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Books - जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र

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प्रतीक पूजा का तत्त्वदर्शन

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First 8 10 Last
विभिन्न मत−मतान्तरों के अनुरूप विभिन्न प्रकार की पूजा पद्धतियाँ, क्षेत्र या सम्प्रदाय विशेष में प्रचलित पाई जाती हैं। उन सब के पीछे तथ्य और रहस्य एक ही काम करता है कि अपने आपको परिष्कृत एवं सुव्यवस्थित बनाया जाये। यही ईश्वर की एक मात्र पूजा, उपासना और अभ्यर्थना है। विश्व व्यवस्था में निरन्तर संलग्न परमेश्वर को, उतनी फुर्सत नहीं कि वह इतने भक्तजनों की मनुहार सुनने और चित्र- विचित्र उपहारों को ग्रहण करने में समय बिताया करे। यह सब तो मात्र अभ्यर्थना के माध्यम से, अपने आप को उत्कृष्टता के मार्ग पर चल पड़ने के लिए स्व- संकेत के रूप में रचा और किया जाता है।

    ईश्वर पर न किसी की प्रशंसा का कोई असर पड़ता है और न निन्दा का। पुजारी नित्य प्रशंसा के पुल बाँधते और नास्तिक हजारों गालियाँ सुनाते हैं। इनमें से किसी की भी बकझक का उस पर कोई असर नहीं पड़ता। गिड़गिड़ाने, नाक रगड़ने पर भी चयन आयोग किसी को ऑफिसर नियुक्त नहीं करता। छात्रवृत्ति पाने के लिए नम्बर लाने और प्रतिस्पर्द्धा जीतने से कम में किसी प्रकार भी काम नहीं चलता। ईश्वर की भी यही सुनिश्चित रीति- नीति है। उसकी प्रसन्नता भी एक केंद्र- बिन्दु पर केंद्रित है कि किसने उसके विश्व उद्यान को सुन्दर समुन्नत बनाने के लिए कितना अनुदान प्रस्तुत किया। उपासनात्मक कर्मकाण्ड इसी एक सुनिश्चित व्यवस्था को जानने- मानने के लिये किये और अपनाये जाते हैं। यदि कर्मकाण्ड लकीर भर पीटने की तरह पूरे किये जायें और परमात्मा के आदेशानुशासन की अवज्ञा की जाती रहे, तो समझना चाहिए कि यह मात्र बाल- क्रीड़ा खेल- खिलवाड़ ही है। उतने भर से किसी का कुछ भला होने वाला नहीं है।

    देवपूजा के कर्मकाण्डों को प्रतीकोपासना कहते हैं, जिसका तात्पर्य है कि संकेतों के आधार पर क्रिया- कलापों को निर्धारित करना। देवता की प्रतिमा एक पूर्ण मनुष्य की परिकल्पना है, जिसके उपासक को भी हर स्थिति में सर्वांग सुन्दर एवं नवयुवकों जैसी मनःस्थिति में बने रहना चाहिए। देवियाँ मातृसत्ता की प्रतीक हैं। तरुणी एवं सौन्दर्यमयी होते हुए भी उन्हें कुदृष्टि से नहीं देखा जाता, वरन् पवित्रता की मान्यता विकसित करते हुए उन्हें श्रद्धापूर्वक नमन- वन्दन भी किया जाता है। नारी मात्र के प्रति प्रत्येक साधक की मान्यताएँ, इस स्तर की विनिर्मित- विकसित होनी चाहिए।

    पूजा- अर्घ्य में जल, अक्षत, पुष्प, चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य आदि को सँजोकर रखा जाता है। इसका तात्पर्य उन माध्यम संकेतों को ध्यान में रखते हुए अपनी रीति- नीति का निर्धारण करना है। जल का अर्थ है- शीतलता हम शान्त, सौम्य और सन्तुलित रहें। धूप के पीछे दिशा निर्देशन यह है कि हम वातावरण को सत्प्रवृत्तियों से भरा- पूरा सुगन्धित बनाएँ। दीपक का संकेत है कि ज्ञान का प्रकाश व्यापक बनाने के लिए हम अपने साधनों, विभूतियों में से कुछ भी उत्सर्ग करने के लिए तैयार रहें। चन्दन अर्थात् समीपवर्तियों को अपने जैसा सुगन्धित बना लेना। काटे, घिसे जाने जैसी विकट परिस्थितियाँ आने पर भी प्रमुदित करने वाले स्वभाव को न छोड़ें। पुष्प अर्थात् हँसते- हँसाते खिलते- खिलाते रहने की प्रकृति अपना लेना। अक्षत अर्थात् अपने उपार्जन का एक अंश दिव्य प्रयोजनों के लिए नियोजित करने में अटूट निष्ठा बनाए रखना, उदार बने रहना आदि। भगवान् को इन वस्तुओं की कोई आवश्यकता पड़ रही हो, ऐसी बात नहीं है। इन प्रतीक- समर्पणों के माध्यम से हम अपने को ही प्रशिक्षित करते हैं कि देवत्व के अवतरण हेतु व्यक्तित्व को पात्रता से सुसज्जित रखें।

    गार्ड, लाल और हरी झण्डियाँ दिखाता है। यों रंगों का अपना कोई महत्त्व नहीं, पर झण्डियाँ देखने पर जो खड़ा होने और चल पड़ने का संकेत मिलता है, उसी को समझने और क्रियान्वित करने पर रेल व्यवस्था बन पड़ती है। उपासनापरक क्रिया- कृत्यों में, भगवान् को रिझाने- फुसलाने का पात्रता प्रदर्शित किए बिना, पुरुषार्थ अपनाए बिना मनचाही कामनाएँ पूरी करा लेने जैसा कुछ भी सन्निहित नहीं है। आमतौर से लोग भ्रम में ही उलझे रहते हैं। फसल काटने के लिए बीज बोने- सींचने के बिना काम चलता ही नहीं, फिर चाहे अनुनय- विनय जैसी कुछ भी उछल- कूद क्यों न की जाती रहे।
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