाने में निमग्न बालक को अभिभावक उसकी अदूरदर्शिता पर धमकाते पर हम बड़ी आयु वालों को कौन धमकाये? जो आत्म स्वार्थ को भुलाकर विषय विकारों के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली बने हुए हैं। बर्फ चांदी नहीं है यह बात मानने में इन बच्चों का समाधान हो गया था पर तृष्णा और वासना जीवन लक्ष नहीं है इस हमारी भ्रान्ति का कौन समाधान करे?

पीली मक्खियां
आज हम लोग सघन वन में होकर चुपचाप चले आ रहे थे तो सेवार के पेड़ों पर भिन-भिनाती फिरने वाली पीली मक्खियां हम लोगों पर टूट पड़ीं। बुरी तरह चिपट गई, छुड़ाये से भी न छूटतीं थीं। हाथों से कपड़ों से उन्हें हटाया भी, भागे भी, पर उन्होंने बहुत देर तक पीछा किया। किसी प्रकार गिरते पड़ते लगभग आधा मील आगे निकल गये तब उनसे पीछा छूटा। उनके जहरीले डंक जहां लगे थे वहां सूजन आ गई। दर्द भी होता रहा।
सोचता हूं इन मक्खियों को इस प्रकार आक्रमण करने की क्यों सूझी? क्या इनको इसमें कुछ मिल गया है, हमें सताकर इनने क्या पाया? लगता है यह मक्खियां सोचती होंगी कि यह वन प्रदेश हमारा है, हमें यहां रहना चाहिये, हमारे लिए ही यह सुरक्षित प्रदेश रहे, कोई दूसरा इधर पदार्पण न करे। उनकी अपनी भावना के विपरीत हमें उधर से गुजरते देखा तो समझा होगा कि यह हमारे प्रदेश से हस्तक्षेप करते हैं, हमारे अधिकार क्षेत्र में अपना अधिकार चलाते हैं। हमारे उधर से गुजरने को सम्भव है उनने ढीठता समझा हो और अपने बल एवं दर्प का प्रदर्शन करने एवं हस्तक्षेप का मजा चखाने के लिए आक्रमण किया होगा।
यदि ऐसी ही बात है तो इन मक्खियों की मूर्खता थी । वह वन तो ईश्वर का बनाया हुआ था, कुछ उनने स्वयं थोड़े ही बनाया था। उन्हें तो पेड़ों पर रहकर अपनी गुजर बसर करनी चाहिए थी। सारे प्रदेश पर कब्जा करने की उनकी लालसा व्यर्थ थी। क्योंकि वे इतने बड़े प्रदेश का आखिर करती क्या? फिर उन्हें सोचना चाहिए था कि यह साझे की दुनिया है, सभी लोग इसका मिल-जुलकर उपयोग करें तो ही ठीक है। यदि हम लोग उधर से निकल रहे थे, उस वन श्री की छाया, शोभा और सुगन्ध का लाभ उठा रहे थे तो थोड़ा हमें भी उठा लेने देने की सहिष्णुता रखती। उनने अनुदारता करके हमें काटा, सताया, अपने डंक खोये कोई-कोई तो इस झंझट में कुचल भी गईं, घायल हुईं और मर भी गईं। वे क्रोध और गर्व न दिखाती तो क्यों उन्हें व्यर्थ यह हानि उठानी पड़ती और क्यों हम सब की दृष्टि में मूर्ख और स्वार्थी सिद्ध होतीं। हर दृष्टि से इस आक्रमण और अधिकार लिप्त ये मुझे कोई बुद्धिमानी दिखाई न दी। यह पीली मक्खियां सचमुच ही ठीक शब्द था।
पर उस बेचारी मक्खियों को ही क्यों कोसा जाय? उन्हीं को मूर्ख क्यों कहा जाय? जबकि आज हम मनुष्य भी इसी रास्ते पर चल रहे हैं। इस सृष्टि में जो विपुल उपभोग सामग्री परमात्मा ने पैदा की है वह उसके सभी पुत्रों के लिए, मिल बांटकर खाने और लाभ उठाने के लिये है। पर हममें से कोई जितना हड़प सके उतने पर कब्जा जमाने के लिए उतावला हो रहा है। यह भी नहीं सोचा जाता कि शरीर की कुटुम्ब की आवश्यकता थोड़े ही है उतने तक ही सीमित रहें, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं पर कब्जा जमा कर दूसरों को क्यों कठिनाई में डालें और क्यों मालिकी का व्यर्थ बोझ सिर पर लादें। जबकि उस मालिकी को देर तक अपने कब्जे में रख भी नहीं सकते।
पीली मक्खियों की तरह ही मनुष्य भी अधिकार लिप्सा में, स्वार्थ और संग्रह में अंधा हो रहा है। मिल बांटकर खाने की नीति उसकी समझ में ही नहीं आती। जो कोई उसे अपने स्वार्थ में बाधक होते दीखता है उसी पर आंखों दिखाता है अपनी शक्ति प्रदर्शन करता है और पीली मक्खियों की तरह टूट पड़ता है। इससे उनके इस व्यवहार से कितना कष्ट होता है इसकी चिन्ता किसे है।
पीली मक्खियां नन्हे-नन्हे डंक मारकर, आधा मील पीछा करके वापिस लौट गईं। पर मनुष्य की अधिकार लिप्सा, स्वार्थपरता और अहंकार से उद्धत होकर किये जाने वाले आक्रमणों की भयंकरता को जब सोचता हूं तो बेचारी पीली मक्खियों को ही बुरा-भला कहने में जीभ सकुचाने लगती हैं।
ठण्डे पहाड़ के गरम सोते
कई दिन में शरीर को सुन्न कर देने वाले बर्फीले ठंडे पानी से स्नान करते आ रहे थे। किसी प्रकार हिम्मत बांधकर एक-दो डुबकी तो लगा लेते थे पर जाड़े के मारे शरीर को ठीक तरह रगड़ना और उस तरह स्नान करना नहीं बन पड़ रहा था जैसा देह की सफाई की दृष्टि से आवश्यक है। आज जगनानी चट्टी पर पहुंचे तो पहाड़ के ऊपर वाले तीन तप्त कुण्डों का पता चला जहां से गरम पानी निकलता है। ऐसा सुयोग पाकर मल-मलकर स्नान करने की इच्छा प्रबल हो गई। गंगा का पुल पार कर ऊंची चढ़ाई की टेकरी को कई जगह बैठ-बैठ कर हांफते-हांफते पार किया और तप्त कुण्डों पर जा पहुंचे बराबर-बराबर तीन कुण्ड थे। एक का पानी इतना गरम था कि उससे नहाना तो दूर हाथ दें सकना भी कठिन था। बताया गया कि यदि चावल दाल की पोटली बांधकर इस कुण्ड में डाल दी जाय तो वह खिचड़ी कुछ देर में पक जाती है। यह प्रयोग तो हम न कर सके पर पास वाले दूसरे कुण्ड में जिसका पानी सादा गरम था। खूब मल-मलकर स्नान किया और हफ्तों की अधूरी आकांक्षा पूरी की। कपड़े भी गरम पानी से खूब धुले, अच्छे साफ हुए।
सोचता हूं कि जिन पहाड़ों पर बर्फ गिरती रहती है और छाती में से झरने वाले झरने सदा बर्फ से ठंडा जल प्रवाहित ही करते रहते हैं उनमें कहीं ऐसे उष्ण सोते क्यों फूट पड़ते हैं? मालूम होता है कि पर्वत के भीतर कोई गन्धक की पर्त है वही अपने समीप से गुजरने वाली जल-धारा को असह्य को उष्णता दें देती है। इसी तरह किसी सज्जन में अनेक शीतल दायक गुण होने से उसके व्यवहार ठण्डे सोतों की तरह शीतल हो सकते हैं पर यदि दुर्बुद्धि की एक भी परत छिपी हो तो उसकी गर्मी गरम सोतों की तरह बाहर फूट पड़ती है और वह छिपती नहीं।
जो पर्वत अपने शीतलता को अक्षुण्ण बनाये रहना चाहते हैं उन्हें इस प्रकार की गन्धक जैसी विषैली पर्तों को बाहर निकाल फेंकना चाहिए। यह एक दूसरा कारण इन तप्त कुण्डों का और भी हो सकता है कि शीतल पर्वत अपनी भीतर के इस विकार को निकाल-निकाल कर बाहर फेंक रहा हो और अपनी दुर्बलता को छिपाने की अपेक्षा सबके सामने प्रकट कर रहा हो जिससे उसे कपटी और ढोंगी न कहा जा सके। दुर्गुणों का होना बुरी बात है पर उन्हें छिपाना उससे भी बुरा है। इस तथ्य को यह पर्वत जानते हैं यदि मनुष्य भी इसे जान लेता तो कितना अच्छा होता।
यह भी समझ में आता है कि हमारे जैसे ठंडे स्नान से खिन्न व्यक्तियों को गरम जल से स्नान कराने की सुविधा और आवश्यकता को ध्यान रखते हुए पर्वत ने अपने बहुत भीतर बची थोड़ी सी गर्मी को बाहर निकला कर रख दिया हो। बाहर से तो वह भी ठंडा हो चला है फिर भी भीतर कुछ गर्मी बच गई होगी। पर्वत सोचता होगा जब सारा ही ठंडा हो चला तो इस थोड़ी सी गर्मी को बचाकर ही क्या करूंगा इसे भी क्यों न जरूरत मदों को दें डालूं। उस आत्मदानी पर्वत की तरह कोई व्यक्ति भी ऐसे हो सकते हैं जो स्वयं अभाव ग्रस्त कष्ट साध्य जीवन व्यतीत करते हों और इतने पर भी जो शक्ति बनी हो उसे भी जनहित में लगाकर इस तप्त कुण्डों का आदर्श उपस्थित करें। इस शीत प्रदेश का वह तृप्त कुण्ड भुलाये नहीं भूलेगा। मेरे जैसे हजारों यात्री उसका गुण गान करते रहेंगे क्योंकि उसमें त्याग भी तो असाधारण है। स्वयं ठंडा रह कर दूसरों के लिए गर्मी प्रदान करना, भूखे रहकर दूसरों को रोटी जुटाने के समान है। सोचता हूं बुद्धि हीन जड़ पर्वत जब इतना कर सकता है तो क्या बुद्धिमान बनने वाले मनुष्य को केवल स्वार्थी ही रहना चाहिए?
आलू का भालू
आज गंगोत्री यात्रियों को एक दल का और भी साथ मिल गया। उस दल में सात आदमी थे। पांच पुरुष दो स्त्रियां। हमारा बोझा तो हमारे कंधे पर था पर उन सातों का बिस्तर एक पहाड़ी कुली लिये चल रहा था कुली देहाती था, उसकी भाषा भी ठीक तरह समझ में नहीं आती थी, स्वभाव का भी अक्खड़ और झगड़ालू जैसा था। झाला-चट्टी की ओर ऊपरी पठार पर जब हम लोग चल रहे थे तो उंगली का इशारा करके उसने कुछ विचित्र डरावनी सी मुद्रा के साथ कोई चीज दिखाई और अपनी भाषा में कुछ कहा। सब बात तो समझ में न आई पर दल के एक आदमी ने इतना ही समझा भालू-भालू। वह गौर से उस ओर देखने लगा। घना कुहरा उस समय पड़ रहा था कोई चीज ठीक दिखाई नहीं पड़ती थी पर जिधर कुली ने इशारा किया था उधर काले-काले जानवर उसे घूमते नजर आये।
जिस साथी ने कुली के मुंह से भालू-भालू सुना था और उसके इशारे की दिशा में काले-काले जानवर घूमते दीखे थे, वह बहुत डर गया। उसने पूरे विश्वास के साथ यह समझ लिया कि नीचे भालू रीछ घूम रहे हैं। वह पीछे था, पैर दाव कर जल्दी-जल्दी आगे लपका कि वह भी हम सबके साथ मिल जाय। कुछ ही देर में वह हमारे साथ आ गया। होंठ सूख रहे थे और भय से कांप रहा था। उसने हम सबको रोका और नीचे काले जानकर दिखाते हुए बताया कि भालू घूम रहे हैं। अब यहां जान का खतरा है।
डर तो हम सभी गये पर यह न सूझ पड़ रहा था कि किया क्या जाय? जंगल काफी घना था, डरावना भी। उसमें रीछ के होने की बात असम्भव भी नहीं थी। फिर हमने पहाड़ी रीछों की भयंकरता के बारे में भी कुछ बढ़ी-चढ़ी बातें परसों ही साथी यात्रियों से सुनी थी जो दो वर्ष पूर्व मानसरोवर गये थे। डर बढ़ रहा था, काले जानवर हमारी ओर आ रहे थे। घने कुहरे के कारण शक्ल तो साफ नहीं दीख रही थी पर रंग के काले और कद में बिलकुल रीछ जैसे थे, फिर कुली ने इशारे से भालू होने की बात बता ही दी है अब सन्देह की कोई बात नहीं थी। सोचा, कुली से ही पूछें कि अब क्या करना चाहिये। पीछे मुड़कर देखा तो कुली ही गायब था। कल्पना की दौड़ने एक ही अनुमान लगाया कि वह जान का खतरा देख कर कहीं छिप गया है या किसी पेड़ पर चढ़ गया है। हम लोगों ने अपने भाग्य के साथ अपने को बिलकुल अकेला असहाय पाया।
हम सब एक जगह बिलकुल नजदीक इकट्ठे हो गये। दो-दो ने चारों ओर दिशाओं की ओर मुंह कर लिये। लोहे की कील गढ़ी हुई लाठियां जिन्हें लेकर चल रहे थे, बन्दूकों की भांति सामने तान लीं और तय कर लिया कि जिस पर रीछ हमला करे वह उसके मुंह में कील गढ़ी लाठी ठूंस दें और साथ ही सब लोग उस पर हमला करदें कोई भागे नहीं। अन्त तक सब साथ रहें चाहे जियें चाहे मरें। योजना के साथ सब लोग धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे। रीछ जो पहले हमारी ओर आते दिखाई दें रहे थे, नीचे की ओर उतरने लगे। हम लोगों ने चलने की रफ्तार काफी तेज कर दी, दूनी से भी अधिक। जितनी जल्दी हो सके खतरे को पार कर लेने की ही सब की इच्छा थी। ईश्वर का नाम सब की जीभ पर था। मन में भय बुरी तरह समा रहा था। इस प्रकार एक डेढ़ मील का रास्ता पार किया।
कुहरा कुछ कम हुआ, आठ बज रहे थे। सूर्य का प्रकाश भी दीखने लगा। घनी वृक्षावली भी पीछे रह गई, भेड़-बकरी चराने वाले भी सामने दिखाई दिये। हम लोगों ने सन्तोष की सांस ली, अपने को खतरे से बाहर अनुभव किया और सुस्ताने के लिए बैठ गये। इतने में कुली भी पीछे से आ पहुंचा। हम लोगों को वह घबराया हुआ देख कर भी कारण पूछने लगा। साथियों ने कहा—‘तुम्हारे बताये हुए भालुओं से भगवान ने जान बचा दी। पर तुमने अच्छा धोखा दिया, बजाय उपाय बताने के तुम खुद छिप रहे।’
कुली सकपकाया, उसने समझा उन्हें कुछ भ्रम हो गया। हम लोगों ने उसके इशारे से भालू बताने की बात दुहराई तो वह सब बात समझ गया कि हम लोगों को क्या गलत फहमी हुई है। उसने कहा—‘झाला गांव का आलू मशहूर। बहुत बड़ा-बड़ा पैदा होता है, ऐसी फसल इधर किसी गांव में नहीं होती वही बात मैंने उंगली के इशारे से बताई थी। ‘झाला का आलू कहा था आपने उसे भालू समझा। वह काले जानवर तो यहां की काली गायें हैं जो दिन भर इसी तरह चरती फिरती हैं। कुहरे के कारण ही वे रीछ जैसी आपको दीखीं। यहां भालू कहां होते हैं, वे तो और ऊपर पाये जाते हैं आप व्यर्थ ही डरे। मैं तो टट्टी करने के लिए छोटे झरने के पास बैठ गया था। साथ होता तो आपका भ्रम उसी समय दूर कर देता।
हम लोग अपनी मूर्खता पर हंसे भी और शर्मिन्दा भी हुए। विशेषतया उस साथी को जिसने कुली की बात को गलत तरह समझा खूब लताड़ा गया। भय मजाक में बदल गया। दिन भर उस बात की चर्चा रही, उस डर के समय में जिस-जिस ने जो-जो कहा था और किया था, उसे चर्चा का विषय बना कर सारे दिन आपस की छींटाकशी चुहल बाजी होती रही, सब एक दूसरे को अधिक डरा हुआ परेशान सिद्ध करने में रस लेते रहे। मंजिल आसानी से कट गई, मनोरंजन का अच्छा विषय रहा।
भालू की बात जो घंटे भर बिलकुल सत्य और जीवन-मरण की समस्या मालूम पड़ती रही, अन्त में एक भ्रान्ति मात्र सिद्ध हुई। सोचता हूं कि हमारे जीवन में ऐसी अनेकों भ्रान्तियां घर किये हुए हैं और उनके कारण हम निरन्तर डरते रहते हैं पर अन्ततः वे मानसिक दुर्बलता मात्र साबित होती हैं। हमारे ठाट बाट, फैशन और लावाज में कमी आ गई तो लोग हमें गरीब और मामूली समझेंगे, इस अपडर से अनेकों लोग अपने इतने खर्चे बढ़ाये रहते हैं जिनको पूरा करने के लिए कठिन पड़ता है। ‘लोग क्या कहेंगे’ यह बात चरित्र पतन के समय याद आवे तो ठीक भी है पर यदि वह दिखावे में कमी के समय मन में आवे तो यही मानना पड़ेगा कि वह अपडर मात्र है। खर्चीला भी और व्यर्थ भी। सादगी से रहेंगे तो गरीब समझे जायेंगे, कोई हमारी इज्जत न करेगा यह भ्रम दुर्बल मस्तिष्कों में ही उत्पन्न होता है जैसा कि हम लोगों को एक छोटी सी न समझी के कारण भालू का हुआ था।
अनेकों चिन्ताएं परेशानियां, दुविधाएं, उत्तेजनाएं, वासनाएं तथा दुर्भावनाएं आये दिन सामने खड़ी रहती हैं, लगता है यह संसार बड़ा दुष्ट और डरावना है, यहां की हर वस्तु भालू की तरह डरावनी है। पर जब आत्म-ज्ञान का प्रकाश होता है, अज्ञान का कुहरा फटता है, मानसिक दौर्बल्य घटता है तो प्रतीत होता है कि जिसे हम भालू समझते थे वह तो पहाड़ी गाय थी। जिन्हें हम शत्रु मानते हैं वे तो हमारे अपने ही स्वरूप हैं, ईश्वर के अंश मात्र हैं। ईश्वर हमारा प्रिय पात्र है तो उसकी रचना भी मंगल-मय ही होनी चाहिये। उसे जितने विकृत रूप में हम चित्रित करते उतना ही उससे डर लगता है। यह अशुद्ध चित्रण हमारी मानसिक भ्रान्ति है वैसी ही जैसी कि कुली के शब्द आलू को भालू समझकर उत्पन्न करली गई थी।
रोते पहाड़
आज रास्ते में ‘रोते पहाड़’ मिले। उनके पत्थर नरम थे। ऊपर किसी सोते का पानी रुका पड़ा था। पानी को निकलने के लिए जगह न मिली। नरम पत्थर उसे चूसने लगे। वह चूसा हुआ पानी जाता कहां? नीचे की ओर वह पहाड़ को गीला किए हुए था, जहां जगह थी वहां वह गीलापन धीरे-धीरे इकट्ठा होकर बूंदों के रूप में टपक रहा था। इस टपकती बूंदों का लोग अपनी भावना के अनुसार ‘आंसू की बूंदें’ कहते हैं। जहां तहां से मिट्टी उड़कर इस गीलेपन से चिपक जाती है उसमें हरियाली के जीवाणु भी आ जाते हैं। इस चिपकी हुई मिट्टी पर एक हरी मुलायम काई जैसी उग आती है। इस काई को पहाड़ में ‘कीचड़’ कहते हैं। जब वह रोता ही है तो आंखें दुखती ही होंगी और कीचड़ निकलती होगी। यह कल्पना कर लेना कौन कठिन बात है। रोते हुए पहाड़ आज हम लोगों ने देखे। उनके आंसू भी कहीं से पोंछे। कीचड़ों को टटोल कर देखा। बस इतना ही कर सकते थे। पहाड़ तू क्यों रोता है? इसे कौन पूछता? और क्यों वह इसका उत्तर देता?
पर कल्पना तो अपनी जिद की पक्की है, मन ही मन पर्वत से बातें करने लगी। पर्वत राज! तुम इतनी बन श्री से लदे हो, भागदौड़ की कोई चिन्ता भी तुम्हें नहीं है, बैठे-बैठे आनन्द के दिन गुजारते हो, तुम्हें किस बात की चिन्ता? तुम्हें रुलाई क्यों आती है?
पत्थर का पहाड़ चुप खड़ा था पर कल्पना पर्वत अपनी मनोव्यथा कहने ही लगा। बोला—मेरे दिल का दर्द तुम्हें क्या मालूम। मैं बड़ा हूं, ऊंचा हूं, वन श्री से लदा हूं, निश्चिन्त बैठा रहता हूं, देखने को मेरे पास सब कुछ है, पर निष्क्रिय, निःचेष्ट जीवन भी क्या कोई जीवन है। जिसमें गति नहीं संघर्ष नहीं, आशा नहीं, स्फूर्ति नहीं, प्रयत्न नहीं, पुरुषार्थ नहीं, वह जीवित होते हुए भी मृतक समान है। सक्रियता में ही आनन्द है। मौज की छानने और आराम करने में तो केवल काहिली की मुर्दनी की नीरवता मात्र है, इसे अनजान ही आराम और आनन्द कह सकते हैं। इस सृष्टि के क्रीड़ांगन में जो जितना खेल लेता है वह अपने को उतना ही तरोताजा और प्रफुल्लित अनुभव करता है। सृष्टि के सभी पुत्र प्रगति के पथ पर उल्लास भरे सैनिकों की तरह कदम पर कदम बढ़ाते, मोर्चे पर मोर्चा पार करते चले जाते हैं, दूसरी ओर मैं हूं जो संपदाएं अपने पेट में छिपाये मौज की छान रहा हूं। कल्पना बेटी, तुम मुझे सेठ कह सकती हो, अमीर कह सकती हो, भाग्यवान कह सकती हो, पर हूं तो मैं निष्क्रिय ही। संसार की सेवा में अपने पुरुषार्थ का परिचय देकर लोग अपना नाम इतिहास में अमर कर रहे हैं, कीर्तिवान बन रहे हैं, अपने प्रयत्न कर फल दूसरों को उठाते देखकर गर्व अनुभव कर रहे हैं। पर एक मैं हूं जो अपना वैभव अपने तक ही समेटे बैठा हूं। इस आत्मग्लानि से यदि मुझे रुलाई आती है, आंखों में आंसू बरसते हैं और कीचड़ निकलते हैं तो उसमें अनुचित ही क्या है?
मेरी नन्हीं सी कल्पना ने, पर्वत राज से बातें करलीं, समाधान भी पा लिया, पर वह भी खिन्न ही थी। बहुत देर तक यही सोचती रही, कैसा अच्छा होता यदि इतना बड़ा पर्वत अपने टुकड़े-टुकड़े करके अनेकों भवनों, सड़कों, पुलों के बनाने में खप सका होता। तब भले ही वह इतना बड़ा न रहता, संभव है इस प्रयत्न से उसका अस्तित्व भी समाप्त हो जाता लेकिन तब वह वस्तुतः धन्य हुआ होता वस्तुतः उसका बड़प्पन सार्थक हुआ होता। इन परिस्थितियों से वंचित रहने पर यदि पर्वतराज अपने को अभागा मानता है और अपने दुर्भाग्य को धिक्कारता हुआ सिर धुनकर रोता है तो उसका यह रोना सकारण ही है।
लदी हुई बकरियां
छोटा सा जानवर ‘बकरी’ इस पर्वतीय प्रदेश की तरण-तारिणी कामधेनु कही जा सकती हैं। वह दूध देती है, ऊन देती है, बच्चे देती है, साथ ही वजन भी ढोती है। आज बड़े-बड़े बालों वाली बकरियों का एक झुण्ड रास्ते में मिला, लगभग सौ सवा सौ होंगी। सभी लदी हुई थीं। गुड़, चावल, आटा लादकर वे गंगोत्री की ओर ले जा रही थीं, हर एक पर उसके कद और बल के अनुसार दस पन्द्रह सेर वजन लदा हुआ था। माल असवाव की ढुलाई के लिए खच्चरों के अतिरिक्त इधर बकरियां ही साधन हैं। पहाड़ों की छोटी छोटी पगडंडियों पर दूसरे जानवर या वाहन काम तो नहीं कर सकते।
सोचता हूं कि जीवन की समस्याएं हल करने के लिए बड़े-बड़े विशाल साधनों पर जोर देने की कोई इतनी बड़ी आवश्यकता नहीं है जितनी कि समझी जाती है। जबकि व्यक्ति साधारण उपकरणों से अपने निर्वाह के साधन जुटाकर शान्ति पूर्वक रह सकता है। सीमित उद्योगीकरण की बात दूसरी है पर यदि वे बढ़ते ही रहे तो इन बकरियों तथा उनके पालने वाले जैसे लाखों की रोजी रोटी छीनकर चंद उद्योग-पतियों की कोठियों में जमा हो सकती है। संसार में युद्ध की जो घटाएं आज उमड़ रही हैं उसके मूल में भी इस उद्योग व्यवस्था के लिये मारकेट जुटाने, उपनिवेश बनाने की लालसा ही काम कर रही है।
बकरियों की पंक्ति देखकर मेरे मन में यह भाव उत्पन्न हो रहा है कि व्यक्ति यदि छोटी सीमा में रहकर जीवन विकास की व्यवस्था जुटावें तो इसी प्रकार शान्ति पूर्वक रह सकता है जिस प्रकार यह बकरियों वाले भले और भोले पहाड़ी रहते हैं। प्राचीनकाल में धन और सत्ता का विकेन्द्रीकरण करना ही भारतीय समाज का आदर्श था। ऋषि-मुनि एक बहुत छोटी इकाई के रूप में आश्रमों और कुटियों में जीवन यापन करते थे। ग्राम उससे कुछ बड़ी इकाई थे। सभी अपनी आवश्यकताएं अपने क्षेत्र में अपने समाज से पूरा करते थे और हिल-मिलकर सुखी जीवन बिताते थे, न उसमें भ्रष्टाचार की गुंजाइश थी न बदमाशी की। आज उद्योगीकरण की घुड़दौड़ में छोटे गांव उजड़ रहे हैं बड़े शहर बस रहे हैं, गरीब पिस रहे हैं, अमीर पनप रहे हैं। विकराल राक्षस की तरह धड़धड़ाती हुई मशीनें मनुष्य के स्वास्थ्य को, स्नेह सम्बन्धों को सदाचार को भी पीसे डाल रही हैं। इस यंत्रवाद, उद्योगवाद, पूंजीवाद की नींव पर जो कुछ खड़ा किया जा रहा है उसका नाम विकास रखा गया है पर यह अन्ततः विनाश ही सिद्ध होगा।
विचार असम्बद्ध होते जा रहे हैं। छोटी बात मस्तिष्क में बड़ा रूप धारण कर रही है, इसलिए इन पंक्तियों को यहीं समाप्त करना उचित है। फिर भी बकरियां भुलाये नहीं भूलतीं। वे हमारे प्राचीन भारतीय समाज रचना की एक स्मृति को ताजा करती हैं, इस सभ्यतावाद के युग में उन बेचारियों की उपयोगिता कौन मानेगा, पिछड़े युग की निशानी कह कर उनका उपहास ही होगा। पर सत्य सत्य ही रहेगा मानव जाति जब कभी शान्ति और सन्तोष के लक्ष पर पहुंचेगी तब धन और सत्ता का विकेन्द्रीकरण अवश्य हो रहा होगा और लोग इसी तरह श्रम और सन्तोष से परिपूर्ण जीवन बिता रहे होंगे जैसे बकरी वाले अपनी मैं-मैं करती हुई बकरियों के साथ बिताते हैं।

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