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Books - दिव्य शक्तियों का उद्भव प्राणशक्ति से

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


गायत्री उपासना से प्राण शक्ति का अभिवर्धन

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‘‘गाय’’ का अर्थ संस्कृत में प्राण और ‘‘त्री’’ का अर्थ त्राण। ‘‘गायते प्राणः इति गायत्री’’ अर्थात् जो प्राणों का त्राण करती है उसे गायत्री कहते हैं। त्राण का अर्थ छुटकारा दिलाना मुक्त करना होता है। प्राण हमारे शरीर इन्द्रियों और उनकी विषय वासनाओं में पाशबद्ध ‘‘ब्राह्मी’’ अथवा चेतन तत्व है उसे उस बन्धन से मुक्ति दिलाकर चेतन सत्ता का बोध करना यही प्राणों का परिमाण हुआ। इस अर्थ में प्राणों का सारा विज्ञान गायत्री में आता है। पिछले अध्यायों में जिन अतीन्द्रिय क्षमताओं की चर्चा हुई है वह इस तरह गायत्री उपासना से ही प्राप्त किये जा सकते हैं।

प्राण शब्द की व्युत्पत्ति ‘‘प्र’’ उपसर्ग पूर्वक ‘‘अन्’’ धातु से है। ‘‘अन्’’ धातु जीवन शक्ति एवं चेतना वाचक है इसलिये प्राण शब्द का अर्थ चेतन शक्ति से किया जाता है। ‘‘लेटैन्ट हीट’’ या ‘‘साहकिक-फोर्स’’ इसे ही कहते हैं। ताण्ड्य जैमिनी तथा शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थों ने प्राण को गायत्रीप्रणौ वै गायत्री कहा है। ताण्ड्य 12।1।2 में उसे ही ‘‘दवियनुतती गायत्री’’ अर्थात् वह विद्युत ही गायत्री है। इस प्रकार हम देखते हैं गायत्री प्राण विद्युत सब एक ही तत्व हैं उसी से जीवन के समस्त व्यापार चलते हैं। वशिष्ठ ने वायु में हुई प्राण-विद्युत की गहन शोध करके ही प्राणायाम के उन विधानों को खोजा था जो न केवल मानवीय क्षमताएं बढ़ाते हैं वरन् मनुष्य का सम्बन्ध अन्य लोकों की सूक्ष्म शक्तियों से भी जोड़ते हैं। प्राणि विद्या प्रकरण 6 वें अध्याय में 24 वें सूक्त के 20 से 31 तक के मन्त्रों में उसकी विशद् विवेचना हुई है और यह बताया है कि जिस प्रकार कोई यान्त्रिक (इंजीनियर) यन्त्र चलाता है उसी प्रकार जीवन की समस्त गतिविधियों का व्यापार इस शक्ति से ही होता है।

गायत्री उपासना के समय सूर्य से किस तरह विशाल परिमाण में प्राण ऊर्जा आकर्षित, धारण और विकसित की जा कसती है इस पर भारतीय मनीषियों ने व्यापक खोज की थी। प्राण को तत्वदर्शियों ने दो भागों में विभक्त किया है—(1) अणु (2) विभु। अणु वह जो पदार्थ जगत में सक्रियता बनकर परिलक्षित होता है। विभु वह जो चेतन जगत में जीवन बनकर लहलहा रहा है। इन दो विभागों को अधिदैविक, कॉस्मिक और आध्यात्मिक, मैक्रोकॉस्मिक अथवा हिरण्य गर्भ कहा जाता है।

आधि दैविकेन समष्टि व्यष्टि रूपेण हैरण्य गर्भेण प्राणात्मनैवैतद् विभुत्व माम्नायते नाध्यात्मिकेन ।

—ब्रह्मसूत्र शंकर भाष्य

समष्टि रूप हिरण्य गर्भ विभु है। व्यष्टि रूप आधिदैविक अणु। इस अणु शक्ति को लेकर ही पदार्थ विज्ञान का सारा ढांचा खड़ा किया गया है। विद्युत, ताप, प्रकाश, विकरण आदि की अनेकानेक शक्तियां उसी स्रोत में गतिशील रहती हैं। अणु के भीतर जो सक्रियता है वह सूर्य की है। यदि सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक न पहुंचे तो यह सर्वथा नीरव स्तब्धता परिलक्षित होगी। कहीं कुछ भी हलचल दिखाई न पड़ेगी। अणुओं की जो सक्रियता पदार्थों का आविर्भाव, अभिवर्धन एवं परिवर्तन करती है, उसका कोई अस्तित्व दिखाई न पड़ेगा, भौतिक विज्ञान से इस सूर्य द्वारा पृथ्वी को प्रदत्त अणु शक्ति के रूप में पहचाना है और उसे विभिन्न प्रकार के आविष्कार करके सुख साधनों का आविर्भाव किया है। शक्ति के कितने ही प्रचण्ड स्रोत करतलगत किये हैं। पर यह न ही मान बैठना चाहिए। विश्व-व्यापी शक्ति भण्डार मात्र अणु शक्ति की भौतिक सामर्थ्य तक ही सीमाबद्ध है।

जड़ जगत में शक्ति तरंगों के रूप में संव्याप्त सक्रियता के रूप में प्राण का परिचय दिया जा सकता है और चेतन जगत में सम्वेदना उसे कहा जा सकता है। इच्छा, ज्ञान और क्रिया इसी सम्वेदना के तीन रूप हैं। जीवन्त प्राणी इसी के आधार पर जीवित रहते हैं। उसी के सहारे चाहते, सोचते और प्रयत्नशील होते हैं। इस जीवनी शक्ति की जितनी मात्रा जिसे मिल जाती है वह उतना ही अधिक प्राणवान कहा जाता है। आत्मा को महात्मा, देवात्मा और परमात्मा बनने का अवसर इस प्राण शक्ति की अधिक मात्रा उपलब्ध करने पर ही सम्भव होता है। चेतना की विभु सत्ता जो समस्त विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है चेतन प्राण कहलाती है। उसी का अमुक अंश प्रयत्न पूर्वक अपने में धारण करने वाला प्राणी—प्राणवान एवं महाप्राण बनता है।

प्रश्नोपनिषद् में प्राण का उद्गम केन्द्र सूर्य को माना गया है— स एष वैश्वानरो विश्व रूपः प्राणोऽग्निरुद यते ।

—प्रश्न. 1-7

यह भौतिक व्याख्या है सभी जाते हैं कि पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति का श्रेय सूर्य किरणों को है।

स्थूल जगत की जीवनी शक्ति का केन्द्र सूर्य है। उसके पांच प्राण तत्व हैं। आदित्यो हवै वाह्यः प्राण उदयत्येष ह्येनं चाक्ष षं प्राण ।
मनु गृहणान्ः पृथिव्यां या देवता सैषा पुरुषस्यापान । मवष्टभ्यान्तरा यदाकाशः स समानो वायु ध्वनिः तेजो हवै उदानः ।

—प्रश्नोपनिषद्

यह सूर्य ही बाह्य प्राण है। उदय होकर दृश्य जगत की हलचलों को क्रियाशील करता है। इस विश्व रूपी शरीर को यह सूर्य का महाप्राण ही जीवन्त रखता है। पांच तत्वों में वह पांच प्राण बनकर संव्याप्त है।

सोवियत रूस के वैज्ञानिक डा. जी.ए. उशाकोव ने अपने ध्रुव शोध के विवरणों में एक और नया तथ्य प्रतिपादित किया है। वे कहते हैं कि जीवन का आधार मानी जाने वाली ऑक्सीजन वायु पृथ्वी की अपनी उपज अथवा सम्पत्ति नहीं है। वह सूर्य से प्राणरूप में प्रवाहित होती हुई चली आती है और धरती के वातावरण में यहां की तात्विक प्रक्रिया के साथ सम्मिश्रित होकर प्रस्तुत ‘ऑक्सीजन’ बन जाती है। यदि सूर्य अपने उस प्राण प्रवाह में कटौती करदे अथवा पृथ्वी ही किसी कारण उसे ठीक तरह ग्रहण न कर सके तो ऑक्सीजन की न्यूनता के कारण धरती का जीवन संकट में पड़ जायेगा। पृथ्वी से 62 मील ऊंचाई पर यह प्राण का ऑक्सीजन रूप में परिवर्तन आरम्भ होता है। यह ऑक्सीजन बादलों की तरह चाहें जहां नहीं बरसता रहता वरन् वह भी सीधा उत्तरी ध्रुव पर आता है और फिर दक्षिणी ध्रुव के माध्यम से समस्त विश्व में वितरित होता है। ध्रुव प्रभा में रंग बिरंगी झिलमिल का दीखना विद्युत मण्डल के साथ ऑक्सीजन की उपस्थिति का प्रमाण है।

प्राणायाम का—प्राण विद्या का उद्देश्य उसी सूर्य प्राण को अभीष्ट परिमाण में ग्रहण करके शरीर में धारण करना है। चुम्बकीय विद्युत प्रवाह को दीप्तिमान करने के लिए जिस प्राण अभिवर्धन की आवश्यकता होती है उसे प्राण साधना क्रम से विशेष प्राणायामों द्वारा उपलब्ध किया जाता है। स्वरयोग एवं प्राणविद्या की निर्धारित साधना पद्धति द्वारा कुण्डलिनी अग्नि को ठीक उसी प्रकार प्रदीप्त करते हैं जैसे लुहार अपनी आग की भट्टी को धोंकनी की हवा से तेज करता है। नासिका छिद्रों से प्राण तत्व को अनन्त आकाश से आकर्षित करके सूर्य तत्व द्वारा प्रेरित चुम्बकीय प्रवाह को तीव्र बनाया जाता है।

इस प्रकार उत्पन्न हुए प्रकाश के कारण सारा सोया हुआ प्राण जीवित हो उठता है। सूर्य के निकलते ही पशु, पक्षी कीट पतंग सभी निद्रा त्याग कर अपने कार्य में उत्साह पूर्वक लगते दिखाई देते हैं। कलियां खिलने लगती हैं और वायु का प्रभाव तीव्र हो जाता है। ठीक इसी प्रकार प्राण साधना से जब हमारे दोनों ध्रुव शक्ति प्रवाह से भरने लगते हैं तो सूर्योदय जैसी हलचल उत्पन्न होती है और न केवल स्थूल शरीर के वरन् सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर के भी दृश्य और अदृश्य अंग अवयव अपनी सक्रियता प्रदर्शित करने लगते हैं। साधक को अनुभव होता है मानो वह केंचुली छोड़कर स्फूर्ति या सर्प की तरह नव चेतना का अपने में अनुभव कर रहा है।

कभी-कभी सूर्य मण्डल में विशेष उत्क्रान्ति उत्पन्न होने से उस प्रवाह की एक लहर पृथ्वी पर भी चली जाती है और ध्रुव प्रदेश में चुम्बकीय आंधी तूफानों का सिलसिला चल पड़ता है। इनकी प्रतिक्रिया उसे ध्रुव क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रखती वरन् समस्त विश्व को प्रभावित करती है। कई बार यह चुम्बकीय तूफान बड़े उपयोगी और सुखद परिणाम उत्पन्न करते हैं और कई बार इनमें कुछ ऐसे तत्व घुले हुए चले आते हैं जिनका प्रभाव समस्त विश्व को कई प्रकार के संकटों में धकेल दे। एक बार सन् 1938 में एक चुम्बकीय तूफान ध्रुव प्रदेश पर आया था, उसकी भयानक चमक अफ्रीका तथा क्रीमिया तक देखी गई। उसका प्रभाव न केवल वस्तुओं पर पड़ा वरन् जीवधारी भी बुरी तरह प्रभावित हुए। ऐसी ही विद्युत आंधियों ने धरती पर ‘हिम युग’ उपस्थित कर दिया, मुद्दतों तक बहुत बड़े भूभाग को बर्फ ने ढके रखा। समुद्र में बाढ़ आई और जमीन समुद्र में समुद्र मरुस्थल में बदल गया। कहते हैं कहीं ऐसे ही वायु प्रलय, जल प्रलय अग्नि प्रलय भी उपस्थित हो सकती है और यह चुम्बकीय आंधियां धरती के वर्तमान स्वरूप को कुछ से कुछ करके रख सकती हैं।

प्रकृति गत चुम्बकीय आंधियां पंचतत्वों के हेर-फेर अथवा नियति के विधान से आती हैं। पर योग साधना से ऐसी चुम्बकीय आंधियां सूक्ष्म जगत में उठाई जा सकती हैं और आकाशस्थ ग्रह नक्षत्रों को ही नहीं, दिव्य सत्ता केन्द्रों, देवताओं को उससे प्रभावित किया जा सकता है। इस जगत को प्रभावित करने वाले चेतना केन्द्र सविता को तपस्वी लोग हिला-जुला सकते हैं। ध्रुव प्रकाश में प्रखर तीव्रता मार्च और सितम्बर में (चैत्र और आश्विन की नवरात्रि के दिनों में) अत्याधिक होती है। इसका कारण पृथ्वी का अक्ष सूर्य के साथ उचित कोण पर होता है। बीज बोने का वही समय अधिक प्रभावी होता है। गर्भ स्थापनायें भी उन्हीं दिनों अधिक होती हैं। फूल खिलने का समय यही है। साधक लोग साधनाओं में अधिक सफलता भी इन्हीं दिनों पाते हैं। हम अपनी पृथ्वी कामकला को सूर्य तेज कला के साथ जब भी जोड़ सकें तभी यह प्रकाश प्रवाह में तीव्रता आने वाली स्थिति पैदा हो सकती है और उसकी प्रतिक्रिया व्यक्तिगत जीवन में आश्चर्यजनक परिणाम लेकर प्रस्तुत हो सकती है। इतना ही नहीं व्यापक वातावरण को भी उससे प्रभावित किया जा सकता है।

अलेक्जेण्डर मार्शेक ने सघन अन्तरिक्ष में प्रकाश के रूप में भी शब्दों के रूप में भी सौरमण्डल तथा मन्दाकिनी आकाश गंगा से आने वाले शक्ति प्रवाहों को सुना है। उसका यन्त्र अंकन किया है। यह आवाज क्रमबद्ध संगीत एवं स्वर लहरियों की तरह है। यों कान से वे ध्वनि मात्र सुनाई पड़ती हैं उनका कोई विशेष महत्व समझ में नहीं आता पर खगोल विद्या की नवीनतम शोधें यह स्पष्ट करती चली जा रही हैं कि यह शब्द प्रवाह भी सूर्य से ध्रुव प्रदेशों पर बरसने वाले गति प्रवाहों की तरह ही अतीव सामर्थ्यवान हैं और उनके द्वारा प्राणियों के शरीर तथा मन पर ऐसा प्रबल प्रभाव पड़ता है जैसा व्यक्तिगत प्रयत्नों से बहुत परिश्रम करने पर भी सम्भव नहीं। यह प्रभाव भले और बुरे दोनों ही स्तर का होता है।

योग साधना में शब्द साधना का विशेष स्थान है। कुंडलिनी साधना में नाद, बिन्दु, कला की साधनायें इन अविज्ञान शक्ति प्रवाहों को समझना और उनके साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करना ही है। शंख, घन्टा, सीटी, नफीरी, झींगुर, निर्झर, मेघ गर्जन आदि के शब्द नाद साधना में सुने जाते हैं। यह मात्र चित्त वृत्तियों को एकाग्र करने के लिये ही नहीं, वरन् इसलिये भी है कि लोक लोकान्तरों में ग्रह-नक्षत्रों, आकाश गंगाओं एवं देव संस्थानों में जो अनुदान सूर्य की भांति ही बरसाये जाते रहते हैं उन्हें ग्रहण कर सकना और उनका लाभान्वित हो सकना सम्भव हो सके। कुण्डलिनी साधक को यह प्रक्रियायें अपनानी पड़ती हैं। फलतः वह दैवी वरदानों की तरह अपने में बहुत कुछ अनुपम और अद्भुत तत्व समाविष्ट हुआ अनुभव करता है।

ध्रुव प्रभाव का स्वरूप सर्च लाइट की तरह होता है। वह उत्तर की अपेक्षा दक्षिण की ओर काफी तीव्र होती है। इससे प्रकट होता है कि वह प्रवाह एक स्थान पर दक्षिणी ध्रुव की ओर तीव्र गति से दौड़ रहा है। हमारे मस्तिष्क में अवतरित होने वाला दिव्य तेजस भी योनि गह्वर की ओर कुण्डलिनी केन्द्र की ओर दौड़ता है दक्षिणी ध्रुव में ‘पेनगुइन’ नामक पक्षी पाया जाता है यह अति मृदुल स्वभाव का होता है और आगन्तुकों से अत्यन्त मधुर प्रेम भरा व्यवहार करता है। वस्तुतः दक्षिणी ध्रुव कला केन्द्र ही है। वहां प्रेम की कोमलता, मधुरता और सरलता की अजस्र धारा बहती है। पेनगुइन पक्षी की तरह ही—योनि गह्वर में सरसता और रसिकता का आनंद और उल्लास का मिठास भरा पड़ा है। इसे जागृत किया जा सके तो जीवन में कलात्मक सरसता का उल्लास निर्झरिणी की तरह फूटकर प्रवाहित हो सकता है। दक्षिणी ध्रुव समुद्रतल से 19000 फुट उभरा हुआ है। इसे विश्व शरीर की जननेन्द्रिय का उभार कह सकते हैं। पुराणों में इसे शिवलिंग कहा गया है। नारी की जननेन्द्रिय में भी यह उभार छोटे रूप में पाया जाता है।

ध्रुवों पर सूर्य की किरणों की विचित्रता के फलस्वरूप वहां सब कुछ जादूनगरी जैसा दीखता है। वहां पर अक्सर अपनी छाया दुहरी दिखाई पड़ती है आत्मवेत्ता भी अपने साथ परा और अपरा प्रकृति की दो सहेलियां साथ फिरते देखता है और अपने को इन छायाओं से स्थूल और सूक्ष्म शरीरों से भिन्न अविनाशी आत्मा ही मानता है। भारतीय प्राण विद्या का प्रयोजन यह है कि दोनों ध्रुवों पर बरसने वाली सूर्य शक्ति सन्निहित प्राण धारा को अभीष्ट मात्रा में आकर्षित करके उनके द्वारा स्थूल और सूक्ष्म चेतना की समग्र दृष्टि से पुष्ट किया जाय।

भारतीय प्राण विद्या का प्रयोजन यह है कि दोनों ध्रुवों पर बरसने वाली सूर्य शक्ति सन्निहित प्राण धारा को अभीष्ट मात्रा में आकर्षित करके उनके द्वारा स्थूल और सूक्ष्म चेतना की समग्र दृष्टि से पुष्ट किया जाय।

मस्तिष्क द्वारा भी किन्हीं अनजाने प्रकाश-स्रोतों के प्रकाशकण आकर्षित कर प्रकाश शरीर वाले सूक्ष्म शरीर को विकसित किया जा सकता है, यह थोड़ी कठिन उपपत्ति (सोलूशन) हैं तथापि विज्ञान अब उसे भी प्रमाणित करने लगा है। इस प्रमाण के लिये बेचारे रूसी खगोलशास्त्री श्री चिजोव्स्की को भारी तप करना पड़ा। पहले तो वह घण्टों कभी सूर्य की तेज धूप में तो कभी चन्द्रमा के शीतल प्रकाश में बैठे रहते और होने वाले अपने मानसिक परिवर्तनों को लिखते रहते। फिर उन्होंने पिछले 400 वर्षों के इतिहास में मानवीय स्वभाव के उतार-चढ़ाव तथा अनेक प्रकार की बीमारियों के वार्षिक आंकड़े एकत्रित कर देखा कि सूर्य आदि की चमक और उसके 11 वर्षीय कलंकों (सन-स्पाट्स) से मनुष्य की मनोदशा से गहरा सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा तो कभी बाद में करेंगे पर यहां यह समझ लेना नितान्त आवश्यक है कि विचार प्रणाली का सम्बन्ध मस्तिष्क की जिन थॉयराइड, एड्रीनल और पिचुट्री आदि ग्रन्थियों से हैं, वे सब नलिका विहीन (डक्टलेस) होती हैं, अर्थात् उनमें किसी प्रकार का रासायनिक प्रभाव न होना, प्रकाश या प्राण के सूक्ष्म कण भी उसी तरह प्रवाहित होते हैं, जिस प्रकार तार में विद्युत-कण। जैसे-जैसे यह प्रकाश-कण होते हैं, वैसे-वैसे भाव उठते हैं। सूर्य की तेज धूप में क्लान्ति, क्रोध, वीरता जैसे भाव आते हैं तो चन्द्रमा के प्रकाश में आल्हाद और कामुकता के। अब यदि कोई व्यक्ति अपना ध्यान किसी प्रकाश-स्रोत पर लगाता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमारी नलिका विहीन ग्रन्थियां उस स्रोत विशेष से विद्युत चुम्बकीय सम्बन्ध स्थापित कर लेती हैं और वह कण तेजी से हमारे अन्दर भरते लगने हैं। ध्यान जितना एकाग्र और गहन होता है, इस आकर्षण की और सूक्ष्म शरीर के विकास की गति को हम उतना ही स्पष्ट अनुभव करते-करते एक दिन उस स्रोत से तादात्म्य कर सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं।

प्राण-शक्ति से सर्वतोन्मुखी कल्याण साधना

राजा दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन को एक बार स्वर्ग देखने की इच्छा हुई। पिता की आज्ञा लेकर वे स्वर्ग गये। प्रतर्दन के पुरुषार्थ और रण-चातुर्य से इन्द्र अत्यन्त प्रभावित थे। उन्होंने प्रतर्दन का आदर-सत्कार किया और कहा, ‘मैं आपको क्या वर दूं?’ प्रतर्दन ने कहा, ‘भगवन्! मैं धन-धान्य, प्रजा-पुत्र, यश-वैभव सब प्रकार से परिपूर्ण हूं। आपसे क्या मांगू मुझे कुछ नहीं चाहिये।’

इन्द्र हंसकर बोले, ‘वत्स, मैं यह जानता हूं कि पुरुषार्थी व्यक्ति को संसार में कोई अभाव नहीं रहता। अपने सुख-समृद्धि के साधन वह आप जुटा लेता है तो भी उसे विश्व-हित की कामना करनी चाहिये। लोक-सेवा के पुण्य से बढ़कर पृथ्वी में और कोई सुयश नहीं तुम उससे ब्रह्म को प्राप्त होगे। इसलिये मैं तुम्हें लोक का कल्याण करने वाली प्राण विद्या सिखाता हूं।’

इसके बाद इन्द्र ने प्रतर्दन को प्राणतत्व का उपदेश दिया। उन्होंने कहा, ‘प्राण ही ब्रह्म है। साधनाओं द्वारा योगी, ऋषि-मुनि अपनी आत्मा में प्राण धारण करते और उससे विश्व का कल्याण करते हैं।’

‘कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद्’ के दूसरे अध्याय में भगवान् इन्द्र ने प्रतर्दन को यह प्राण विद्या सिखाई है, उसका बड़ा ही मार्मिक एवं महत्वपूर्ण उल्लेख है। इसी सन्दर्भ में इन्द्र ने एक व्यक्ति अपनी असीम प्राणशक्ति को दूसरों तक कैसे पहुंचाता है, प्राणशक्ति के माध्यम से दूसरों तक अन्तःप्रेरणायें और विचार किस तरह पहुंचाता है, इस रहस्य का उद्घाटन करते हुए बताया है—

अथ खलु तस्मा देतमेवोक्थ मुपासीत । यो वै प्राणः सा प्रज्ञा या वा प्रज्ञा स प्राणः.......स यदा प्रतिबुध्यते यथाऽग्नेर्विस्फुलिंग । विप्रतिष्ठन्ते प्राणेभ्यो देवा देवेभ्यो लोका........।

अर्थात् ‘जब मन विचार करता है, तब अन्य सभी प्राण उसके सहयोगी होकर विचारमान हो जाते हैं, नेत्र किसी वस्तु को देखने लगते हैं तो अन्य प्राण उनका अनुसरण करते हैं। वाणी जब कुछ कहती हैं, तब अन्य प्राण उसके सहायक होते हैं। मुख्य प्राण के कार्य में अन्य प्राणों का पूर्ण सहयोग होता है।

अन्यत्र श्लोक में बताया है कि मन सहित सभी इन्द्रियों को निष्क्रिय करके आत्म-शक्ति (संकल्प-शक्ति) को प्राणों में मिला देते हैं। ऐसा पुरुष ‘दैवी परिमर’ का ज्ञाता होता है। वह अपनी प्राण-शक्ति से किसी को भी प्रभावित और प्रेरित कर सकता है। उसके सन्देश को कहीं भी सुना और हृदयंगम किया जा सकता है। उसके प्राणों में अपने प्राणों को घुलाकर स्वल्प क्षमता के लोग भी अपने प्राण जागृत कर सकते हैं। जिस पुरुष को दैवी परिमर का ज्ञान होता है। उसकी आज्ञा को पर्वत भी अमान्य नहीं कर सकते। उससे द्वेष रखने वाले सर्वथा नष्ट हो जाते हैं।

इसी उपनिषद् में यह भी निर्देश है कि जब पिता को अपने अन्तकाल का निश्चय हो जाये तो पुत्र (अथवा गुरु, शिष्य या शिष्यों) में अपनी प्राण-शक्ति को प्रतिष्ठित कर दे। वह वाक्, प्राण, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, गतिशक्ति, बुद्धि आदि प्रदान करे और पुत्र उसे ग्रहण करे इसके बाद पिता या गुरु संन्यासी होकर चला जाये और पुत्र या शिष्य उसका उत्तराधिकारी हो जाये अर्थात् परमार्थ परम्परा रुके नहीं अक्षुण्य बनी रहे।

प्राचीनकाल में यह परम्परा आधुनिक सशक्त यन्त्रों की बेतार के तार की भांति प्रचलित थी। प्राण विद्या के ज्ञाता गुरु अपने प्राण देकर शिष्यों के व्यक्तित्व और उनकी क्षमतायें बढ़ाया करते थे। इसी कारण श्रद्धा विनत होकर लोग ऋषि आश्रमों में जाया करते थे। ऋषि अपने प्राण देकर उन्हें तेजस्वी, मेधावान और पुरुषार्थी बनाया करते थे। महर्षि धौम्य ने आरुणि को, गौतम ने जावालि को, इन्द्र ने अर्जुन को, यम ने नचिकेता को, शुक्राचार्य ने कच को इसी तरह उच्च स्थिति में पहुंचाया था। योग्य गुरुओं द्वारा यह परम्परायें अब भी चलतीं रहती हैं। परमहंस स्वामी रामकृष्ण ने विवेकानन्द को शक्तिपात किया था। स्वामी विवेकानन्द ने सिस्टर निवेदिता में प्राण प्रत्यार्पित किये। महर्षि अरविन्द ने प्राण-शक्ति द्वारा ही सन्देश भेजकर पाण्डिचेरी आश्रम की संचालिका ‘मदिति-सह भारतमाता’ की सम्पादिका ‘श्री यज्ञशिखा मां’ को पेरिस से बुलाया था और उन्हें योगविद्या देकर भारतीय दर्शन का निष्णात बनाया था।

कहते हैं जब राम वनवास में थे, तब लक्ष्मण अपने तेजस्वी प्राणों को संचालन करके प्रत्येक दिन की स्थिति के समाचार अपनी धर्मपत्नी उर्मिला तक पहुंचा देते थे। उर्मिला उन सन्देशों को चित्रबद्ध करके रघुवंश परिवार में प्रसारित कर दिया करती थी और बेतार के तार की तरह के सन्देश सबको मिल जाया करते थे।

अनुसुइया आश्रम में अकेली थीं। भगवान् ब्रह्मा, विष्णु और महेश वेश बदलकर परोक्षार्थ आश्रम में पहुंचे। अत्रि मुनि बाहर थे। उन्होंने ही भगवान् के त्रिकाल रूप को पहचाना था और वह गुप्त सन्देश अनुसूइया को प्राण-शक्ति द्वारा ही प्रेषित किया। ऐसी कथा-गाथाओं से सारा हिन्दू-शास्त्र भरा पड़ा है।

आज का विज्ञान मुखी समाज इन उपाख्यानों को तर्क की दृष्टि से देखता है। लोक शक और सन्देह करते हैं, कहते हैं, ऐसा भी कहीं सम्भव है कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को बिना किसी उपकरण या माध्यम के सन्देश पहुंचा सके।

यदि विचारपूर्वक देखें तो विज्ञान भी इसकी पुष्टि ही करेगा। बेतार के तार के सिद्धान्त को कौन नहीं जानता? शब्द को विद्युत तरंगों में बदल देते हैं। यह विद्युत तरंगें ईथर तत्व में धारायें बन कर प्रवाहित होती हैं। ट्रान्समीटर जितना शक्तिशाली होता है, विद्युत तरंगें उतनी ही दूर तक दरदराती चली जाती हैं। उसी फ्रीक्वेंसी में लगे हुये दूसरे वायरलेस या रेडियो उन ध्वनि तरंगों को पकड़ते हैं और पुनः शब्दों में बदल देते हैं, जिससे वे पास बैठे हुए लोगों को सुनाई देने लगती हैं। अब इस बात में तो कोई अविश्वास कर ही नहीं सकता।

जो बात बोली जाती है, वह पहले विचार रूप में आती है, अर्थात् विचारों का अस्तित्व संसार में विद्यमान है। ऊपर के श्लोक में बताया गया है कि मन या विचार शक्ति प्राण में मिल जाती है तो सभी प्राण उसके सहायक हो जाते हैं अर्थात् प्राणों के माध्यम से अपने शरीर की सम्पूर्ण चेतना को जिसमें हाव-भाव, क्रिया-कलाप, विचार-भावनायें सम्मिलित होती हैं, किसी भी दूरस्थ व्यक्ति तक पहुंचाया जा सकता है।

यूनान के चिकित्सा विज्ञानी ‘पैपिरस’ ने रोगों की उपचार प्रक्रिया में चिकित्सक द्वारा रोगी के सिर पर हाथ फिराकर अच्छा करने की प्रक्रिया को शास्त्रीय रूप दिया था। सम्राट पाइरस और वैसे पसियन को ऐसे ही उपचारों से कष्ट साध्य रोगों से मुक्ति मिली थी। फ्रांस के शाही परिवार में फ्रांसिस प्रथम से लेकर चार्ल्स दशम तक की चिकित्सा में जीव चुम्बक का प्रयोग शक्तिशाली प्रक्रियाओं द्वारा होता रहा है। हाथ का स्पर्श और विशिष्ट दृष्टिपात इस प्रक्रिया में विशेष रूप से प्रयुक्त हुआ है। विद्वान स्काचमेन मेक्सवेल ने सन् 1600 में ग्रह सिद्धान्त प्रतिपादित किया था कि ब्रह्माण्ड व्यापी एक ‘जीवनी शक्ति’ का अस्तित्व मौजूद है। प्रयत्न करके उसकी न्यूनाधिक मात्रा अपने में भरी जा सकती है और उसे स्व पर उत्कर्ष के अनेक प्रयोजनों में प्रयुक्त किया जा सकता है।

मैक्सवेल से पहले महामनीषी गोक्लोनियस अनेक तर्कों और प्रमाणों से यह सिद्ध कर चुके थे कि मनुष्य के आत्मबल का प्रमुख आधार यह जीवनी शक्ति ही है जिसे ‘जैव चुम्बकत्व’ के स्तर का समझा जा सकता है। बान हेलमान्ट इस शक्ति का उपयोग करके शारीरिक और मानसिक रोगियों को कष्टमुक्त करने में ख्याति प्राप्त कर चुके हैं। महाप्रभु अपनी इसी क्षमता के कारण अपने जीवन काल में ही सिद्ध पुरुष गिने जाने लगे थे।

इटली के वैज्ञानिक सेटानेली ने अठाहरवीं सदी के आरम्भ में अनेक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया था कि मनुष्य शरीर में प्रचण्ड विद्युतीय विकरण का अस्तित्व विद्यमान है। सन् 1734 से सन् 1815 तक लगभग पूरे जीवन में डॉक्टर फैडरिक मैस्मर ने प्राणशक्ति के अस्तित्व एवं उपयोग के सम्बन्ध में शोध कार्य किया। उन्होंने अपने अनुसंधानों के निष्कर्षों को क्रमबद्ध बनाया और मैस्मरिज्म नाम दिया। आगे चलकर उनके शिष्य कांस्टेट युसिगर ने उसमें सम्मोहन विज्ञान की नई कड़ी जोड़ी और कृत्रिम निद्रा लाने की विधि को ‘हिप्नोटिज्म’ नाम दिया। फ्रांस के अन्य विद्वान भी इन दिशा में नई खोजें करते रहे। ला फान्टेन एवं डा. व्रेड ने इन अन्वेषणों को और आगे बढ़ाकर इस योग्य बनाया कि चिकित्सा उपचार में उसका प्रामाणिक उपयोग सम्भव हो सके।

पिछले दिनों अमेरिका में न्यू आरलीन्स तो ऐसे प्रयोगों का केन्द्र ही बना रहा है इस विज्ञान को अमेरिकी वैज्ञानिक डारलिंग और फ्रांसीसी डा. द्रुराण्ड डे ग्रास की खोजों ने विज्ञान जगत को यह विश्वास दिलाया कि प्राणशक्ति का उपयोग अन्य महत्वपूर्ण उपचारों से किसी भी प्रकार कम लाभदायक नहीं है। इस प्रक्रिया को ‘इलेक्ट्रोवायो-लॉजिकल’ नाम दिया गया है। ली वाल्ट को जीव विद्युत के आधार पर चिकित्सा उपचार पुस्तक को प्रामाणिकता भी मिली और सराहना भी हुई। इस संदर्भ में जिन तीन प्रमुख संस्थानों ने विशेष रूप में शोध कार्य किये हैं उनके नाम (1) दि स्कूल आफ नेन्सी (2) दि स्कूल आफ चारकोट (3) दि स्कूल आफ मेस्मेरिस्ट। इनके अतिरिक्त भी छोटे बड़े अन्य शोध संस्थान व्यक्तिगत एवं सामूहिक अन्वेषणों को प्रोत्साहन देते रहे हैं।

विज्ञानी मोडात्र्यूज तथा काउण्ट पुलीगर के शोधों ने यह सिद्ध किया है कि प्राणशक्ति द्वारा रोग उपचार तो एक हल्की सी खिलवाड़ मात्र है। वस्तुतः उसके उपयोग बहुत ही उच्च स्तर के हो सकते हैं। उसके आधार पर मनुष्य अपने निज के व्यक्तित्व में बहुमुखी प्रखरता उत्पन्न कर सकता है। प्रतिभाशाली बन सकता है। आत्म-विकास की अनेकों मंजिलें पार कर सकता है। पदार्थों को प्रभावित करके अधिक उपयोगी बनाने तथा इस प्रभाव से जीवित प्राणियों की प्रकृति बदलने के लिए भी प्रयोग हो सकता है। जर्मन विद्युत विज्ञानी रीकन वेक इसे एक विशेष प्रकार की ‘अग्नि’ मानते हैं। उसका बाहुल्य वे चेहरे के इर्द गिर्द मानते हैं और ‘औरा’ नाम देते हैं। प्रजनन अंगों में उन्होंने इस अग्नि की मात्रा चेहरे से भी अधिक परिमाण में पाई है। दूसरे शोधकर्त्ताओं ने नेत्रों में तथा उंगलियों के पोरवों में उसका अधिक प्रवाह माना है। हांगकांग के अमेरिकी डाक्टर आर्नोल्ड फास्ट ने सम्मोहन विधि से निद्रित करके कई रोगियों के छोटे आपरेशन किये थे। पीछे डेण्टल सर्जनों ने यह विधि अपनाई और उन्होंने दांत उखाड़ने में सुन्न करने के प्रयोग बन्द करके सम्मोहन विधि प्रयोग को सुविधाजनक पाया। दक्षिण अफ्रीका जोहन्सवर्ग के टारा अस्पताल में डा. वर्नार्ड लेविन्सन ने बिना क्लोरोफार्म सुंघाये इसी विधि से कितने ही कष्ट रहित आपरेशन करके यह सिद्ध किया कि यह विधि कोई जादू मन्तर नहीं वरन् विशुद्ध वैज्ञानिक है। अंग्रेज विज्ञानी जेम्स ब्राइड ने भी नाड़ी संस्थान में पाई जाने वाली विद्युत शक्ति की क्षमता को मात्र शरीर निर्वाह तक सीमित न रहने देकर उसमें अन्य उपयोगी कार्य सम्भव हो सकने का प्रतिपादन किया है।

द्वितीय महायुद्ध के समय लोगों के मनों में से छिपे हुए रहस्य उगलवा लेने के लिए प्राण विद्युत के प्रयोग की रहस्यमयी विधियां खोजी गई थीं। मनोविज्ञानी जे.एच. एट्स ब्रुक ने इस सन्दर्भ में कई नये सिद्धान्त खोज निकाले थे और उनका प्रयोग जासूसी विभाग के अफसरों को सिखाया था। इसके लिए तब जर्मनी में एक ‘हिप्नोटाइज्ड इन्टेलीजेन्स’ विभाग ही अलग से बनाया गया था। उसके माध्यम से कितनी ही अद्भुत सफलताएं भी मिली थीं।

प्राणशक्ति की सामर्थ्यों और चमत्कारों का कोई पारावर नहीं जिस तरह परमाणु सम्पन्न राष्ट्र विश्व शिरोमणि माने जाते हैं प्राण सम्पन्न व्यक्तियों की ताकत उससे कम नहीं अधिक होती है। जब तक हमारा देश इस विज्ञान को जानता रहा तब तक वस्तुतः हमारी स्थिति यही रही। गायत्री उपासना द्वारा अपने वैयक्तिक प्राणों को विभु प्राण सत्ता से जोड़कर अजस्र शक्ति का भण्डार भरते रहे हैं और उससे न केवल अपना सैकड़ों औरों का हित साधन करते रहे हैं। परमाणु विध्वंसक भी है साथ ही उसी के उपयोग से आज विद्युत की कमी और उसके द्वारा कृषि उद्योग, स्वास्थ्य आदि के क्षेत्र में बहुमूल्य काम उठाये जा रहे हैं प्राणों का भी यही सही उपयोग है कि उसे लोक हित में लगाया जाये। आज की दैन्यता समाप्त की जाये।

गायत्री सिद्ध महापुरुष एक प्रकार से सूर्य होते हैं वे लोगों का असीम कल्याण कर सकने की क्षमता से ओत-प्रोत होते हैं तो भी चाहे जिसकी सहायता नहीं करते इसका कारण इस शक्ति के सदुपयोग दुरुपयोग की पात्रता ही होती है। बाप शराबी बेटे को पैसे नहीं देता इसलिये हर किसी को तो शक्ति नहीं बांटी जा सकती। पर गर्मी प्रकाश पोषण देने का स्थूल कार्य सूर्य भी करते हैं, महापुरुष भी वही नीति प्रज्ञा पुत्र गायत्री उपासकों को भी करनी चाहिये। लोगों को प्राण देकर भले ही भला न कर सकें पर उन्हें प्रेरणा देकर सन्मार्ग में लगाकर इतना बड़ा कल्याण कर सकते हैं जिसकी तुलना में कोई भी बड़ी से बड़ी भौतिक सहायता निम्न स्तर की ही ठहरेगी।

प्राण कहां से आता है? उसके उपलब्धि स्रोत कहां हैं? यह तलाश करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ेगा कि यह बहुमूल्य सम्पदा हमें शुद्ध वायु, निर्मल जल, सात्विक आहार, सूर्य सम्पर्क, गहरी नींद सन्तुष्ट मनःस्थिति से प्राप्त होती है। इन शक्ति स्रोतों की जितनी उपेक्षा करेंगे, उनसे जितने दूर रहेंगे उतने ही क्षीण होते चले जायेंगे? कमाई कम और खर्च अधिक करने पर कोई व्यवसाय ठीक तरह नहीं चलता फिर जीवन व्यवसाय ही कैसे चलेगा?

हर काम की सीमा है। मर्यादा में रहकर ही स्थिरता प्राप्त हो सकती है। सामर्थ्य से अधिक काम करना—साधनों से असम्बद्ध महत्वाकांक्षाएं गढ़ना—भोगासक्ति में निमग्न होकर इन्द्रियों से अधिक काम लेना, दिनचर्या की नियमितता का ध्यान न रखना आदि बातें देखने सुनने में कोई बहुत बड़ी गलतियां नहीं मालूम पड़तीं, पर वे छोटी होने पर भी चिनगारी की तरह हमारे हंसते-खेलते जीवनोद्यान में आग लगा देने के लिए पर्याप्त हैं।
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