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Books - ईश्वर का विराट रूप

Media: TEXT
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ईश्वर

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इस समस्त विश्व के मूल में एक शासक संचालक एवं प्रेरक शक्तिकाम करती है । सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, ग्रह, उपग्रह निरंतर अपनी नियत चालसे अविश्रांत यात्रा जारी रखे हुए हैं । तत्त्वों के सम्मिश्रण से एक नियतव्यवस्था के अनुसार तीसरा पदार्थ बन जाता है । बीज अपनी ही जाति केपौधे उत्पन्न करता है । सूर्य एक पल का विलंब किए बिना ठीक समय उदय और अस्त होता है । समुद्र में ज्वार-भाटा नियत समय पर आते हैं ।पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश सबकी क्रियाएँ अचूक हैं । नन्हें-नन्हेंअदृश्य परमाणु अत्यंत द्रुतगति से हरकत करते हैं, पर उनकी इस गति मेंरंचमात्र भी अंतर नहीं आता । एक परमाणु को दूसरे परमाणु से लड़ाने केरहस्य को ढूँढ़कर वैज्ञानिकों ने प्रलयंकारी 'परमाणु बम' बनाए हैं । यदि एक सेकंड में हजारों मील की गति से घूमने वाले यह परमाणु आपस मेंलड़ जाया करते तो आए दिन प्रलय उपस्थित हो जाया करती परंतु हमदेखते हैं कि प्रकृति का हर एक परमाणु अपने गुण, कर्म को ठीक प्रकारकर रहा है ।

यदि सृष्टि में नियमितता न होती तो एक भी वैज्ञानिक आविष्कारसफल न होता । आग कभी गरमी देती कभी ठंढक, तो भला उसके भरोसेकोई काम कैसे होता ? नित्य अनेकों वैज्ञानिक आविष्कार हो रहे हैं, इनकाआधार इसी पर निर्भर है कि प्रकृति की दृश्य और अदृश्य शक्तियाँ अपनेनियत नियमों से रंचमात्र भी विचलित नहीं होतीं । यह सर्वमान्य और सर्वविदित तथ्य है कि प्रकृति की समस्त क्रिया प्रणाली नियमित है ।उसके मूलभूत नियमों में कभी अंतर नहीं पड़ता है ।

इस नियमितता और गतिशीलता के मूल में एक सत्ता अवश्य है ।विचार और प्राण से रहित जड़ प्रकृति अपने आप इस क्रिया-कलाप कोनहीं चला सकती । रेल, मोटर, इंजन, हवाई जहाज, तलवार, कलम आदिजितने भी निर्जीव यंत्र हैं, उनके चलाने वाला कोई न कोई सजीव प्राणी अवश्य होता है । इसी प्रकार प्रकृति की नियमितता और उद्गम केंद्र भीकोई न कोई अवश्य है । इस केंद्र को हम ईश्वर कहते हैं । ईश्वर का अर्थहै-स्वामी । जड़ प्रकृति के निर्माण, व्यवस्था एवं संचालन में- जो शक्तिकाम करती हैं, वह ईश्वर है ।

केवल जड़ प्रकृति का ही नहीं, चेतन जगत का भी वह पूरी तरहनियमन करती है । इतने अपने नियमों के अंतर्गत प्राणिमात्र को बाँध रखाहै । जो उस ईश्वर के नियमों के अनुसार चलते हैं, वे सुखी रहते हैं,विकसित होते हैं और जो उन नियमों को तोड़ते हैं, वे दुःख पाते और हानि उठाते हैं । स्वास्थ्य के नियमों पर चलने वाले, सदाचारी, संयमी,मिताहारी लोग स्वस्थ रहते हैं और चटोरे, दुराचारी, स्वेच्छाचारी लोगबीमारी, कमजोरी एवं अकाल मृत्यु के शिकार होते हैं । इसी प्रकारसामाजिक, मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक क्षेत्रों में काम करने वाले ईश्वरीय नियमों का ठीक प्रकार से पालन करतेहैं । वे उन क्षेत्रों में स्वस्थता, समृद्धि एवं उन्नति प्राप्त करते हैं और जो उननियमों के प्रतिकूल कार्य करते हैं, वे उन क्षेत्रों में दुष्परिणाम भुगतते हैं ।पराक्रम, पुरुषार्थ, प्रयत्न, लगन, साहस, उत्साह एवं धैर्य यह सब सफलताके मार्ग की ईश्वरीय पगडंडियाँ हैं । इन पर जो चलते हैं, वे अभीष्टसिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं । जो इस राजमार्ग पर नहीं चलते वे पिछड़जाते हैं ।

ईश्वर पूर्णतया निष्पक्ष, न्यायकारी नियम रूप है । वह किसी के साथ रत्ती भर भी रियायत नहीं करता । जो जैसा करता है, वह वैसा ही भोगता है । अग्नि या बिजली के नियमों के अनुसार यदि उनसे काम लिया जाए तो वे हमारे लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होती हैं पर यदि अग्नि या बिजली का दुरुपयोग किया जाए तो वह भयंकर दुर्घटना उपस्थित कर देती है । इसी प्रकार जो लोग ईश्वरीय नियमों के अनुसार काम करते हैं उनके लिए ईश्वर वरदाता, त्राता, रक्षक, सहायक, कृपा सिंधु, भक्तवत्सल हैं, पर जो उसके नियमों में गड़बड़ी करता है उसके लिए वह यम, काल,अग्नि, शंकर, वज्र एवं दुर्दैव बन जाता है । मनुष्य को स्वतंत्र बुद्धि देकर ईश्वर ने उसे काम करने के लिए स्वच्छंद अवश्य बना दिया है पर नियमन अपने ही हाथ में रखा है । वह जैसे को तैसा फल दिए बगैर नहीं छोड़ता । आग और लकड़ी को इकट्ठा करना या न करना यह हमारी इच्छा पर निर्भर है, पर उन दोनों को इकट्ठा होने पर ईश्वरीय नियमों के अनुसार जो ज्वलन क्रिया होगी उसे रोकना अपने वश की बात नहीं है । इसी प्रकार शुभ-अशुभ कर्म करना तो हमारे अपने हाथ में हैं, पर उनसे जिन भले-बुरे परिणामों की उत्पत्ति होगी, वह ईश्वरीय नियामक शक्ति के हाथ में है ।
 
जैन और बौद्ध कर्म के फल की अनिवार्यता स्वीकार करते हैं,अतएव वे ईश्वर को ब्रह्म की द्वितीय सत्ता मानते हैं । सत्कर्म करना प्रकृति के कठोर अपरिवर्तनशील नियमों का ध्यान रखना, अपने आचरणों और विचारों को ईश्वरीय नियमों की मर्यादा में रखना ईश्वर पूजा है । अपनी योग्यता और शक्तियों को समुन्नत करना बाहुबल के आधार पर आगे बढ़ना, अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करना ईश्वरवादियों का प्रधान स्वभाव होता है, क्योंकि वे जानते हैं कि सबलों, क्रियाशीलों और जागरूकों को बढ़ाना तथा कमजोरों, अकर्मण्यों एवं असावधानों को नष्ट करना प्रकृति का नियम है । इस कठोर नियम में किसी के बूते कोई परिवर्तन नहीं हो सकता । ईश्वरवादी इस नग्न सत्य को भलीभाँति जानते हैं कि ईश्वर उन्हीं की मदद करता है जो अपनी मदद आप करता है । इसलिए वे ईश्वरीय कृपा प्राप्त करके उसके नियमों से लाभ उठाने के लिए सदा शक्तिसंचय करने तथा आगे बढ़ने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं । आत्मनिर्भर और आत्मावलंबी  होते हैं । अपने भाग्य का आप निर्माण करते हैं । ईश्वरीय नियमों को ध्यानपूर्वक देखते, परखते और हृदयंगम करते हैं तथा उनकी वज्रोपम कठोरता एवं अपरिवर्तनशीलता का ध्यान रखते हुए अपने आचरणों को औचित्य की, धर्म की सीमा के अंतर्गत रखते हैं ।

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