
मानसिक विक्षोभ से यों न टूटे जाइये
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मनुष्य की जिजीविषा साधारणतया अदम्य मानी जाती है। हम जीवित रहना चाहते हैं और जीवन को प्यार करते हैं। साथ ही इस जीवन की सुरक्षा के लिए तरह-तरह के साधन जुटाते हैं। मरण से सभी को भय लगता है यहां तक कि पशु पक्षी भी प्राण संकट की घड़ी आने पर सब कुछ कर गुजरने के लिए उतारू हो जाते हैं। आत्मरक्षा के प्रयत्नों में सृष्टि के प्रत्येक प्राणी को संलग्न देखा जा सकता है। इससे प्रतीत होता है कि न केवल मनुष्य वरन् हर एक जीवधारी जीवन संपदा को सुरक्षित रखने के लिए अपनी सूझबूझ और स्थिति के अनुसार हर सम्भव उपाय करता है। जीवधारी को जीवन के साथ कितना अधिक प्यार है इस तथ्य की झांकी नजर पसार कर कहीं भी की जा सकती है।
इसके उपरान्त भी कई बार जीवन जैसी बहुमूल्य सम्पदा को अपने हाथों नष्ट किये जाते देखा गया है। सर्वाधिक प्रिय जीवन सम्पदा जिस कारणों से निरर्थक व असह्य बनती जाती है वह कारण है मानसिक विक्षोभ। देखने में यही प्रतीत होता है कि अमुक घटनाओं या परिस्थितियों ने अमुक व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिए विवश कर दिया, पर वास्तविकता कुछ दूसरी ही होती है। इन लोगों को जो स्थिति असह्य प्रतीत हुई और घबराकर यह अवांछनीय कृत्य कर बैठे वह वस्तुतः उतनी अधिक जटिल नहीं थी। उन्हीं परिस्थितियों को असंख्य लोग सहन करते हैं और कुछ तो इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें जीवन का एक सहज स्वाभाविक अंग मानकर सन्तोषपूर्वक दिन गुजारते हैं। यदि वे कठिनाइयां सचमुच ही इतनी असह्य होतीं तो फिर किसी के लिए भी उनमें रहना कितना कठिन होता।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की संग्रहीत जानकारियों के अनुसार प्रत्येक एक लाख में से 34 व्यक्ति आत्म-हत्या करके मरते हैं। संसार के अन्य देशों की तुलना में इस सन्दर्भ में भारत सबसे आगे हैं। अकेली दिल्ली में एक वर्ष की गणना में 325 व्यक्तियों ने आत्म-हत्या की थी जबकि उस वर्ष हत्याएं केवल 60 ही हुईं। यह एक नगर की बात हुई। उसी साल राजस्थान में 873 व्यक्तियों ने आत्म-हत्या की थी। कोई-कोई अधिक सम्पन्न और अधिक विलासी नगर भी इस क्षेत्र में भारत को चुनौती देते हैं।
क्लाड हाटन के अनुसार बीसवीं सदी में जितनी आत्म-हत्याएं हुई हैं उतनी संसार में इससे पूर्व कभी भी नहीं हुईं। अमेरिकी मनःशास्त्री डॉ. विकवेयर इसका कारण आस्तिकता का अभाव मानते हैं और कहते हैं—‘‘आज का आदमी सुखोपभोग के साधन पाने के लिए जितना आतुर है उतना ही मनोवांछित स्थिति न पाने पर अत्यधिक विक्षुब्ध भी हो उठता है और उसी अधीरता भरी निराशा से खीजकर पूरा या अधूरा आत्मघात कर लेता है।’’
संसार भर में हर नये दिन प्रायः एक हजार व्यक्ति आत्म-हत्या द्वारा स्वेच्छा मृत्यु का वरण करते हैं। वर्लिन आत्म-हत्या निरोधक केन्द्र के अध्यक्ष डा. कलौजा टामस के अनुसार दरिद्र देशों की अपेक्षा सम्पन्न देशों में यह प्रवृत्ति अधिक पनपी है, इसका कारण उनका खिन्न मानस एवं असन्तोष भरा जीवन स्तर है। मूर्ख, अपढ़, अज्ञानी या विपत्तिग्रस्त लोग ही आत्म-हत्या करते हों, सो बात नहीं। मानसिक विक्षोभ जब शिर पर सवार होता है तो बुद्धिमान समझे जाने वाले और करोड़ों से अधिक सुविधा सम्पन्न जीवन जीने वाले भी उस कुकृत्य को करने के लिए उतारू हो जाते हैं।
विद्वान गेटे आत्म-हत्या करना चाहता था इसके लिए वह एक बढ़िया सा चाकू खरीद कर लाया और बहुत दिन तक उसे तकिये के नीचे खुला रखकर सोता रहा ताकि किसी दिन हिम्मत जुटा सके तो अपना काम तमाम करले, पर बहुत दिन बीत जाने पर भी उससे वैसा बन नहीं पड़ा। अन्ततः उस चाकू को उसने ऐसे ही फेंक दिया। वायरन जिन दिनों चाइल्ड हैराल्ड के लेखन में व्यस्त थे उन दिनों उन पर आत्म-हत्या की सनक बहुत तेज थी, पर उन्हें अपनी सास का दुलार याद आता रहा और वे अपने निर्णय से मुकर गये।
यूनान के महान् दार्शनिक डायोजिनीस अपने हाथों फांसी लगाकर मरे थे। चीनी साहित्यकार ‘लाओसे’ भी अपनी मौत स्वयं बुलाकर लाये थे।
भावुक बुद्धिजीवी अक्सर इस प्रकार के दुस्साहस पूर्ण कार्य कर बैठते हैं। ‘मृच्छ कटिक’ के लेखक शूद्रक आग में जल मरे थे। ‘जानकी हरण’ महाकाव्य का लेखक सिंहल का राजा कुमारदास कालिदास की मृत्यु का शोक न सहकर चिता में जल गया था। लैटिन कवि एम्पेदोक्लीज ने ज्वालामुखी में कूदकर आत्मघात किया था। लुकेशियस ने अपनी मृत्यु को अमर बनाने की दृष्टि से यह दुस्साहस किया। महाकवि चैटरटन ने दरिद्रता से पीछा छुड़ाने के लिए विष पीना उपयुक्त समझा। गोर्की ने अपनी सारी पूंजी खर्च करके पिस्तौल खरीदी और फिर उसी की गोली से अपने पेट को विदीर्ण कर डाला। यहूदी साहित्यकार स्टोफेनज्विग ने अपने अपघात का कारण बताते हुए पुर्जा छोड़ा—‘‘अब संघर्षों से टकराने की मेरी शक्ति चुक गई है। अशक्त जीवन का अन्तर कर लेना मुझे अधिक अच्छा जंचा।’’
चित्रकार लाडत्रे ने अस्पताल की चारपाई पर ही अपने पेट में गोली मार ली। पास की चारपाई पर पड़े मरीज ने हड़बड़ा कर कारण पूछा तो उसने इतना ही उत्तर दिया—‘‘कुछ नहीं, जरा यों ही निशाना अजमा रहा था।’’ एक दूसरा चित्रकार बानगॉग भी इसी प्रकार अपने ऊपर गोली दाग कर मरा। लोग दौड़कर आये और ‘यह सब क्या हुआ’—पूछा तो उसने पाइप से धुएं का आखिरी कश छोड़ते हुए कहा—‘‘जरा चिड़ियों का शिकार कर रहा था।’’
आत्म-हत्या का प्रयास करने वाले सदा कृतकार्य ही नहीं हो जाते बहुत करके वे बच भी जाते हैं। राबर्ट क्लाइव ने अपने जीवन में तीन बार आत्म-हत्या का प्रयत्न किया, पर पिस्तौल की गोली ठीक निशाने पर लगी ही नहीं।
बुद्धिमान कहे जाने वालों में से कितने ही मूर्धन्य व्यक्ति ऐसे हुए हैं जिनने तनिक-सी परेशानी से उद्विग्न होकर आत्म-हत्या करली। ऐसे लोगों में सेफो, डेमोस्थनीज ब्रूटस्, केसियस, क्लाइव, डेमोक्लीज, हनीवाल, बर्टन जैसे लोगों के नाम सर्वविदित हैं।
मनःशास्त्री राबिन्स का अध्ययन निष्कर्ष यह होता है कि आत्म-हत्या की चेष्टा में सफल और असफल लोगों में अधिकांश का मानसिक ढांचा अवास्तविकताओं से जकड़ा हुआ पाया गया। वे जिन्दगी के बारे में असामान्य ढंग से सोचते रहे—समस्याओं का असामान्य मूल्यांकन करते रहे और सर्वविदित सीधे-सीधे निष्कर्षों को अपनाने में असफल रहे। उनकी मानसिक विकृतियों ने ही उनके लिए मकड़ा बनकर ताना-बाना बुना और उस अपने ही जाल में उलझ कर वे बेमौत मर गये।
आत्म-हत्या के अनेक तरीके अपनाये जाते रहे हैं। पानी में डूबना, ऊंचे स्थान से नीचे गिरना, विष खाना, फांसी लगाना और आत्मदाह करना इन उपायों में अधिक प्रचलित है। एक दुःख को हलका करने के लिए दूसरा उससे बड़ा दुःख मोल लेना भी एक उपाय सोचा जाता रहा है यद्यपि वह इच्छित लाभ प्राप्त करने में तनिक भी सहायक नहीं होता। अताई इलाज में एक उपचार यह भी था कि किसी के पेट में दर्द हो तो लोहे की गरम सलाख से उसकी छाती दाग दी जाय उससे जलने का कष्ट इतना बड़ा होता है कि रोगी पेट के दर्द की बात भूल जाता है। लगभग इसी स्तर का दुस्साहस यह है कि अमुक चिन्ता अथवा आपत्ति से छुटकारा पाने के लिए आत्म-हत्या जैसी बड़ी आपत्ति को अपना लिया जाय।
जिस प्रकार शरीर में अनेक प्रकार के विकृत विषाणु प्रवेश करके विविध चिह्न लक्षणों वाले रोग उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार मनःक्षेत्र में कई तरह की विकृतियां अपनी जड़ जमा लेती हैं और परिपूर्व उन्माद न सही उससे मिलते-जुलते—उतने ही विघातक भयानक वह मानसिक रोग उत्पन्न करती हैं।
डिमेंशिया प्रिकोक्स अर्थात् किशोरावस्था की हिंसात्मक सनक—डिमेंशिकया पैरालिटिका अर्थात् आवेश का सामयिक दौरा—मैलन कोलिया अर्थात् विषद रोग—न्यूरस्थेनिया अर्थात् स्नायुविक असन्तुलन जैसी कितनी ही विकृत मनःस्थितियां ऐसी हैं, जो विवेक को अस्त-व्यस्त करके रख देती हैं और समयानुसार जो भी उभारता आता है उसी में मस्तिष्क इतनी तीव्र गति से बहता चला जाता है, जिसमें अपने को संभाल सकना कठिन पड़ता है।
आवश्यक नहीं कि ऐसे लोगों के लिए उत्तेजना का कोई वास्तविक या बड़ा कारण हो तभी वे आवेश ग्रस्त हों—तनिक-सी मामूली घटना उन्हें उद्विग्न एवं विक्षिप्त बना देने के लिए पर्याप्त होती है। जरा-सी बात पर वे आग-बबूले की तरह आवेशग्रस्त हो सकते हैं क्या करना चाहिए क्या नहीं—क्या कहना चाहिए क्या नहीं—क्या सोचना चाहिए क्या नहीं कि विवेचना करना उनसे नहीं बन पड़ता। अन्धड़ चक्रवात की तरह जो भी प्रवाह जिस जिस भी दिशा में चल पड़ा बस चलता ही चला जाता है। इन उभारों में अक्सर विगठनात्मक, हिंसात्मक, निषेधात्मक—तोड़-फोड़ परक होते हैं, वह जब हाथ में रहा ही नहीं तो फिर उचित-अनुचित का भेद कौन करे?
जितने लोग आत्मघात से मरते हैं उससे दस गुने लोग वैसा करने की बात सोचते रहते हैं, पर साहस के अभाव में वैसा कर नहीं पाते। कुछ लोग न तो करते हैं और न करने का उनका इरादा ही होता है मात्र सम्बन्धियों को डरा-धमकाकर अपना उल्लू-सीधा करने के लिए उस तरह की बकवास करते रहते हैं।
फ्रांसीसी समाज विज्ञानी एमाइल दुर्खीम के अनुसार बच्चे कदाचित ही आत्म-हत्या करते हैं। किशोरों में भी यह प्रवृत्ति कम ही पाई जाती है। उम्र के साथ-साथ यह मनोविकार बढ़ता है। प्रणय, परीक्षा, मानहानि और व्यापार में असफल युवक अक्सर ऐसा दुस्साहस कर बैठते हैं। बूढ़े सबसे ज्यादा आत्मघात करते हैं। वे जिन्दगी से ऊबे, थके और निराश होते हैं। अस्तु किसी भी छोटे कारण से विषादग्रस्त होकर अपनी जान गंवा देते हैं। उन्हें अपने चारों ओर अंधेरा बिखरा दीखता है, जिससे डर कर वे जिस एक अंधेरे कोने में जा घुसते हैं उसी का नाम आत्म-हत्या है।
कोई व्यक्ति आत्म-हत्या नहीं करते हैं तो भी वे जिस तरह क्षुब्ध और निराश हुए रहते हैं वह स्थिति आत्म-हत्या से बुरी यन्त्रणा देती रहती है। इस स्थिति के दुष्परिणाम, स्वास्थ नाश, रोग बीमारी, परेशानी, उद्विग्नता तथा अन्यान्य विकृतियां उत्पन्न कर जीवन को बर्बाद कर डालते हैं।
विक्षोभ कारण व परिणाम
कई शारीरिक रोग भी मानसिक विक्षोभ के कारण उत्पन्न होते हैं। यों तो विजातीय द्रव्य, विषाणु जलवायु का प्रदूषण, घटिया आहार ऋतु प्रभाव, असंयम, दुर्घटना जैसे कारण शरीर को रुग्ण बनाने के लिए उत्तरदायी ठहराये जाते रहे हैं। उन्हीं को दूर करने के लिए उपाय नीचे नीचे दिए गये हैं तथा उत्पन्न बीमारियों से निपटने के लिये चिकित्सा परक प्रयत्न हुए हैं। स्वास्थ्य समस्या के सन्दर्भ में एक नया तथ्य सामने यह आया है कि मस्तिष्कीय तनाव आरोग्य नष्ट करने का सबसे बड़ा कारण है। नवीनतम शोधों ने अपना निष्कर्ष यह प्रस्तुत किया है कि यदि मनःसंस्थान उत्तेजित आवेशग्रस्त एवं अस्त-व्यस्त रहे तो फिर स्वास्थ्य रक्षा के सारे साधन व्यर्थ हो जायेंगे और अन्य कोई कारण न होने पर भी शरीर के भीतरी अवयव अपना काम ठीक तरह पूरा न कर सकेंगे। फलतः दुर्बलता और रुग्णता अकारण ही बढ़ती चली जायगी।
सुपाच्य वस्तुओं से पोषण के साधन बनते हैं; पर यदि पाचन तन्त्र ही गड़बड़ा जाय, पाचक रसों की मात्रा न्यूनाधिक हो जाये, स्नायु संस्थान लड़खड़ाने लगे, हारमोन ग्रन्थियां कुछ का कुछ टपकाने लगें तो यकृत, वृक्क, आंतें, हृदय, फुफ्फुस जैसे महत्वपूर्ण अवयव अपनी ड्यूटी ठीक तरह पूरी न कर सकेंगे। फलतः रस, रक्त, मांस, अस्थि का निर्माण घटिया स्तर का होगा, उनमें विषाक्तता घुली रहेगी और स्वास्थ्य संकट उत्पन्न होगा।
शरीर पर पूरी तरह नियन्त्रण करने वाला एक ही अवयव है—मस्तिष्क। शक्ति का स्रोत यही है। पिछले दिनों हृदय को सर्वोपरि माना जाता था। अब उसकी प्रमुखता अस्वीकार कर दी गई है और प्रमुख के पद पर मस्तिष्क को आसीन कर दिया गया है। अब डॉक्टर लोग हृदय की धड़कन बन्द होने पर किसी को मृत घोषित नहीं करते वरन् यह देखते हैं कि मस्तिष्कीय विद्युत प्रवाह चल रहा है या नहीं। मस्तिष्क जीवित हो तो हृदय की धड़कन को उपचारों के सहारे पुनः गतिशील किया जा सकता है। कितने ही मृतकों के श्मशान से वापिस लौट आने एवं कब्र से निकल कर पुनर्जीवित होने के जो समाचार मिलते रहते हैं उन सब के पीछे एक ही बात पाई गई है कि लोगों ने नाड़ी चलना, हृदय धड़कना, सांस रुकना देखकर मृत्यु मान ली, यह नहीं जाना जा सका कि मस्तिष्क के किसी कोष्टक में चेतना तो विद्यमान नहीं है। समाधि लगाने वाले लोग मृतक अथवा अर्धमृतक स्थिति में महीनों पड़े रहते हैं। उस अवधि में हृदय की धड़कन नाम मात्र को रह जाती है। उतने भर से शरीर यात्रा का चल सकना विस्मयजनक माना जा सकता है; पर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है कि मस्तिष्क जीवित रहने की स्थिति में अपने ही संकल्प बल से शरीर को अर्धमृतक बना लेकर पुनर्जीवित कर देने तक के सारे क्रिया-कलाप सम्भव हो सकते हैं। इच्छा शक्ति के चमत्कार संकल्प-बल के जादू विभिन्न क्षेत्रों में आश्चर्यचकित करने वाले प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। जीवन के उत्थान पतन में शरीर का अन्य कोई अवयव उतनी बड़ी भूमिका नहीं निभाता जितना कि मस्तिष्क। दीर्घजीवन से लेकर प्रतिभावान बनने तक की समस्त विकासोन्मुख प्रक्रियाओं के पीछे मानसिक शक्तियों के ही कौतूहल दृष्टिगोचर होते हैं।
मस्तिष्क ठीक काम करे तो शरीर की विपन्न परिस्थितियों में भी मनुष्य बढ़े-चढ़े काम करता रह सकता है। आद्य शंकराचार्य को लम्बे समय तक भयंकर फोड़े से पीड़ित रहना पड़ा पर वे उसी स्थिति को सहन करते हुए थोड़ी सी आयु में इतना काम कर सके जितना कि सौ वर्ष रहने वाले दस मनुष्य मिलकर भी काम नहीं कर सकते। यह मानसिक स्थिरता और प्रखरता का चमत्कार था। जो शरीर की रुग्णता को तुच्छ मानते हुए भी अति महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करा सकने में समर्थ हो सका। संसार के इतिहास में ऐसे अगणित उदाहरण विद्यमान हैं जिनसे स्पष्ट है कि अष्टावक्र, सूरदास जैसे शारीरिक दृष्टि से अक्षम किन्तु मानसिक दृष्टि से समर्थ व्यक्तियों ने आश्चर्यजनक पुरुषार्थ प्रस्तुत किये हैं। इसके विपरीत ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ ही नहीं साधनों की दृष्टि से सम्पन्न होते हुए भी गया गुजरा, हेय एवं निरर्थक जीवन जीते हुए किसी प्रकार मौत के दिन पूरे कर सके।
उस मस्तिष्कीय विकृति का प्रत्यक्ष चिन्ह है तनाव। देखा जाता है कि कितने ही व्यक्ति बाहर से सामान्य कार्य करते दीखने पर भी भीतर ही भीतर उद्विग्न पाये जाते हैं। खिन्न, उदास, चिन्तित, निराश, भयभीत, कातर, शोकाकुल, रोते, कलपते, लोग अपना विक्षिप्तों की तरह अस्त-व्यस्त काम करते हैं। लंघन से उठे रोगी की तरह उनकी क्रिया-शक्ति अति न्यून होती है। तनिक सा श्रम करते ही थकान चढ़ दौड़ती है। कई व्यक्ति भीतर ही भीतर आवेशों से ग्रसित पाये जाते हैं। खीज, झूंझल, क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या की आग में जलते हैं और अपने कल्पित शत्रुओं से प्रतिशोध लेने, बर्बाद करने, नीचा दिखाने के कुचक्र रचते रहते हैं। बन पड़ता है तो दूसरे को हानि पहुंचाने वाले आक्रमण करते या प्रपंच रचते हैं। उतना न बन पड़ा तो आत्म-हत्या, गृह त्याग जैसे आत्म घात पर उतारू होते हैं। यह विक्षिप्त एवं उद्विग्न मनःस्थिति के लक्षण हैं। यों पूर्ण विक्षिप्त तो असामाजिक और व्यवहार की दृष्टि से अव्यवस्थित हो जाते हैं; पर अर्ध विक्षिप्तों की दशा उनसे कुछ बहुत अच्छी नहीं होती। अक्सर इतना ही होता है कि विक्षिप्तों का अटपटापन देखते ही प्रकट हो जाता है किन्तु उद्विग्नों की उपहासास्पद मनोस्थिति का पता निकट सम्पर्क में रहने के उपरान्त चलता है। वे खाते, बोलते, करते, धरते, सोते, जागते तो सामान्य मनुष्यों की तरह ही हैं, पर आन्तरिक खोखलापन ऐसी विचित्र स्थिति में डाले रहता है कि जिस काम में हाथ डालें उसी में असफलता हाथ लगे। लगातार सम्पर्क में आने वाले को इस अर्ध विक्षिप्त स्थिति का आभास मिलता रहता है; पर इतना न्याय वे भी नहीं कर पाते कि मानसिक रोगी मानकर उनसे सहृदयता एवं उदारता बरतें। होता उलटा है इस विपन्नता को अवज्ञा, उद्दंडता आदि गिन लिया जाता है और फिर विरोध विग्रह खड़ा करके क्षति पहुंचाने का प्रयास होने लगता है। इस प्रकार आंतरिक अशान्ति बाहर से असफलताओं और दुर्व्यवहारों की दुहरी विपत्ति सिर पर ला पटकती है। फलतः विपन्नता की आग में ईंधन पड़ता जाता है और खीझ घुटन की अपेक्षा बढ़ती ही जाती है।
मस्तिष्क पर ज्वर आने, चोट लगने, अपच रहने जैसे कारणों से भी सिर दर्द जैसी स्थिति हो सकती है। कोई आकस्मिक विपत्ति एवं तिलमिला देने वाली घटना भी मस्तिष्क को उत्तेजित करके तनाव, अनिद्रा, सिर दर्द जैसे कष्ट खड़े कर सकती है। यह सामयिक कारण हैं जो आते और चले जाते हैं। यों बारह घण्टे बुखार और एक घण्टा उद्वेग की क्षति समान मानी गई है अस्तु सामयिक आवेश असन्तुलन भी कम क्षति नहीं पहुंचाते उनकी प्रतिक्रिया भी विघातक ही होती है। उथले अधीर व्यक्ति ही छोटे कारणों पर अत्यधिक उत्तेजित होते हैं। गम्भीर धैर्यवान व्यक्ति बड़ी कठिनाइयों को भी छोटी मानते हैं और उद्विग्न होने के स्थान पर समाधान सोचने में लगते हैं। सार्थक काम सामने होने पर निरर्थक जंजालों से स्वयं ही मन हट जाता है। प्रस्तुत समस्या का हल खोजने की मानसिक सन्तुलन की अनिवार्य आवश्यकता स्वीकार की जाय तो फिर विषम परिस्थितियों में विशेष रूप से सतर्कता बरतनी पड़ेगी और उस दूरदर्शिता का परिचय देना पड़ेगा, जिसके सहारे विवेकवान व्यक्ति घोट संकट के समय स्थिर चित्त दिखाई पड़ते हैं।
मस्तिष्क में सीमित तापमान सह सकने की सामर्थ्य है। उद्विग्नता की आग इतनी तीखी होती है कि कपाल के भीतर भरी हुई मज्जा उससे कढ़ाव में उबलते तेल की तरह खौलने लगती है। इसी असह्य तापमान को मानसिक तनाव के रूप में देखा जा सकता है। तनाव के लक्षण सर्वविदित हैं—सिर भारी रहना, चकराना, जी उचटना, किसी काम में मन न लगना, पदार्थों से रुचि हट जाना, किसी से सघन आत्मीयता की अनुभूति न होना, उदासी छाई रहना, खोपड़ी चटकने, सिर के भीतर की नसें फटने जैसा लगना, नींद अल्प और अधूरी आना, स्वभाव में चिड़चिड़ापन बढ़ जाना, लक्षणों को देखकर जाना जा सकता है कि तनाव की व्यथा ने मनःक्षेत्र को आच्छादित कर लिया। मोटे तौर पर इसे सिर दर्द जैसी स्थानीय व्यथा के समतुल्य माना जा सकता है; पर बात ऐसी है नहीं। तनाव का कारण जटिल है। विकृत चिन्तन जब सारे मानसिक संस्थान को आंधी-तूफान की तरह तोड़-मरोड़कर रख देने जितना प्रचण्ड होता है तो ही उससे तनाव उत्पन्न होता है। सामान्य स्थिति में तो औंधे-सीधे विचार आते-जाते रहते हैं। उनका प्रभाव न गहरा ही होता है और न स्थायी।
मानसिक तनाव का समूचे शरीर पर प्रभाव पड़ता है और अन्य कारण न होने पर भी मात्र अकेले इसी विग्रह के कारण शरीर के भीतरी और बाहरी अवयव अपनी स्वाभाविक क्रियाशीलता गंवाते चले जाते हैं। घड़ी के पुर्जों की तरह शरीर के अवयवों का पारस्परिक सहयोग एवं तालमेल ही जीवन रथ को अग्रगामी बनाता है। एक पुर्जा गड़बड़ी फैलाने लगे तो सारी मशीन का सन्तुलन बिगड़ जाता है और बढ़िया भी अपना काम ठीक तरह कर सकने में असमर्थ हो जाती है। तनाव यों सामान्य रोग दीखता है; पर उसकी जड़ें मस्तिष्क रूपी जीवन संचार केन्द्र में धुस जाती हैं इसलिए वहां की विकृति हर कल पुर्जे को प्रभावित करती है। फलतः चिकित्सक कोई कारण ढूंढ़ नहीं पाते-निदान में कोई प्रत्यक्ष संकट दृष्टिगोचर नहीं होता फिर भी शरीर गलता ही जाता है। दुर्बलता बढ़ती और बढ़ती ही चली जाती है। साथ ही चित्र-विचित्र रोगों की आये दिन फुलझड़ियां अपने-अपने कौतूहल दिखाती हुई सामने आती रहती है।
तनाव और उसके कारण
हमारे तनाव तीन तरह के होते हैं—शारीरिक (मैक्युलर) मानसिक (मेन्टल) और भावनात्मक (इमोशनल)। इन्हें ही आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक ताप कहते हैं। दीर्घकाल तक लगातार एक ही प्रकार का और अत्यधिक श्रम करने से ‘मस्क्यूलर टेन्शन’ होता है। इसके मुख्य कारण हैं-(1) अनिच्छापूर्वक काम करना (2) मैं परिश्रम कर रहा हूं। (या कर रही हूं), यह भावना होना। यदि मनुष्य ‘श्रम’ की यह भावना इस रूप में कि मैंने बहुत श्रम किया, भूल जाए, तो वह तीन घन्टे का विश्राम तथा एक या दो बार भोजन कर लगातार 20 घण्टे से अधिक काम कर सकता है।
‘‘मस्क्यूलर टेन्शन’’—अधिक सोने, दिन चढ़े तक सोते रहने, अधिक खाने और व्यायाम नहीं करने से भी होता है। तामसिक भोजन भी तनाव ले आता है।
‘मस्क्यूलर टेन्शन’ दूर करने का सरल तरीका योगासन है। मनुष्य काम करते-करते जब थक जाता है, तो अंगड़ाई लेता है। लिखते-लिखते हाथ दुःखने लगें, तो हाथ को झटकारता है, विपरीत स्थिति लेता है। एक काम को छोड़कर दूसरा काम करता है—मन बहलाने का प्रयास करता है, पर मनोविनोद के प्रचलित साधनों से वस्तुतः न तो ‘मस्क्यूलर टेन्शन’ दूर होते न ‘मेन्टल’ और न ‘इमोशनल’।
‘मेन्टल टेन्शन्स’ बहुत अधिक सोचने से होता है। सोचना सिर्फ वही चाहिए, जिस विषय में सोचना जरूरी हो। परन्तु प्रायः सभी मनुष्य काम की बातें बहुत ही कम तथा बेकार ऊल-जलूल या कि जिनसे वर्तमान का कोई सम्बन्ध नहीं ऐसी बातें बहुत अधिक सोचते रहते हैं। पिछली बातों और घटनाओं पर हम बहुत अधिक सोचते रहते हैं। किसी से लड़ाई हो गई, किसी ने गाली दे दी, कोई दुर्घटना हो गई कि बस, सोचना चालू। यह सोचना सर्वतः व्यर्थ होता है। सोचने से मानसिक तनाव पैदा होता है। अत्यधिक मानसिक तनाव बढ़ जाने पर ‘मेन्टन रिटार्डेशन’ (मस्तिष्कीय शक्ति का सुन्न-सा हो जाना) होता है। इन दिनों दुनिया में ‘‘मेन्टल रिटार्डेशन’’ के लाखों मामले प्रकाश में आ रहे हैं। शारीरिक तनाव रात्रि-विश्राम से दूर भी हो जाते हैं, पर मानसिक तनाव तो नींद में भी बने रहते हैं, ट्रैक्विलाइजर लेने से वे समाप्त नहीं होते। इनके लगातार बने रहने पर ‘डिग्रेशन’ आता है। ‘डिग्रेशन’ को दूर करने के लिए लोग सुरा-सुन्दरी की शरण में जाते हैं।
मानसिक तनाव बढ़ जाने पर शिराएं फटने-सी लगती हैं। आंखें कमजोर हो जाती हैं। कब्ज रहती है। डकारें आती हैं। धूम्रपान की इच्छा होती है चाय की याद आती है। शारीरिक व मानसिक तनाव मिलकर काम व क्रोध के आवेग बार-बार पैदा करते हैं।
तीसरा है भावनाओं का तनाव। मनुष्य निरन्तर भावनाओं के थपेड़े खाते रहते हैं। भावनायें बहुधा यथार्थ पर आधारित नहीं होती। किन्तु मनुष्य उनसे अत्यधिक आसक्ति रखते हैं, उन्हीं से चिपटे रहते हैं। भावनाओं पर चोट लगती है तो तीखी प्रतिक्रिया होती है, जिनसे रोग पैदा होते हैं। ‘इमोशनल टेन्शन्स’, ‘हार्टअटैक’ को जन्म देते हैं। किसी का प्रिय मित्र, पुत्र, पति या पत्नी अथवा रिश्तेदार कल आने वाला है, तो रात भर उसे नींद नहीं आयेगी। एक घण्टे बाद परीक्षाफल घोषित होने वाला है, दिल की धड़कन बहुत बढ़ गई। दूर कहीं प्रवास पर हैं, रात में सहसा घर की याद आ गई है, नींद गायब। यही है भावनात्मक तनाव।
ये भावनात्मक तनाव हमारे अनजाने व्यवहारों में प्रकट होते हैं। कुछ लोग कंधे उचकाते रहते हैं, कुछ पैर हिलाते रहते हैं, कुछ गुनगुनाते रहते हैं, कुछ सीटी बजाते रहते हैं। कोई बार-बार पलकें झपकाते हैं, तो कोई नाक से खूं-खूं की आवाज करते हैं। ये सब भावनात्मक तनाव के परिणाम हैं।
तनावों से नाड़ियों में रक्त, प्रवाह अधिक हो जाता है। इससे ‘हाईपरटेन्शन’ पैदा होता है। समय पर तनावों पर नियन्त्रण नहीं किया गया या अधिक तनाव के कारण दूर नहीं किये गये, तो ब्लड-प्रेशर एवं पैरालिसिस हो जाते हैं।
बीमारी कभी ‘मस्क्यूलर टेन्शन’ से होती है कभी ‘मेन्टल’ और कभी ‘इमोशनल’ से। कभी तीनों के मिश्रित कारणों से।
थकान से भी क्रोध आता है, चिन्ता से भी। दिमागी उलझन में फंसे व्यक्ति को सिर दर्द, हृदय, पीड़ा, अम्लता, कब्ज आदि तंग करते रहते हैं। जब व्यक्ति अपने को उपेक्षित समझता है और उसकी भावनायें अतृप्त-असंतुष्ट रही आती हैं, तो उसे टी.बी., दमा, आर्थराइटिस, कुष्ठरोग आदि पैदा हो जाते हैं।
तनाव किसी भी क्षेत्र में संव्याप्त क्यों न हो जीवनी शक्ति का अत्यधिक क्षरण करता है। शारीरिक और मानसिक श्रम से भी थकान आती; पर वह उथली रहती है और विश्राम करने एवं बलवर्धक आहार उपचार लेने से इसकी क्षति पूर्ति थोड़े ही समय में हो जाती है। किन्तु भावनात्मक तनाव ऐसे होते हैं जिनकी आधार भित्ति किसी गहरे आघात से सम्बन्धित होती है। ये घाव नासूर बन जाते हैं और समय-समय पर उभरते फूटते रहते हैं। ईर्ष्या, विद्वेष, प्रतिशोध जैसे मनस्ताप किसी भी कारण उत्पन्न हुए हों, अचेतन में जम कर बैठ जाते हैं और पुरानी घटनाओं को याद करके अन्तःक्षेत्र को उद्वेलित करते रहते हैं। किन्हीं असाधारण महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में व्यवधान उत्पन्न हो जाने पर भी ऐसा ही होता है। कल्पित सुनहरी स्वप्नों को आघात लगने तक से मनुष्य टूट जाता है फिर प्रत्यक्ष हानि का तो कहना ही क्या? प्रियजनों का विछोह, अपमान, घाटा अपयश आदि के घाव भी गहरे होते हैं और समय के साथ-साथ वे झीने पुराने भी होते जाते हैं—पर पूर्णतया समाप्त तब तक नहीं होते जब तक कि उन्हें प्रतिरोध के तीव्र विचारों से प्रयत्नपूर्वक काटा न जाय।
तनावजन्य दुष्परिणामों को जितना विघातक माना जाय कम है। उसके कारण उस जीवनी शक्ति का भण्डार बेतरह समाप्त होता है; जिसके ऊपर शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक सन्तुलन और आन्तरिक आनन्द निर्भर रहता है। तेल चुक जाने पर, दीपक को मात्र रुई बत्ती आदि के सहारे ज्वलन्त नहीं रखा जा सकता है। तनाव का सीधा आक्रमण उसी जीवन कोश पर होता है और वह क्षति इतनी तेजी से होती है कि सही ढंग से कुछ सोचने और व्यवस्था पूर्वक कुछ करने की दोनों ही सम्भावनायें अस्त-व्यस्त होती चली जाती हैं। ऐसी विपन्नता में फंसा हुआ व्यक्ति खोखला बन कर रह जाता है। शरीर की बनावट में भले ही अन्तर न आये पर स्थिति अर्धविक्षिप्त जैसी बन जाती है। ऐसे व्यक्ति न केवल स्वयं संतप्त रहते हैं वरन् सम्पर्क वालों को भी अपनी बेतुकेपन पर उद्विग्न किये रहते हैं।
असावधान और दुर्बल मनःस्थिति के व्यक्ति पर छोटे-छोटे कारण भयंकर तनाव उत्पन्न कर सकते हैं। अस्तु कोई प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न न होने पाये यह चाहने की अपेक्षा सोचना यह चाहिए कि हर परिस्थिति में सन्तुलन बनाये रखने की दूर-दर्शिता अपनाई जायगी और प्रतिकूलताओं के साथ खिलाड़ी की भावना से आंख मिचौनी खेली जायगी। ऐसा साहस संजोकर रखा जाय तो फिर कोई भी कठिनाई ऐसी नहीं रह जाती जो प्रयत्नपूर्वक हल अथवा धैर्यपूर्वक सहन न की जा सकती हो। तीन चौथाई कठिनाइयां तो आशंका मात्र होती हैं। भविष्य में अमुक कारण से अथवा अमुक व्यक्ति द्वारा अमुक कठिनाई उत्पन्न की जा सकती है, कोई दैवी विपत्ति आ सकती है या दुर्घटना घटित हो सकती है। ऐसा सोच-सोचकर ही कितनेक व्यक्ति अधमरे होते रहते हैं जबकि वस्तुतः वह काल्पनिक कठिनाई कभी भी सामने नहीं आता।
तनाव और विक्षोभ जैसी विकृतियों के दुष्परिणाम भुगतने के बाद भी कई व्यक्ति इन मनोरोगों को स्वयमेव बुलाते हैं, अन्यथा कोई कारण नहीं है कि इतने भयंकर मनोरोगों से बचने का कोई उपाय न किया जाय। वस्तुतः तनाव ग्रस्त बने रहने और मनःस्थिति को विक्षुब्ध बनाये रखने की आदत बचकाने दृष्टिकोण की प्रतिक्रिया है। यदि जिन्दगी को एक मनोरंजक खेल माना भर जाय और उसमें आते रहने वाली अनुकूलता, प्रतिकूलताओं की आंख-मिचौनी को एक खिलवाड़ भर माना जाय तो कोई भी अप्रिय घटना बहुत भारी प्रतीत न होगी और उतार-चढ़ावों को कौतूहल मात्र अनुभव किया जा सकेगा। इसके विपरीत यदि डरपोक अधीर प्रकृति होगी, छोटी कठिनाई को बढ़ा-चढ़ा कर सोचेंगे और उसी से भयभीत होकर पैरों पर कुल्हाड़ी ही नहीं मस्तिष्क को चूरा कर देने वाली हथौड़ी मारेंगे।
बात को बढ़ाकर सोचना ही यदि सुखद लगता हो तो दसों दिशाओं में बिखरे हुए प्राकृतिक सौन्दर्य को, इस संसार की कलात्मक संरचना को, मानव जीवन के साथ जुड़ी हुई अगणित विभूतियों को, समाज की सुव्यवस्थित संरचना को, सहयोग एवं सद्भाव के आधार पर मिलने वाले अनुदानों को, अब तक मिली सफलताओं को, उज्ज्वल भविष्य की आशा सम्भावनाओं को, विपत्तियों के ग्रहण की अस्थिरता को विचारा जाना चाहिए और उनके चित्र जितने बढ़ा-चढ़ाकर देखे जा सकते हों देखने चाहिए। हर मनुष्य के सामने कुछ अनुकूलताएं रहती हैं कुछ प्रतिकूलताएं। निश्चय ही उनमें प्रिय अधिक और अप्रिय कम होती हैं। अन्धकार से प्रकाश की सत्ता बढ़ी-चढ़ी है। असफलताओं की तुलना में सफलताओं की गणना अधिक है। शत्रुओं से मित्रों की संख्या कई गुनी होती है। अपनी स्थिति लाखों से बुरी है तो करोड़ों से अच्छी है। यदि इस प्रकार सोचा जा सके तो मस्तिष्क को उत्तेजित करके कष्टकारक तनाव की स्थिति से सहज ही छुटकारा पाया जा सकता है। यदि परिष्कृत दृष्टिकोण विकसित किया जा सके तो तथाकथित प्रतिकूलताएं उपेक्षणीय लगें और उनका खट्टा-मिट्ठा स्वाद लेते हुए सन्तुलन को यथावत बनाये रखा जा सके।
तनाव दूर होने का एक उपाय तो यह है कि मनोवांछित परिस्थितियां बनी रहें। कल्पवृक्ष आंगन में लगा हो और जो चाहा जाय वही तत्काल उपस्थित होता रहे। संसार के सभी प्राणी अपने वशवर्ती और अनुचर रहें। स्वर्ग जैसे किसी तथाकथित लोक में निवास रहे और सर्वत्र अनुकूलता पाई जाय। यदि यह दिवास्वप्न सम्भव न दीखते हो और विश्व रचना में अंधेरे-उजाले का पेंडुलम हिलना कटु सत्य समझ में आता हो तो फिर एक ही उपाय है कि हम प्रतिकूलताओं से डरें नहीं वरन् उन्हें विनोद के लिए आवश्यक उतार-चढ़ाव स्वीकार कर लें। ताल-मेल बिठाकर चलने वाली समझौतावादी नीति ही व्यावहारिक है। प्रतिकूलताएं भी अनुकूलताओं की तरह श्वास, प्रश्वास क्रम की तरह बनी ही रहने वाली हैं यदि यह मान लिया जाय तो जूझना, सहना और हंसना इन तीनों की समन्वित रीति-नीति अपनानी पड़ेगी।
तनाव परिस्थितिवश भी हो सकता है, पर उस स्थिति में वह अस्थायी रहता है और समय प्रवाह में वह बहता हुआ अन्यत्र चला जाता है। दृष्टिकोण की विकृति ही चिरस्थायी तनाव उत्पन्न करती है और उसी से जीवन का वरदान एक अभिशाप के रूप में परिणत होता है। अध्यात्म तत्व-दर्शन यदि हृदयंगम किया जा सके तो न केवल तनाव जैसी व्यथा से वरन् अन्यान्य आपदाओं से बचते हुए सन्तोष, आनन्द एवं उल्लास के साथ अभावग्रस्त विपन्न समझा जाने वाला कुसमय; सुखद सौभाग्य में सहज ही परिणत हो सकता है।
इसके उपरान्त भी कई बार जीवन जैसी बहुमूल्य सम्पदा को अपने हाथों नष्ट किये जाते देखा गया है। सर्वाधिक प्रिय जीवन सम्पदा जिस कारणों से निरर्थक व असह्य बनती जाती है वह कारण है मानसिक विक्षोभ। देखने में यही प्रतीत होता है कि अमुक घटनाओं या परिस्थितियों ने अमुक व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिए विवश कर दिया, पर वास्तविकता कुछ दूसरी ही होती है। इन लोगों को जो स्थिति असह्य प्रतीत हुई और घबराकर यह अवांछनीय कृत्य कर बैठे वह वस्तुतः उतनी अधिक जटिल नहीं थी। उन्हीं परिस्थितियों को असंख्य लोग सहन करते हैं और कुछ तो इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें जीवन का एक सहज स्वाभाविक अंग मानकर सन्तोषपूर्वक दिन गुजारते हैं। यदि वे कठिनाइयां सचमुच ही इतनी असह्य होतीं तो फिर किसी के लिए भी उनमें रहना कितना कठिन होता।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की संग्रहीत जानकारियों के अनुसार प्रत्येक एक लाख में से 34 व्यक्ति आत्म-हत्या करके मरते हैं। संसार के अन्य देशों की तुलना में इस सन्दर्भ में भारत सबसे आगे हैं। अकेली दिल्ली में एक वर्ष की गणना में 325 व्यक्तियों ने आत्म-हत्या की थी जबकि उस वर्ष हत्याएं केवल 60 ही हुईं। यह एक नगर की बात हुई। उसी साल राजस्थान में 873 व्यक्तियों ने आत्म-हत्या की थी। कोई-कोई अधिक सम्पन्न और अधिक विलासी नगर भी इस क्षेत्र में भारत को चुनौती देते हैं।
क्लाड हाटन के अनुसार बीसवीं सदी में जितनी आत्म-हत्याएं हुई हैं उतनी संसार में इससे पूर्व कभी भी नहीं हुईं। अमेरिकी मनःशास्त्री डॉ. विकवेयर इसका कारण आस्तिकता का अभाव मानते हैं और कहते हैं—‘‘आज का आदमी सुखोपभोग के साधन पाने के लिए जितना आतुर है उतना ही मनोवांछित स्थिति न पाने पर अत्यधिक विक्षुब्ध भी हो उठता है और उसी अधीरता भरी निराशा से खीजकर पूरा या अधूरा आत्मघात कर लेता है।’’
संसार भर में हर नये दिन प्रायः एक हजार व्यक्ति आत्म-हत्या द्वारा स्वेच्छा मृत्यु का वरण करते हैं। वर्लिन आत्म-हत्या निरोधक केन्द्र के अध्यक्ष डा. कलौजा टामस के अनुसार दरिद्र देशों की अपेक्षा सम्पन्न देशों में यह प्रवृत्ति अधिक पनपी है, इसका कारण उनका खिन्न मानस एवं असन्तोष भरा जीवन स्तर है। मूर्ख, अपढ़, अज्ञानी या विपत्तिग्रस्त लोग ही आत्म-हत्या करते हों, सो बात नहीं। मानसिक विक्षोभ जब शिर पर सवार होता है तो बुद्धिमान समझे जाने वाले और करोड़ों से अधिक सुविधा सम्पन्न जीवन जीने वाले भी उस कुकृत्य को करने के लिए उतारू हो जाते हैं।
विद्वान गेटे आत्म-हत्या करना चाहता था इसके लिए वह एक बढ़िया सा चाकू खरीद कर लाया और बहुत दिन तक उसे तकिये के नीचे खुला रखकर सोता रहा ताकि किसी दिन हिम्मत जुटा सके तो अपना काम तमाम करले, पर बहुत दिन बीत जाने पर भी उससे वैसा बन नहीं पड़ा। अन्ततः उस चाकू को उसने ऐसे ही फेंक दिया। वायरन जिन दिनों चाइल्ड हैराल्ड के लेखन में व्यस्त थे उन दिनों उन पर आत्म-हत्या की सनक बहुत तेज थी, पर उन्हें अपनी सास का दुलार याद आता रहा और वे अपने निर्णय से मुकर गये।
यूनान के महान् दार्शनिक डायोजिनीस अपने हाथों फांसी लगाकर मरे थे। चीनी साहित्यकार ‘लाओसे’ भी अपनी मौत स्वयं बुलाकर लाये थे।
भावुक बुद्धिजीवी अक्सर इस प्रकार के दुस्साहस पूर्ण कार्य कर बैठते हैं। ‘मृच्छ कटिक’ के लेखक शूद्रक आग में जल मरे थे। ‘जानकी हरण’ महाकाव्य का लेखक सिंहल का राजा कुमारदास कालिदास की मृत्यु का शोक न सहकर चिता में जल गया था। लैटिन कवि एम्पेदोक्लीज ने ज्वालामुखी में कूदकर आत्मघात किया था। लुकेशियस ने अपनी मृत्यु को अमर बनाने की दृष्टि से यह दुस्साहस किया। महाकवि चैटरटन ने दरिद्रता से पीछा छुड़ाने के लिए विष पीना उपयुक्त समझा। गोर्की ने अपनी सारी पूंजी खर्च करके पिस्तौल खरीदी और फिर उसी की गोली से अपने पेट को विदीर्ण कर डाला। यहूदी साहित्यकार स्टोफेनज्विग ने अपने अपघात का कारण बताते हुए पुर्जा छोड़ा—‘‘अब संघर्षों से टकराने की मेरी शक्ति चुक गई है। अशक्त जीवन का अन्तर कर लेना मुझे अधिक अच्छा जंचा।’’
चित्रकार लाडत्रे ने अस्पताल की चारपाई पर ही अपने पेट में गोली मार ली। पास की चारपाई पर पड़े मरीज ने हड़बड़ा कर कारण पूछा तो उसने इतना ही उत्तर दिया—‘‘कुछ नहीं, जरा यों ही निशाना अजमा रहा था।’’ एक दूसरा चित्रकार बानगॉग भी इसी प्रकार अपने ऊपर गोली दाग कर मरा। लोग दौड़कर आये और ‘यह सब क्या हुआ’—पूछा तो उसने पाइप से धुएं का आखिरी कश छोड़ते हुए कहा—‘‘जरा चिड़ियों का शिकार कर रहा था।’’
आत्म-हत्या का प्रयास करने वाले सदा कृतकार्य ही नहीं हो जाते बहुत करके वे बच भी जाते हैं। राबर्ट क्लाइव ने अपने जीवन में तीन बार आत्म-हत्या का प्रयत्न किया, पर पिस्तौल की गोली ठीक निशाने पर लगी ही नहीं।
बुद्धिमान कहे जाने वालों में से कितने ही मूर्धन्य व्यक्ति ऐसे हुए हैं जिनने तनिक-सी परेशानी से उद्विग्न होकर आत्म-हत्या करली। ऐसे लोगों में सेफो, डेमोस्थनीज ब्रूटस्, केसियस, क्लाइव, डेमोक्लीज, हनीवाल, बर्टन जैसे लोगों के नाम सर्वविदित हैं।
मनःशास्त्री राबिन्स का अध्ययन निष्कर्ष यह होता है कि आत्म-हत्या की चेष्टा में सफल और असफल लोगों में अधिकांश का मानसिक ढांचा अवास्तविकताओं से जकड़ा हुआ पाया गया। वे जिन्दगी के बारे में असामान्य ढंग से सोचते रहे—समस्याओं का असामान्य मूल्यांकन करते रहे और सर्वविदित सीधे-सीधे निष्कर्षों को अपनाने में असफल रहे। उनकी मानसिक विकृतियों ने ही उनके लिए मकड़ा बनकर ताना-बाना बुना और उस अपने ही जाल में उलझ कर वे बेमौत मर गये।
आत्म-हत्या के अनेक तरीके अपनाये जाते रहे हैं। पानी में डूबना, ऊंचे स्थान से नीचे गिरना, विष खाना, फांसी लगाना और आत्मदाह करना इन उपायों में अधिक प्रचलित है। एक दुःख को हलका करने के लिए दूसरा उससे बड़ा दुःख मोल लेना भी एक उपाय सोचा जाता रहा है यद्यपि वह इच्छित लाभ प्राप्त करने में तनिक भी सहायक नहीं होता। अताई इलाज में एक उपचार यह भी था कि किसी के पेट में दर्द हो तो लोहे की गरम सलाख से उसकी छाती दाग दी जाय उससे जलने का कष्ट इतना बड़ा होता है कि रोगी पेट के दर्द की बात भूल जाता है। लगभग इसी स्तर का दुस्साहस यह है कि अमुक चिन्ता अथवा आपत्ति से छुटकारा पाने के लिए आत्म-हत्या जैसी बड़ी आपत्ति को अपना लिया जाय।
जिस प्रकार शरीर में अनेक प्रकार के विकृत विषाणु प्रवेश करके विविध चिह्न लक्षणों वाले रोग उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार मनःक्षेत्र में कई तरह की विकृतियां अपनी जड़ जमा लेती हैं और परिपूर्व उन्माद न सही उससे मिलते-जुलते—उतने ही विघातक भयानक वह मानसिक रोग उत्पन्न करती हैं।
डिमेंशिया प्रिकोक्स अर्थात् किशोरावस्था की हिंसात्मक सनक—डिमेंशिकया पैरालिटिका अर्थात् आवेश का सामयिक दौरा—मैलन कोलिया अर्थात् विषद रोग—न्यूरस्थेनिया अर्थात् स्नायुविक असन्तुलन जैसी कितनी ही विकृत मनःस्थितियां ऐसी हैं, जो विवेक को अस्त-व्यस्त करके रख देती हैं और समयानुसार जो भी उभारता आता है उसी में मस्तिष्क इतनी तीव्र गति से बहता चला जाता है, जिसमें अपने को संभाल सकना कठिन पड़ता है।
आवश्यक नहीं कि ऐसे लोगों के लिए उत्तेजना का कोई वास्तविक या बड़ा कारण हो तभी वे आवेश ग्रस्त हों—तनिक-सी मामूली घटना उन्हें उद्विग्न एवं विक्षिप्त बना देने के लिए पर्याप्त होती है। जरा-सी बात पर वे आग-बबूले की तरह आवेशग्रस्त हो सकते हैं क्या करना चाहिए क्या नहीं—क्या कहना चाहिए क्या नहीं—क्या सोचना चाहिए क्या नहीं कि विवेचना करना उनसे नहीं बन पड़ता। अन्धड़ चक्रवात की तरह जो भी प्रवाह जिस जिस भी दिशा में चल पड़ा बस चलता ही चला जाता है। इन उभारों में अक्सर विगठनात्मक, हिंसात्मक, निषेधात्मक—तोड़-फोड़ परक होते हैं, वह जब हाथ में रहा ही नहीं तो फिर उचित-अनुचित का भेद कौन करे?
जितने लोग आत्मघात से मरते हैं उससे दस गुने लोग वैसा करने की बात सोचते रहते हैं, पर साहस के अभाव में वैसा कर नहीं पाते। कुछ लोग न तो करते हैं और न करने का उनका इरादा ही होता है मात्र सम्बन्धियों को डरा-धमकाकर अपना उल्लू-सीधा करने के लिए उस तरह की बकवास करते रहते हैं।
फ्रांसीसी समाज विज्ञानी एमाइल दुर्खीम के अनुसार बच्चे कदाचित ही आत्म-हत्या करते हैं। किशोरों में भी यह प्रवृत्ति कम ही पाई जाती है। उम्र के साथ-साथ यह मनोविकार बढ़ता है। प्रणय, परीक्षा, मानहानि और व्यापार में असफल युवक अक्सर ऐसा दुस्साहस कर बैठते हैं। बूढ़े सबसे ज्यादा आत्मघात करते हैं। वे जिन्दगी से ऊबे, थके और निराश होते हैं। अस्तु किसी भी छोटे कारण से विषादग्रस्त होकर अपनी जान गंवा देते हैं। उन्हें अपने चारों ओर अंधेरा बिखरा दीखता है, जिससे डर कर वे जिस एक अंधेरे कोने में जा घुसते हैं उसी का नाम आत्म-हत्या है।
कोई व्यक्ति आत्म-हत्या नहीं करते हैं तो भी वे जिस तरह क्षुब्ध और निराश हुए रहते हैं वह स्थिति आत्म-हत्या से बुरी यन्त्रणा देती रहती है। इस स्थिति के दुष्परिणाम, स्वास्थ नाश, रोग बीमारी, परेशानी, उद्विग्नता तथा अन्यान्य विकृतियां उत्पन्न कर जीवन को बर्बाद कर डालते हैं।
विक्षोभ कारण व परिणाम
कई शारीरिक रोग भी मानसिक विक्षोभ के कारण उत्पन्न होते हैं। यों तो विजातीय द्रव्य, विषाणु जलवायु का प्रदूषण, घटिया आहार ऋतु प्रभाव, असंयम, दुर्घटना जैसे कारण शरीर को रुग्ण बनाने के लिए उत्तरदायी ठहराये जाते रहे हैं। उन्हीं को दूर करने के लिए उपाय नीचे नीचे दिए गये हैं तथा उत्पन्न बीमारियों से निपटने के लिये चिकित्सा परक प्रयत्न हुए हैं। स्वास्थ्य समस्या के सन्दर्भ में एक नया तथ्य सामने यह आया है कि मस्तिष्कीय तनाव आरोग्य नष्ट करने का सबसे बड़ा कारण है। नवीनतम शोधों ने अपना निष्कर्ष यह प्रस्तुत किया है कि यदि मनःसंस्थान उत्तेजित आवेशग्रस्त एवं अस्त-व्यस्त रहे तो फिर स्वास्थ्य रक्षा के सारे साधन व्यर्थ हो जायेंगे और अन्य कोई कारण न होने पर भी शरीर के भीतरी अवयव अपना काम ठीक तरह पूरा न कर सकेंगे। फलतः दुर्बलता और रुग्णता अकारण ही बढ़ती चली जायगी।
सुपाच्य वस्तुओं से पोषण के साधन बनते हैं; पर यदि पाचन तन्त्र ही गड़बड़ा जाय, पाचक रसों की मात्रा न्यूनाधिक हो जाये, स्नायु संस्थान लड़खड़ाने लगे, हारमोन ग्रन्थियां कुछ का कुछ टपकाने लगें तो यकृत, वृक्क, आंतें, हृदय, फुफ्फुस जैसे महत्वपूर्ण अवयव अपनी ड्यूटी ठीक तरह पूरी न कर सकेंगे। फलतः रस, रक्त, मांस, अस्थि का निर्माण घटिया स्तर का होगा, उनमें विषाक्तता घुली रहेगी और स्वास्थ्य संकट उत्पन्न होगा।
शरीर पर पूरी तरह नियन्त्रण करने वाला एक ही अवयव है—मस्तिष्क। शक्ति का स्रोत यही है। पिछले दिनों हृदय को सर्वोपरि माना जाता था। अब उसकी प्रमुखता अस्वीकार कर दी गई है और प्रमुख के पद पर मस्तिष्क को आसीन कर दिया गया है। अब डॉक्टर लोग हृदय की धड़कन बन्द होने पर किसी को मृत घोषित नहीं करते वरन् यह देखते हैं कि मस्तिष्कीय विद्युत प्रवाह चल रहा है या नहीं। मस्तिष्क जीवित हो तो हृदय की धड़कन को उपचारों के सहारे पुनः गतिशील किया जा सकता है। कितने ही मृतकों के श्मशान से वापिस लौट आने एवं कब्र से निकल कर पुनर्जीवित होने के जो समाचार मिलते रहते हैं उन सब के पीछे एक ही बात पाई गई है कि लोगों ने नाड़ी चलना, हृदय धड़कना, सांस रुकना देखकर मृत्यु मान ली, यह नहीं जाना जा सका कि मस्तिष्क के किसी कोष्टक में चेतना तो विद्यमान नहीं है। समाधि लगाने वाले लोग मृतक अथवा अर्धमृतक स्थिति में महीनों पड़े रहते हैं। उस अवधि में हृदय की धड़कन नाम मात्र को रह जाती है। उतने भर से शरीर यात्रा का चल सकना विस्मयजनक माना जा सकता है; पर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है कि मस्तिष्क जीवित रहने की स्थिति में अपने ही संकल्प बल से शरीर को अर्धमृतक बना लेकर पुनर्जीवित कर देने तक के सारे क्रिया-कलाप सम्भव हो सकते हैं। इच्छा शक्ति के चमत्कार संकल्प-बल के जादू विभिन्न क्षेत्रों में आश्चर्यचकित करने वाले प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। जीवन के उत्थान पतन में शरीर का अन्य कोई अवयव उतनी बड़ी भूमिका नहीं निभाता जितना कि मस्तिष्क। दीर्घजीवन से लेकर प्रतिभावान बनने तक की समस्त विकासोन्मुख प्रक्रियाओं के पीछे मानसिक शक्तियों के ही कौतूहल दृष्टिगोचर होते हैं।
मस्तिष्क ठीक काम करे तो शरीर की विपन्न परिस्थितियों में भी मनुष्य बढ़े-चढ़े काम करता रह सकता है। आद्य शंकराचार्य को लम्बे समय तक भयंकर फोड़े से पीड़ित रहना पड़ा पर वे उसी स्थिति को सहन करते हुए थोड़ी सी आयु में इतना काम कर सके जितना कि सौ वर्ष रहने वाले दस मनुष्य मिलकर भी काम नहीं कर सकते। यह मानसिक स्थिरता और प्रखरता का चमत्कार था। जो शरीर की रुग्णता को तुच्छ मानते हुए भी अति महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करा सकने में समर्थ हो सका। संसार के इतिहास में ऐसे अगणित उदाहरण विद्यमान हैं जिनसे स्पष्ट है कि अष्टावक्र, सूरदास जैसे शारीरिक दृष्टि से अक्षम किन्तु मानसिक दृष्टि से समर्थ व्यक्तियों ने आश्चर्यजनक पुरुषार्थ प्रस्तुत किये हैं। इसके विपरीत ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ ही नहीं साधनों की दृष्टि से सम्पन्न होते हुए भी गया गुजरा, हेय एवं निरर्थक जीवन जीते हुए किसी प्रकार मौत के दिन पूरे कर सके।
उस मस्तिष्कीय विकृति का प्रत्यक्ष चिन्ह है तनाव। देखा जाता है कि कितने ही व्यक्ति बाहर से सामान्य कार्य करते दीखने पर भी भीतर ही भीतर उद्विग्न पाये जाते हैं। खिन्न, उदास, चिन्तित, निराश, भयभीत, कातर, शोकाकुल, रोते, कलपते, लोग अपना विक्षिप्तों की तरह अस्त-व्यस्त काम करते हैं। लंघन से उठे रोगी की तरह उनकी क्रिया-शक्ति अति न्यून होती है। तनिक सा श्रम करते ही थकान चढ़ दौड़ती है। कई व्यक्ति भीतर ही भीतर आवेशों से ग्रसित पाये जाते हैं। खीज, झूंझल, क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या की आग में जलते हैं और अपने कल्पित शत्रुओं से प्रतिशोध लेने, बर्बाद करने, नीचा दिखाने के कुचक्र रचते रहते हैं। बन पड़ता है तो दूसरे को हानि पहुंचाने वाले आक्रमण करते या प्रपंच रचते हैं। उतना न बन पड़ा तो आत्म-हत्या, गृह त्याग जैसे आत्म घात पर उतारू होते हैं। यह विक्षिप्त एवं उद्विग्न मनःस्थिति के लक्षण हैं। यों पूर्ण विक्षिप्त तो असामाजिक और व्यवहार की दृष्टि से अव्यवस्थित हो जाते हैं; पर अर्ध विक्षिप्तों की दशा उनसे कुछ बहुत अच्छी नहीं होती। अक्सर इतना ही होता है कि विक्षिप्तों का अटपटापन देखते ही प्रकट हो जाता है किन्तु उद्विग्नों की उपहासास्पद मनोस्थिति का पता निकट सम्पर्क में रहने के उपरान्त चलता है। वे खाते, बोलते, करते, धरते, सोते, जागते तो सामान्य मनुष्यों की तरह ही हैं, पर आन्तरिक खोखलापन ऐसी विचित्र स्थिति में डाले रहता है कि जिस काम में हाथ डालें उसी में असफलता हाथ लगे। लगातार सम्पर्क में आने वाले को इस अर्ध विक्षिप्त स्थिति का आभास मिलता रहता है; पर इतना न्याय वे भी नहीं कर पाते कि मानसिक रोगी मानकर उनसे सहृदयता एवं उदारता बरतें। होता उलटा है इस विपन्नता को अवज्ञा, उद्दंडता आदि गिन लिया जाता है और फिर विरोध विग्रह खड़ा करके क्षति पहुंचाने का प्रयास होने लगता है। इस प्रकार आंतरिक अशान्ति बाहर से असफलताओं और दुर्व्यवहारों की दुहरी विपत्ति सिर पर ला पटकती है। फलतः विपन्नता की आग में ईंधन पड़ता जाता है और खीझ घुटन की अपेक्षा बढ़ती ही जाती है।
मस्तिष्क पर ज्वर आने, चोट लगने, अपच रहने जैसे कारणों से भी सिर दर्द जैसी स्थिति हो सकती है। कोई आकस्मिक विपत्ति एवं तिलमिला देने वाली घटना भी मस्तिष्क को उत्तेजित करके तनाव, अनिद्रा, सिर दर्द जैसे कष्ट खड़े कर सकती है। यह सामयिक कारण हैं जो आते और चले जाते हैं। यों बारह घण्टे बुखार और एक घण्टा उद्वेग की क्षति समान मानी गई है अस्तु सामयिक आवेश असन्तुलन भी कम क्षति नहीं पहुंचाते उनकी प्रतिक्रिया भी विघातक ही होती है। उथले अधीर व्यक्ति ही छोटे कारणों पर अत्यधिक उत्तेजित होते हैं। गम्भीर धैर्यवान व्यक्ति बड़ी कठिनाइयों को भी छोटी मानते हैं और उद्विग्न होने के स्थान पर समाधान सोचने में लगते हैं। सार्थक काम सामने होने पर निरर्थक जंजालों से स्वयं ही मन हट जाता है। प्रस्तुत समस्या का हल खोजने की मानसिक सन्तुलन की अनिवार्य आवश्यकता स्वीकार की जाय तो फिर विषम परिस्थितियों में विशेष रूप से सतर्कता बरतनी पड़ेगी और उस दूरदर्शिता का परिचय देना पड़ेगा, जिसके सहारे विवेकवान व्यक्ति घोट संकट के समय स्थिर चित्त दिखाई पड़ते हैं।
मस्तिष्क में सीमित तापमान सह सकने की सामर्थ्य है। उद्विग्नता की आग इतनी तीखी होती है कि कपाल के भीतर भरी हुई मज्जा उससे कढ़ाव में उबलते तेल की तरह खौलने लगती है। इसी असह्य तापमान को मानसिक तनाव के रूप में देखा जा सकता है। तनाव के लक्षण सर्वविदित हैं—सिर भारी रहना, चकराना, जी उचटना, किसी काम में मन न लगना, पदार्थों से रुचि हट जाना, किसी से सघन आत्मीयता की अनुभूति न होना, उदासी छाई रहना, खोपड़ी चटकने, सिर के भीतर की नसें फटने जैसा लगना, नींद अल्प और अधूरी आना, स्वभाव में चिड़चिड़ापन बढ़ जाना, लक्षणों को देखकर जाना जा सकता है कि तनाव की व्यथा ने मनःक्षेत्र को आच्छादित कर लिया। मोटे तौर पर इसे सिर दर्द जैसी स्थानीय व्यथा के समतुल्य माना जा सकता है; पर बात ऐसी है नहीं। तनाव का कारण जटिल है। विकृत चिन्तन जब सारे मानसिक संस्थान को आंधी-तूफान की तरह तोड़-मरोड़कर रख देने जितना प्रचण्ड होता है तो ही उससे तनाव उत्पन्न होता है। सामान्य स्थिति में तो औंधे-सीधे विचार आते-जाते रहते हैं। उनका प्रभाव न गहरा ही होता है और न स्थायी।
मानसिक तनाव का समूचे शरीर पर प्रभाव पड़ता है और अन्य कारण न होने पर भी मात्र अकेले इसी विग्रह के कारण शरीर के भीतरी और बाहरी अवयव अपनी स्वाभाविक क्रियाशीलता गंवाते चले जाते हैं। घड़ी के पुर्जों की तरह शरीर के अवयवों का पारस्परिक सहयोग एवं तालमेल ही जीवन रथ को अग्रगामी बनाता है। एक पुर्जा गड़बड़ी फैलाने लगे तो सारी मशीन का सन्तुलन बिगड़ जाता है और बढ़िया भी अपना काम ठीक तरह कर सकने में असमर्थ हो जाती है। तनाव यों सामान्य रोग दीखता है; पर उसकी जड़ें मस्तिष्क रूपी जीवन संचार केन्द्र में धुस जाती हैं इसलिए वहां की विकृति हर कल पुर्जे को प्रभावित करती है। फलतः चिकित्सक कोई कारण ढूंढ़ नहीं पाते-निदान में कोई प्रत्यक्ष संकट दृष्टिगोचर नहीं होता फिर भी शरीर गलता ही जाता है। दुर्बलता बढ़ती और बढ़ती ही चली जाती है। साथ ही चित्र-विचित्र रोगों की आये दिन फुलझड़ियां अपने-अपने कौतूहल दिखाती हुई सामने आती रहती है।
तनाव और उसके कारण
हमारे तनाव तीन तरह के होते हैं—शारीरिक (मैक्युलर) मानसिक (मेन्टल) और भावनात्मक (इमोशनल)। इन्हें ही आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक ताप कहते हैं। दीर्घकाल तक लगातार एक ही प्रकार का और अत्यधिक श्रम करने से ‘मस्क्यूलर टेन्शन’ होता है। इसके मुख्य कारण हैं-(1) अनिच्छापूर्वक काम करना (2) मैं परिश्रम कर रहा हूं। (या कर रही हूं), यह भावना होना। यदि मनुष्य ‘श्रम’ की यह भावना इस रूप में कि मैंने बहुत श्रम किया, भूल जाए, तो वह तीन घन्टे का विश्राम तथा एक या दो बार भोजन कर लगातार 20 घण्टे से अधिक काम कर सकता है।
‘‘मस्क्यूलर टेन्शन’’—अधिक सोने, दिन चढ़े तक सोते रहने, अधिक खाने और व्यायाम नहीं करने से भी होता है। तामसिक भोजन भी तनाव ले आता है।
‘मस्क्यूलर टेन्शन’ दूर करने का सरल तरीका योगासन है। मनुष्य काम करते-करते जब थक जाता है, तो अंगड़ाई लेता है। लिखते-लिखते हाथ दुःखने लगें, तो हाथ को झटकारता है, विपरीत स्थिति लेता है। एक काम को छोड़कर दूसरा काम करता है—मन बहलाने का प्रयास करता है, पर मनोविनोद के प्रचलित साधनों से वस्तुतः न तो ‘मस्क्यूलर टेन्शन’ दूर होते न ‘मेन्टल’ और न ‘इमोशनल’।
‘मेन्टल टेन्शन्स’ बहुत अधिक सोचने से होता है। सोचना सिर्फ वही चाहिए, जिस विषय में सोचना जरूरी हो। परन्तु प्रायः सभी मनुष्य काम की बातें बहुत ही कम तथा बेकार ऊल-जलूल या कि जिनसे वर्तमान का कोई सम्बन्ध नहीं ऐसी बातें बहुत अधिक सोचते रहते हैं। पिछली बातों और घटनाओं पर हम बहुत अधिक सोचते रहते हैं। किसी से लड़ाई हो गई, किसी ने गाली दे दी, कोई दुर्घटना हो गई कि बस, सोचना चालू। यह सोचना सर्वतः व्यर्थ होता है। सोचने से मानसिक तनाव पैदा होता है। अत्यधिक मानसिक तनाव बढ़ जाने पर ‘मेन्टन रिटार्डेशन’ (मस्तिष्कीय शक्ति का सुन्न-सा हो जाना) होता है। इन दिनों दुनिया में ‘‘मेन्टल रिटार्डेशन’’ के लाखों मामले प्रकाश में आ रहे हैं। शारीरिक तनाव रात्रि-विश्राम से दूर भी हो जाते हैं, पर मानसिक तनाव तो नींद में भी बने रहते हैं, ट्रैक्विलाइजर लेने से वे समाप्त नहीं होते। इनके लगातार बने रहने पर ‘डिग्रेशन’ आता है। ‘डिग्रेशन’ को दूर करने के लिए लोग सुरा-सुन्दरी की शरण में जाते हैं।
मानसिक तनाव बढ़ जाने पर शिराएं फटने-सी लगती हैं। आंखें कमजोर हो जाती हैं। कब्ज रहती है। डकारें आती हैं। धूम्रपान की इच्छा होती है चाय की याद आती है। शारीरिक व मानसिक तनाव मिलकर काम व क्रोध के आवेग बार-बार पैदा करते हैं।
तीसरा है भावनाओं का तनाव। मनुष्य निरन्तर भावनाओं के थपेड़े खाते रहते हैं। भावनायें बहुधा यथार्थ पर आधारित नहीं होती। किन्तु मनुष्य उनसे अत्यधिक आसक्ति रखते हैं, उन्हीं से चिपटे रहते हैं। भावनाओं पर चोट लगती है तो तीखी प्रतिक्रिया होती है, जिनसे रोग पैदा होते हैं। ‘इमोशनल टेन्शन्स’, ‘हार्टअटैक’ को जन्म देते हैं। किसी का प्रिय मित्र, पुत्र, पति या पत्नी अथवा रिश्तेदार कल आने वाला है, तो रात भर उसे नींद नहीं आयेगी। एक घण्टे बाद परीक्षाफल घोषित होने वाला है, दिल की धड़कन बहुत बढ़ गई। दूर कहीं प्रवास पर हैं, रात में सहसा घर की याद आ गई है, नींद गायब। यही है भावनात्मक तनाव।
ये भावनात्मक तनाव हमारे अनजाने व्यवहारों में प्रकट होते हैं। कुछ लोग कंधे उचकाते रहते हैं, कुछ पैर हिलाते रहते हैं, कुछ गुनगुनाते रहते हैं, कुछ सीटी बजाते रहते हैं। कोई बार-बार पलकें झपकाते हैं, तो कोई नाक से खूं-खूं की आवाज करते हैं। ये सब भावनात्मक तनाव के परिणाम हैं।
तनावों से नाड़ियों में रक्त, प्रवाह अधिक हो जाता है। इससे ‘हाईपरटेन्शन’ पैदा होता है। समय पर तनावों पर नियन्त्रण नहीं किया गया या अधिक तनाव के कारण दूर नहीं किये गये, तो ब्लड-प्रेशर एवं पैरालिसिस हो जाते हैं।
बीमारी कभी ‘मस्क्यूलर टेन्शन’ से होती है कभी ‘मेन्टल’ और कभी ‘इमोशनल’ से। कभी तीनों के मिश्रित कारणों से।
थकान से भी क्रोध आता है, चिन्ता से भी। दिमागी उलझन में फंसे व्यक्ति को सिर दर्द, हृदय, पीड़ा, अम्लता, कब्ज आदि तंग करते रहते हैं। जब व्यक्ति अपने को उपेक्षित समझता है और उसकी भावनायें अतृप्त-असंतुष्ट रही आती हैं, तो उसे टी.बी., दमा, आर्थराइटिस, कुष्ठरोग आदि पैदा हो जाते हैं।
तनाव किसी भी क्षेत्र में संव्याप्त क्यों न हो जीवनी शक्ति का अत्यधिक क्षरण करता है। शारीरिक और मानसिक श्रम से भी थकान आती; पर वह उथली रहती है और विश्राम करने एवं बलवर्धक आहार उपचार लेने से इसकी क्षति पूर्ति थोड़े ही समय में हो जाती है। किन्तु भावनात्मक तनाव ऐसे होते हैं जिनकी आधार भित्ति किसी गहरे आघात से सम्बन्धित होती है। ये घाव नासूर बन जाते हैं और समय-समय पर उभरते फूटते रहते हैं। ईर्ष्या, विद्वेष, प्रतिशोध जैसे मनस्ताप किसी भी कारण उत्पन्न हुए हों, अचेतन में जम कर बैठ जाते हैं और पुरानी घटनाओं को याद करके अन्तःक्षेत्र को उद्वेलित करते रहते हैं। किन्हीं असाधारण महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में व्यवधान उत्पन्न हो जाने पर भी ऐसा ही होता है। कल्पित सुनहरी स्वप्नों को आघात लगने तक से मनुष्य टूट जाता है फिर प्रत्यक्ष हानि का तो कहना ही क्या? प्रियजनों का विछोह, अपमान, घाटा अपयश आदि के घाव भी गहरे होते हैं और समय के साथ-साथ वे झीने पुराने भी होते जाते हैं—पर पूर्णतया समाप्त तब तक नहीं होते जब तक कि उन्हें प्रतिरोध के तीव्र विचारों से प्रयत्नपूर्वक काटा न जाय।
तनावजन्य दुष्परिणामों को जितना विघातक माना जाय कम है। उसके कारण उस जीवनी शक्ति का भण्डार बेतरह समाप्त होता है; जिसके ऊपर शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक सन्तुलन और आन्तरिक आनन्द निर्भर रहता है। तेल चुक जाने पर, दीपक को मात्र रुई बत्ती आदि के सहारे ज्वलन्त नहीं रखा जा सकता है। तनाव का सीधा आक्रमण उसी जीवन कोश पर होता है और वह क्षति इतनी तेजी से होती है कि सही ढंग से कुछ सोचने और व्यवस्था पूर्वक कुछ करने की दोनों ही सम्भावनायें अस्त-व्यस्त होती चली जाती हैं। ऐसी विपन्नता में फंसा हुआ व्यक्ति खोखला बन कर रह जाता है। शरीर की बनावट में भले ही अन्तर न आये पर स्थिति अर्धविक्षिप्त जैसी बन जाती है। ऐसे व्यक्ति न केवल स्वयं संतप्त रहते हैं वरन् सम्पर्क वालों को भी अपनी बेतुकेपन पर उद्विग्न किये रहते हैं।
असावधान और दुर्बल मनःस्थिति के व्यक्ति पर छोटे-छोटे कारण भयंकर तनाव उत्पन्न कर सकते हैं। अस्तु कोई प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न न होने पाये यह चाहने की अपेक्षा सोचना यह चाहिए कि हर परिस्थिति में सन्तुलन बनाये रखने की दूर-दर्शिता अपनाई जायगी और प्रतिकूलताओं के साथ खिलाड़ी की भावना से आंख मिचौनी खेली जायगी। ऐसा साहस संजोकर रखा जाय तो फिर कोई भी कठिनाई ऐसी नहीं रह जाती जो प्रयत्नपूर्वक हल अथवा धैर्यपूर्वक सहन न की जा सकती हो। तीन चौथाई कठिनाइयां तो आशंका मात्र होती हैं। भविष्य में अमुक कारण से अथवा अमुक व्यक्ति द्वारा अमुक कठिनाई उत्पन्न की जा सकती है, कोई दैवी विपत्ति आ सकती है या दुर्घटना घटित हो सकती है। ऐसा सोच-सोचकर ही कितनेक व्यक्ति अधमरे होते रहते हैं जबकि वस्तुतः वह काल्पनिक कठिनाई कभी भी सामने नहीं आता।
तनाव और विक्षोभ जैसी विकृतियों के दुष्परिणाम भुगतने के बाद भी कई व्यक्ति इन मनोरोगों को स्वयमेव बुलाते हैं, अन्यथा कोई कारण नहीं है कि इतने भयंकर मनोरोगों से बचने का कोई उपाय न किया जाय। वस्तुतः तनाव ग्रस्त बने रहने और मनःस्थिति को विक्षुब्ध बनाये रखने की आदत बचकाने दृष्टिकोण की प्रतिक्रिया है। यदि जिन्दगी को एक मनोरंजक खेल माना भर जाय और उसमें आते रहने वाली अनुकूलता, प्रतिकूलताओं की आंख-मिचौनी को एक खिलवाड़ भर माना जाय तो कोई भी अप्रिय घटना बहुत भारी प्रतीत न होगी और उतार-चढ़ावों को कौतूहल मात्र अनुभव किया जा सकेगा। इसके विपरीत यदि डरपोक अधीर प्रकृति होगी, छोटी कठिनाई को बढ़ा-चढ़ा कर सोचेंगे और उसी से भयभीत होकर पैरों पर कुल्हाड़ी ही नहीं मस्तिष्क को चूरा कर देने वाली हथौड़ी मारेंगे।
बात को बढ़ाकर सोचना ही यदि सुखद लगता हो तो दसों दिशाओं में बिखरे हुए प्राकृतिक सौन्दर्य को, इस संसार की कलात्मक संरचना को, मानव जीवन के साथ जुड़ी हुई अगणित विभूतियों को, समाज की सुव्यवस्थित संरचना को, सहयोग एवं सद्भाव के आधार पर मिलने वाले अनुदानों को, अब तक मिली सफलताओं को, उज्ज्वल भविष्य की आशा सम्भावनाओं को, विपत्तियों के ग्रहण की अस्थिरता को विचारा जाना चाहिए और उनके चित्र जितने बढ़ा-चढ़ाकर देखे जा सकते हों देखने चाहिए। हर मनुष्य के सामने कुछ अनुकूलताएं रहती हैं कुछ प्रतिकूलताएं। निश्चय ही उनमें प्रिय अधिक और अप्रिय कम होती हैं। अन्धकार से प्रकाश की सत्ता बढ़ी-चढ़ी है। असफलताओं की तुलना में सफलताओं की गणना अधिक है। शत्रुओं से मित्रों की संख्या कई गुनी होती है। अपनी स्थिति लाखों से बुरी है तो करोड़ों से अच्छी है। यदि इस प्रकार सोचा जा सके तो मस्तिष्क को उत्तेजित करके कष्टकारक तनाव की स्थिति से सहज ही छुटकारा पाया जा सकता है। यदि परिष्कृत दृष्टिकोण विकसित किया जा सके तो तथाकथित प्रतिकूलताएं उपेक्षणीय लगें और उनका खट्टा-मिट्ठा स्वाद लेते हुए सन्तुलन को यथावत बनाये रखा जा सके।
तनाव दूर होने का एक उपाय तो यह है कि मनोवांछित परिस्थितियां बनी रहें। कल्पवृक्ष आंगन में लगा हो और जो चाहा जाय वही तत्काल उपस्थित होता रहे। संसार के सभी प्राणी अपने वशवर्ती और अनुचर रहें। स्वर्ग जैसे किसी तथाकथित लोक में निवास रहे और सर्वत्र अनुकूलता पाई जाय। यदि यह दिवास्वप्न सम्भव न दीखते हो और विश्व रचना में अंधेरे-उजाले का पेंडुलम हिलना कटु सत्य समझ में आता हो तो फिर एक ही उपाय है कि हम प्रतिकूलताओं से डरें नहीं वरन् उन्हें विनोद के लिए आवश्यक उतार-चढ़ाव स्वीकार कर लें। ताल-मेल बिठाकर चलने वाली समझौतावादी नीति ही व्यावहारिक है। प्रतिकूलताएं भी अनुकूलताओं की तरह श्वास, प्रश्वास क्रम की तरह बनी ही रहने वाली हैं यदि यह मान लिया जाय तो जूझना, सहना और हंसना इन तीनों की समन्वित रीति-नीति अपनानी पड़ेगी।
तनाव परिस्थितिवश भी हो सकता है, पर उस स्थिति में वह अस्थायी रहता है और समय प्रवाह में वह बहता हुआ अन्यत्र चला जाता है। दृष्टिकोण की विकृति ही चिरस्थायी तनाव उत्पन्न करती है और उसी से जीवन का वरदान एक अभिशाप के रूप में परिणत होता है। अध्यात्म तत्व-दर्शन यदि हृदयंगम किया जा सके तो न केवल तनाव जैसी व्यथा से वरन् अन्यान्य आपदाओं से बचते हुए सन्तोष, आनन्द एवं उल्लास के साथ अभावग्रस्त विपन्न समझा जाने वाला कुसमय; सुखद सौभाग्य में सहज ही परिणत हो सकता है।